आजादी के बाद वर्ष 1965 में भारत और पाकिस्तान के बीच जो कुछ भी हुआ, वह कई पीढ़ियों को आज भी याद है। दोनों देशों के बीच युद्ध ने दोनों देशों की दिशा और दशा बदल कर रख दी। भारतीय सेना जिस तरह से पाक सेना की धज्जियाँ उड़ा रही थी, अगर वही रफ्तार महज दो घंटे और बरकरार रहती तो भारत-पाक के नक्शे की तस्वीर ही कुछ और होती।
11 सितम्बर 1965। यह वह तारीख थी, जब प्रथम आर्मर्ड डिवीजन के तहत पूना हॉर्स रेजीमेंट के कमांडिंग ऑफिसर लेफ्टिनेंट कर्नल एबी तारापोर के नेतृत्व में पूना हॉर्स रेजिमेंट को चविंडा की लड़ाई के दौरान सियालकोट सेक्टर में फिलोरा जीतने का आदेश मिला। तारापोर अपने साथियों के साथ आगे बढ़ ही रहे थे कि अचानक से विरोधियों ने वजीराली क्षेत्र के आस-पास धावा बोल दिया। पाकिस्तानी सेना अपने अमेरिकी पैटन टैंक के ज़रिए ज़बरदस्त हमला कर रही थी।
1965 की भारत-पाक की लड़ाई में इनके नेतृत्व में भारतीय सेना की एक टुकड़ी ने पाकिस्तान के करीब 79 टैंक ध्वस्त कर दिए थे। भारत और पाक के बीच यह लड़ाई 7 से 11 सितंबर तक पाकिस्तान के फिलोरा गाँव में हुई थी। इस लड़ाई को भारतीय सेना के इतिहास में सबसे घातक लड़ाई माना जाता है।
11 सितंबर 1965 को उप महाद्वीप के दो नवगठित देश सन 1947 में अपनी स्थापना के बाद 18 वर्षों में दूसरी बार युद्ध लड़ रहे थे। फिलोरा की ऐतिहासिक लड़ाई में सियालकोट सेक्टर में भारतीय वन आर्मर्ड डिवीजन के अंदर फोर हॉर्स एक टैंक रेजिमेंट थी, जो आज अपनी गौरवशाली गाथा के लिए प्रसिद्ध है। इस रेजिमेंट ने दुश्मन के 79 टैंकों और 17 आरसीएल बंदूकों को नष्ट किया था। इस दौरान फोर हॉर्स कमांडेंट लेफ्टिनेंट कर्नल एमएम बक्शी ने पाकिस्तान के तीन टैंक बर्बाद किए थे। जाँबाज सिपाहियों ने दुश्मनों के इतने टैंक फोड़े कि रणभूमि में ही टैंकों की कब्रगाह बन गई।
Sept 11th is not just the anniversary of a heinous terrorist attack that killed thousands in New York.
— Ajai Shukla (@ajaishukla) September 10, 2021
It is also anniversary of Battle of Phillora, in 1965 Indo-Pak war, in which Centurion tanks of my regiment — 4 HORSE — played merry hell with Pakistani Pattons.
