आज जब पूरे भारत में ‘किसान आंदोलन’ के नाम पर अराजकता फैलाने की कोशिश की जा रही है, हमें ज़रूरत है इतिहास के ऐसे किसान नेताओं को याद करने की, जिन्होंने सचमुच में किसानों के भले के लिए खुद आगे आकर नेतृत्व किया। मोतिहारी के राजकुमार शुक्ल लगातार गाँधीजी के पीछे पड़े रहे, जिससे उन्हें यहाँ आकर निलहे अंग्रेजों से चंपारण को मुक्ति दिलानी पड़ी। इसी तरह गुजरात के किसानों के लिए ‘बारदोली सत्याग्रह’ कर वल्लभभाई पटेल ‘सरदार’ बने।
आज इस ‘किसान आंदोलन’ का क्रेडिट लेने के लिए कॉन्ग्रेस, AAP और अकाली दल आपस में मारामारी कर रहे हैं। किसानों के संगठन आपस में सिर-फुटव्वल कर रहे हैं। वो बता नहीं पा रहे कि किसान हित में लाए गए तीनों कृषि कानूनों में समस्या क्या है। जबकि सरकार ने इसके कई फायदे गिना दिए हैं। खालिस्तानी नारे लग रहे, दिल्ली और भीमा-कोरेगाँव दंगों के आरोपितों का समर्थन हो रहा। सब कुछ किसानों के नाम पर।
इसीलिए, आज हम आपको ‘बारदोली आंदोलन’ की याद दिला रहे हैं। गुजरात के इस आंदोलन को महात्मा गाँधी का भी आशीर्वाद प्राप्त था। हम आगे बात करेंगे कि कैसे ये आंदोलन आज के किसान नेताओं के लिए मिसाल होना चाहिए और किस तरह आज़ाद भारत के इन नेताओं को अंग्रेजों के जुल्मोसितम के बीच हुए इस सत्याग्रह को याद करना चाहिए। ऐसा इसीलिए, क्योंकि आज इन नेताओं के बीच न कोई ‘सरदार’ है, न कोई चौधरी चरण सिंह।
आज की इस अराजकता को कुछ पल भूल कर चलते हैं 1921 में, जब गुजरात में दुर्भिक्ष के कारण किसानों की स्थिति खासी बुरी हो गई थी। खेत सूखे पड़े हुए थे और उत्पादन 20% भी मुश्किल से हो पाया था। अंग्रेजों के अधिकारी उत्पादन के आँकड़ों में हेराफेरी करते रहते थे। आखिर उन्हें ज्यादा लगान की वसूली दिखा कर अपने आकाओं को खुश जो करना था! 3 वर्ष पहले ही खेड़ा में सत्याग्रह हुआ था, उससे ज़रूर किसानों को कुछ हिम्मत मिली थी।
1921 के सूखाग्रस्त वर्ष में सूरत स्थित बारदोली तहसील के किसान लगान भरने में सक्षम नहीं हो पाए थे। अंग्रेजों ने इसे एक ऐसी गुस्ताखी माना, जिसकी ‘सजा’ देने के लिए वो अंदर ही अंदर कुलबुला रहे थे। हालाँकि, तब वो किसानों से कुछ नहीं कह पाए थे। अंग्रेजों की याद्दाश्त देखिए कि 1921 में जो हुआ, उस एक तहसील के किसानों की ये ‘गलती (उनकी नजर में)’ उन्हें 1928 में भी याद थी।
तभी 1928 में लगान को अचानक से 66% बढ़ा दिया गया। बारदोली के किसान मेहनती थे। उन्होंने अपनी लगन और मेहनत से अपनी समृद्धि का रास्ता तय किया गया। भारत माँ की वो जमीन भी खासी उर्वरा थी। वहाँ के कई किसान अफ्रीका भी गए थे, जहाँ से पूँजी लेकर लौटे थे। उनकी काश्तकारी की भी मिसाल दी जाती थी। ऐसे में अंग्रेजों द्वारा अचानक से लगान में इतनी ज्यादा वृद्धि किए जाने से उन्हें धक्का लगा।
ऐसे में इन किसानों ने अत्याचारी अंग्रेजों के सामूहिक प्रतिकार का निर्णय लेते हुए ऐलान किया कि वो लगान नहीं देंगे। महात्मा गाँधी को आंदोलन का नेता नहीं बनाया जा सकता था, क्योंकि वो पूरे देश के सफर में लगे रहते थे और कॉन्ग्रेस के कार्यों में भी व्यस्त रहते थे। ऐसे में आए आए वल्लभभाई पटेल, जिनके पास महात्मा गाँधी के साथ काम करने का अच्छा अनुभव था। किसानों जा जत्था सीधा अहमदाबाद पहुँचा।
वल्लभभाई पटेल के घर पर किसानों का हुजूम उमड़ पड़ा। इनमें कई गरीब किसान भी थे, जिन्होंने उनसे अपील की कि वो इस आंदोलन का नेतृत्व करें। वल्लभभाई पटेल एक सफल अधिवक्ता था। ऐसे में उन्हें पता था कि लोगों का उत्साह कभी भी ठंडा पड़ सकता है। इसीलिए, उन्होंने उन्हें वास्तविकता समझाई। गाँधीजी की पोती (उनके तीसरे बेटे रामदास गाँधी की बेटी) सुमित्रा कुलकर्णी के शब्दों में समझें तो:
“वल्लभभाई पटेल कोई कच्चे खिलाड़ी नहीं थे। ढाई दिन के उत्साह में बेवकूफ बनने वालों में वो नहीं थे। क्षणिक उत्साह वाले लोगों का क्या कहना! आज चाहा तब मूँछ नीची कर के जी-हुजूरी करेंगे और वल्लभभाई पटेल को होली की आग में नारियल के समान होम कर अलग हट जाएँगे। उन्होंने तुरंत सत्याग्रह की कठिनाइयों का वर्णन कर दिया। सत्याग्रह में चक्की पीसनी पड़ती है। जाति-धर्म और आचार-विचार के बंधन तोड़ने होते हैं। पाखाना सफाई तक करनी पड़ती है। असल में पटेल लोगों को वास्तविकता का भान करा समझाना चाहते थे कि सत्याग्रह गंभीर होता है, खिलवाड़ नहीं है। सभी को मर-मिटने के लिए तैयार रहना चाहिए। इसीलिए, उन्होंने अपने शब्द कड़े किए।”
सभी किसानों ने कहा कि वो सत्याग्रह के नियमों का पालन करते हुए जान तक देने के लिए भी तैयार हैं। इस तरह से पटेल ने उन्हें अनुशासन भी सिखाया और अपने हक़ की लड़ाई में उनका नेता बनना भी स्वीकार किया। किसान बारदोली लौटे और एक सूची के साथ आए, जिसमें मर-मिटने का वादा करने वालों का नाम था। इसके बाद किसानों का वो जत्था साबरमती आश्रम पहुँचा। महात्मा गाँधी ने उन्हें सफलता की शुभकामनाएँ दी। तैयारियाँ शुरू हो गई।
यहाँ एक चीज देखिए। जहाँ एक तरफ पटेल ने किसानों को सत्याग्रह का महत्व समझा कर उन्हें देश की आज़ादी की बड़ी लड़ाई के लिए तैयार किया, वहीं दूसरी तरफ जिस तरह से किसान पूरे विचार-विमर्श के बाद ये सूची लेकर आए कि किस घर से किसे मर-मिटने के लिए भेजा जा सकता है – उनकी अपने नेता वल्लभभाई के प्रति श्रद्धा को दिखाता है। आज न कोई ऐसा अनुशासन सिखाने वाले नेता हैं, और न ऐसे संगठन।
आज जब ‘किसान आंदोलन’ में शरजील इमाम और उमर खालिद जैसे दंगाइयों को छुड़ाने की माँग की जाती है और संगठन उसका समर्थन करता है, तब कोई किसान नेता इस पर आवाज़ नहीं उठाता। महिलाएँ मोदी की मौत की दुआ माँगती है, कोई खालिस्तानी इंदिरा गाँधी की हत्या की याद दिलाते हुए पीएम मोदी को धमकाता है और कोई ‘जय हिंद’ के नारे को नकार देता है – ऐसे दसियों उदाहरण हैं जो इन नेताओं की पोल खोलते हैं।
सरदार पटेल हवा-हवाई नेता नहीं थे। उन्होंने बारदोली आश्रम को ही अपना मुख्य केंद्र बनाया और वहीं से आंदोलन का संचालन शुरू कर दिया। उस ‘स्वराज आश्रम’ में 1922 से कताई-बुनाई का कार्य होता था और उसका नाम ‘स्वराज आश्रम’ रखा गया था, जो एक सुंदर वाटिका की तरह था। रामदास गाँधी इस आश्रम के व्यवस्थापक हुआ करते थे। सत्याग्रह के दौरान 6 महीनों तक पटेल वहीं रहे। उनकी बेटी भी इस दौरान उनके साथ रहीं।