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रेजिमेंट के इन महान योद्धाओं की बदौलत ही पाकिस्तान को मुँह की खानी पड़ी थी। इस रेजिमेंट को भारतीय सेना के इतिहास में एक मात्र ऐसी रेजिमेंट होने का अनूठा गौरव प्राप्त है, जिसमें एक साथ दो सेना कमांडर हैं। लेफ्टिनेंट जनरल आरएम बोहरा (एमवीसी, एवीएसएम) जो पूर्व सेना कमांडर के रूप में सेवानिवृत्त हुए और लेफ्टिनेंट जनरल गुरिन्दर सिंह (पीवीएसएम, एवीएसएम) जिन्होंने उत्तरी सेना की कमांड सँभाली। अपने 164 वर्षों के गौरवशाली इतिहास के साथ, 4 हॉर्स अभी भी युद्ध की तैयारी और सैनिक कौशल के मानकों को बनाए रखती है।
भारत और पाक के बीच हुई इस जंग में टैंकों का प्रयोग सेकेंड वर्ल्ड वॉर के बाद सबसे ज्यादा हुआ था। पाकिस्तान के पास उस समय अमेरिका में बने कई बेहतरीन टैंक्स थे, जिनमें पैटन एम-47, एम-48 और एम-4 शैरमैन टैंक्स खास तौर पर शामिल थे। इन टैंक्स की वजह से पाकिस्तान ने शुरुआत में भारत पर हावी होने की कोशिशें की थीं। पाकिस्तानियों की ओर से हो रहे हमलों का भारतीय सेनाओं ने मुँहतोड़ जवाब दिया था।
इधर पाकिस्तान की तरफ से की जा रही गोलाबारी में तारापोर बुरी तरह से घायल हो गए थे। साथियों समेत सीनियर्स ने उन्हें पीछे हटने की सलाह दी थी। मगर तारापोर नहीं माने। जख्मी हालत में भी वो लगातार मोर्चे पर अड़े रहे और वजीराली पर भारतीय तिंरगा फहरा दिया। चाविंडा उनका अगला लक्ष्य था। जिसे जीतने के लिए वह योजनाबद्ध तरीके से आगे बढ़े। दुश्मन सेना ने पूरी मज़बूती से उन्हें रोकने की कोशिश की। मगर वह कामयाब नहीं हुए। उन्हें पीछे हटना ही पड़ा।
लगातार मिलने वाली हार से विरोधी आग बबूला हो गया। उसने ज्यादा से ज्यादा अमेरिकी पैटन टैंकों को जंग के मैदान में उतार दिया। तारापोर ने इसके जवाब की पूरी तैयारी कर रखी थी। जैसे ही विरोधियों की तरफ़ से गोलाबारी शुरू की गई, भारतीय सैनिक उन पर टूट पड़े। एक-एक करके उन्होंने पाकिस्तानी सेना के टैंकों को नष्ट करना शुरू कर दिया।
भारतीय सैना की 43 टैंकों की टुकड़ी तारापोर की मदद के लिए पहुँचती, इससे पहले ही उन्होंने दुश्मन के 69 टैंकों को नेस्तनाबूत कर दिया था। तारापोर आगे बढ़ते इससे पहले दुश्मन का एक गोला उनके ऊपर आकर गिरा और वह वीरगति को प्राप्त हो गए। दुश्मन की सेना ने भी वीर तारापोर की बहादुरी का सम्मान करते हुए उनके अंतिम संस्कार के वक्त फायरिंग रोक दी थी। अपने लीडर की मौत के बाद भी भारतीय जवानों ने दुश्मनों से जमकर लोहा लिया और अंतत: फिलोरा पर भारतीय तिरंगा लहराया दिया। मरणोपरांत उन्हें परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया था। वह छत्रपति शिवाजी महाराज के वंशज थे।
पाकिस्तानी हमलों को नाकाम करते भारतीय सेना ने पाकिस्तान के एक और शहर डोगराई पर भी कब्जा कर लिया था। पाकिस्तानी सेना को खदेड़ते-खदेड़ते भारतीय सेना एक के बाद एक पाकिस्तानी गाँवों और शहरों पर तिरंगा फहराती आगे बढ़ती हुई लाहौर तक जा पहुँची।
20 सितंबर 1965 को हमारी सेना लाहौर के इतने करीब पहुँच गई थी कि वहाँ से दागा टैंक का गोला सीधा लाहौर शहर में जा गिरता। तब तक घबराया पाकिस्तान लड़ाई बंद करवाने के लिए यूनाइटेड नेशन की शरण में पहुँच गया और भारतीय सेना को आगे न बढ़ने के आदेश मिल गए। जिसके बाद 23 सितंबर 1965 को सीजफायर घोषित हो गया। इस तरह पाकिस्तान ने लाहौर को बचा लिया। इस लड़ाई में इन्फेंट्री डिवीज़न की कमांड मेजर जनरल हरि कृष्ण सिबल के पास और आर्म्ड रेजिमेंट की कमांड लेफ्टिनेंट कर्नल अनंत सिंह पास रही।