गाँधीजी ने भी महादेव देसाई को अपना प्रतिनिधि बना कर यहाँ भेजा। बारदोली तहसील के एक-एक स्त्री-पुरुष, बच्चे वहाँ पहुँचे। सभी पटेल को देखना चाहते थे। हजारों लोगों ने कुछ इस तरह से अंग्रेजों के खिलाफ सत्याग्रह का ऐलान किया, जैसे उन्हें मृत्यु का भय ही नहीं हो। लोग ऐसे चले, जैसे ख़ुशी से बरात जा रहे हों। उन्होंने लगान न भरने और अंग्रेजों का अहिंसक प्रतिकार करने का निर्णय लिया। कबीरदास का ये भजन उनका सम्बल बना, जिसे वो दोहराते चलते थे:
सूर संग्राम को देखि भागै नहीं, देखि भागै सोई सूर नाहीं।
काम औ क्रोध मद लोभ से जूझना, मँड़ा घमसान तहँ खेत माहीं॥१॥
सील औ साँच संतोष साही भये, नाम समसेर तहँ खूब बाजै।
कहत कबीर कोइ जूझिहैं सूरमा, कायराँ भीड़ तहँ तुरत भाजै॥२॥
#MemorableDay in #IndianHistory : #BardoliSatyagrah ,movement for which Vallabhbhai Patel was named as Sardar, was started on June 12,1928 pic.twitter.com/JBLcmvmH4S
— Dhanraj Nathwani (@DhanrajNathwani) June 12, 2017
बारदोली का नाम हो गया। गुजरात के समाचारपत्रों में वहाँ के सत्याग्रह की खबरें छपने लगीं और फिर पूरे देश में भी लोगों की नजरें इस पर आकर ठहर गईं। अलग-अलग क्षेत्रों के किसान जो परेशान थे, आशा भरी निगाहों से इस आंदोलन की सफलता की कामना करने लगे, क्योंकि इससे उन्हें भी उत्साह मिलता। सौराष्ट्र के लोकप्रिय कवि फूलचंद दास भी अपनी भजन मंडली के साथ आए और उन्होंने जन-जागरण में पूरा साथ दिया।
कुल 300 स्वयंसेवक पटेल कि सहायता के लिए बारडोली पहुँचे थे। हर गाँव में ऐसे कर्मठ लोगों को लगाया गया, ताकि सभी को इस आंदोलन से जोड़ा जा सके। पटेल ने कई कैंप बनाए। तब बारडोली के 130 गाँवों में 86,000 के आसपास लोग रहा करते थे। सरदार ने इस सत्याग्रह का सुचारु रूप से संचालन किया और कुछ अनुभवी सत्याग्रहियों को इस काम में लगाया। इसके बाद अंग्रेजों का दमन चक्र भी शुरू हुआ।
गुजरात में ‘महाराज’ के नाम से जाने जाने वाले कर्मठ कर्मयोगी रविशंकर को गिरफ्तार कर लिया गया, जिन्हें सम्पूर्ण आंदोलनकारी कहा जाता था। महात्मा गाँधी तक ने भी कहा कि इस आंदोलन की शुरुआत में ही उनके जैसे ‘श्रेष्ठ ब्राह्मण’ को गिरफ्तार किया गया है, सफलता जरूर मिलेगी। किसी का घर सील कर दिया गया, किसी को नजरबंद किया गया, किसी को जेल में डाल दिया गया। अब राष्ट्रीय नेताओं के संदेश भी आने लगे थे।
इन सबकी पूरी डिटेल एक ‘सत्याग्रह-विवरण’ नाम की पत्रिका में प्रकाशित किया जाता था। मात्र 1 घंटे में इसकी 10,000 प्रतियाँ समाप्त हो जाया करती थीं। ऊपर से पटेल के भाषण ऐसे होते थे, जिन्हें सुन कर लोगों को हिम्मत मिलती थी। अंग्रेजों ने किसानों से अपनी जेलें भर दीं। घर तो दूर की बात, उनके खेत और जानवर तक जब्त किए जाने लगे। कई किसानों की पिटाई हुई। महिलाओं को भी प्रताड़ित किया गया।
जनता झुकी नहीं। रामदास गाँधी को भी मार-मार कर जेल भेज दिया गया। अंत में अंग्रेजों को कोई रास्ता न सूझा तो बंबई के गवर्नर का आदेश आया कि वल्लभभाई पटेल को गिरफ्तार कर लिया जाए। गाँधीजी को जैसे ही इसकी सूचना मिली, उन्होंने तार भेजा कि जहाँ जैसी जरूरत पड़े, वो आने को तैयार हैं। पटेल ने उन्हें जवाब भेजा कि आप आ सकते हैं। गाँधीजी बारदोली पहुँच गए और अंग्रेजों की मुश्किलें और बढ़ गईं।
अंग्रेजों को लगने लगा था कि अब और सत्याग्रहियों को जेल में डालने से ये और भी उग्र हो जाएगा। उन्होंने पटेल को वार्ता के लिए बुलाया। किसानों के प्रतिनिधिमंडल से बातचीत की गई। ऐसी लगान की व्यवस्था की गई, जो दोनों पक्षों की सहमति से हो। महिलाओं ने इस आंदोलन का सफलतापूर्वक संचालन करने वाले वल्लभभाई पटेल को ‘सरदार’ की उपाधि से नवाजा। देश भर के किसानों के बीच उत्साह का संचार हुआ।
संत विनोबा भावे की मानें तो सरदार पटेल के दो कार्यों ने उन्हें अमर बनाया, एक तो बारदोली सत्याग्रह और एक खंड-खंड में बँटे रियासतों को एक करने का। आंध्र के पट्टाभि सीतारमैया ने इसकी तुलना ‘इजराइलियों का मिस्र से बहिर्गमन’ से किया। सरदार पटेल ने आंदोलन शरू होने से पहले शांतिपूर्ण समाधान के लिए बम्बई के गवर्नर को पत्र लिख कर इस लगान व्यवस्था को दोषपूर्ण, हानिकारक और आपत्तिजनक बताया था।
जब कोई संतोषजनक जवाब नहीं मिला तभी उन्होंने आंदोलन में कदम रखा। उन्होंने बारदोली की जनता से कह दिया था कि अगर वो पीछे हटे तो पूरे देश की नाक नीची हो जाएगी, वहीं वो जीते तो संसार भर में देश का मस्तक ऊँचा हो जाएगा। उन्होंने अंग्रेजों की टॉप और बंदूकों के बदले सत्य और दुःख सहने की शक्ति को अपना हथियार बताया। उनका कहना था कि जालिम सत्ता भी एकता से प्रतिकार करने वाली प्रजा के सामने नहीं टिक सकती है।
उन्होंने एक संगठन बना कर अनुशासित तरीके से आंदोलन का संचालन किया। उन्हें पता था कि जनता को तोड़ कर एकता भंग करने का प्रयास किया जाएगा। जब पटेल पर ‘बाहरी व्यक्ति’ होने का आरोप लगाया गया तो उन्होंने अंग्रेजों से पूछा कि इस देश का खून चूसने वाली इस सत्ता में कहाँ के लोग भरे पड़े हैं? मुस्लिमों और पठानों को बरगला कर अंग्रेजों ने फूट डालने की कोशिश की। सरदार पटेल ने सत्ता की तुलना मदोन्मत हाथी से करते हुए एक भाषण में बताया कि मच्छर जब उसके कान में घुसेगा तो वो सूँड पटक कर लोटने लगता है।
इन किसान संगठनों को सरदार वल्लभभाई पटेल के बारदोली सत्याग्रह से सीखना चाहिए कि आंदोलन कैसे होता है। आंदोलन में देश के प्रति श्रद्धा की भावना रखी जाती है, ‘जय हिंद’ को नकारा नहीं जाता। जनता को परेशान नहीं किया जाता है, उसे साथ लिया जाता है। क्रूरतम सत्ता भी जब झुके तो उससे बातचीत की जाती है, ताकि अपने लोग सुरक्षित रहें। यहाँ तो लोकतंत्र है और कृषि कानून भी किसानों के भले के लिए बने हैं।
Source: (Mahatma Gandhi : Mere Pitamah : By Sumitra Gandhi Kulkarni)
(सरदार वल्लभभाई पटेल, व्यक्ति एवं विचार: By NC मेहरोत्रा And डॉ रंजना कपूर)