उल्लेखनीय है कि जिस वक्त भारतीय सेना तेजी से आगे बढ़ रही थी, उस वक्त पाकिस्तान ने अमेरिका की शरण ले ली थी। गौर करने वाली बात यह है कि उस वक्त देश में भूखमरी बड़ी समस्या थी। उस दौर में अमेरिका से घटिया क्वालिटी का PL-48 गेहूँ आयात होता था। यह दिखने में लाल रंग का होता था, जिसे अमेरिका में जानवर भी नहीं खाते थे।
उस वक्त भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री को अमेरिका से धमकी दी गई थी अगर युद्ध नहीं रुका तो गेहूँ का आयात बंद कर दिया जाएगा। जिसके बाद लाल बहादुर शास्त्री ने दो टूक कह दिया था बंद कर दीजिए गेहूँ देना। लाल बहादुर शास्त्री शास्त्री के इस दो टूक के बाद कुछ दिनों बाद अमेरिकी अधिकारियों ने बयान दिया कि अगर अमेरिका ने गेहूँ देना बंद कर दिया तो भारत के लोग भूखे मर जाएँगे। लेकिन PM शास्त्री ने इस बयान का और भी करारा जवाब अमेरिका को दिया था। उन्होंने कहा कि हम बिना गेहूँ के भूखे मरे या बहुत अधिक खा के मरे, आपको क्या तकलीफ। लाल बहादुर शास्त्री शास्त्री ने कहा कि हम भूखे मारना पसंद होगा बेशर्ते सड़ा हुआ गेहूँ खाकर, इसके साथ ही उन्होंने अमेरिका से गेहूँ लेने से भी साफ इनकार कर दिया था।
लेकिन जिस वक्त भारत-पाक का युद्ध चल रहा था उस वक्त देश में वित्तीय संकट था। उस वक्त PM शास्त्री ने दिल्ली के रामलीला मैदान में लाखों लोगों से अपील करते हुए कहा था, “एक तरफ पाकिस्तान से युद्ध चल रहा है। ऐसे हालातों मे देश को पैसे की बहुत जरूरत पड़ती है। मैं आप सब लोग से अपील करता हूँ कि आप लोग फालतू खर्चे बंद करें। जिससे कि घरेलू इनकम में बढ़ोतरी हो या सीधे देश की सेना को दान करें।” शास्त्री ने लोगों से हफ्ते में एक दिन व्रत भी रखने को कहा, यही नहीं उन्होंने खुद भी हर सोमवार को व्रत रखना शुरु कर दिया था। उनका कहना था कि ऐसा करने से गेहूँ की माँग में भी कमी आएगी।
इसी समय लाल बहादुर शास्त्री ने ‘जय जवान जय किसान’ का नारा दिया। लाल बहादुर शास्त्री के ‘जय जवान जय किसान’ के उद्घोष से जहाँ जवानों में उत्साह और जोश का संचार हुआ, वहीं आम जनता, किसानों, युवाओं, महिलाओं, यहाँ तक कि बच्चों ने भी युद्ध की गंभीरता को समझा और और अपना-अपना योगदान दिया। महिलाओं ने अपने गहने तक दान किए, लोगों ने उपवास किए और युद्ध के आर्थिक प्रबंधन में अपनी भागीदारी निभाई। वो कहते हैं न कि बूँद-बूँद से सागर भरता है, ठीक उसी तरह सबके सम्मिलित प्रयासों से भारत माता के कोष में युद्ध के लिए धन की कमी नहीं आई।
वास्तव में 1965 का युद्ध सिर्फ सीमा पर ही नहीं जीता गया, बल्कि यह हर भारतवासी की जीत थी। यह कुशल नेतृत्व की जीत थी, यह नेतृत्व पर विश्वास की जीत थी। आक्रमणकारी हमें कमजोर समझ कर हम पर सुनियोजित और पूरी तैयारी के साथ हमला किया था, पर शायद उसे यह आभास नहीं था कि हालाँकि भारत कभी युद्ध का पक्षधर नहीं रहा है, पर समय गवाह है कि भारत ने हरेक आक्रमणकारी को अपने वीरता और पराक्रम से हराया है और हमारे वीर सैनिकों ने भारत की स्वतंत्रता और संप्रभुता को हमेशा अक्षुण्ण रखा है। इन वीर सपूतों की वीरगाथा को शब्दों में बाँधना उतना ही कठिन है, जितना बहते हुए पानी को मुट्ठी में बंद करना।