सदियों के अंधकार के बाद दक्षिण में एक सूर्य निकला जिसने पददलित हिंदू जनमानस को एक बार फिर से सीना चौड़ा कर चलने का अवसर प्रदान किया। उस सूर्य का नाम था शिवाजी।
पूरा भारत मुख्यतः तीन सल्तनतों के अधीन था। मुग़लशाही, कुतुबशाही और आदिलशाही। मुगलों ने पूरे उत्तर भारत को और बाकी दोनों शाहियों ने दक्षिण भारत को अपना गुलाम बना रखा था। उस समय शिवाजी के पिता बीजापुर की आदिलशाही सल्तनत के एक सरदार थे। उन्होंने बालक शिवा पर कभी खुश होकर उन्हें एक छोटी सी रियासत दे दी। हालाँकि उन्होंने कभी कहा नहीं, पर शिवाजी ने उनकी अनकही आज्ञा का मान रखते हुए अपनी छोटी सी जमीदारी को इतना बढ़ाया कि आदिलशाही ही नहीं, बल्कि मुग़लशाही भी त्रस्त हो गई।
बीजापुर के सुल्तान ने बड़ी हसरत से अफजल खान को शिवाजी का सफाया करने भेजा था, लेकिन अफजल खान अपनी आधी से अधिक सेना के साथ समाप्त हो गया। शिवाजी के सेनापतियों का हौसला बुलंद था। उन्होंने पूरे प्रदेश में खण्डनी वसूलनी शुरू कर दी। बीजापुर में यह अफवाह फैल गई कि शिवाजी बीजापुर पर हमला करने वाला है और अली आदिलशाह को गद्दी से उतारकर किसी दूसरे को सुल्तान बनाना चाहता है। सुल्तान ने दरबार बुलाया और कर्नूल के बहादुर सरदार सिद्दी जौहर से सहायता माँगी।
सिद्दी जौहर बहुत पराक्रमी, युद्ध कुशल और जोशीला व्यक्ति था। वह 20 हजार घुड़सवार और 40 हजार पैदल सेना के साथ शिवाजी को सबक सिखाने पन्हालगढ़ चल दिया। उसके साथ पिछली जंग से शिवाजी से हारे हुए सरदार, फजल खान और रुस्तमजहाँ भी थे।
शिवाजी की तमाम सेनाएँ अलग-अलग क्षेत्रों में, अलग-अलग मुहिमों में व्यस्त थी। समय शिवाजी के पक्ष में नहीं था और सिद्दी जौहर चला आ रहा था। तभी खबर मिली कि मुगलों का सरदार शाइस्ता खान भी 75 हजार की सेना के साथ निकल पड़ा है। शिवाजी ने अपने सभी किलों को अनाज, घी, बारूद से भर देने और पानी की समुचित व्यवस्था कर लेने का आदेश दे दिया था।
कुछ ही दिनों में सिद्दी की फौज पन्हालगढ़ के किले तक आ गई और उसने समय न गँवाते हुए तुरन्त ही किले को हर तरह और हर तरफ से घेर लिया। उधर शाइस्ता खान ने पुणे पर कब्जा कर लिया और चैन से बैठ गया। 2 महीने बीत चले। शिवाजी भी अपनी तोपों के भरोसे आराम से बैठे थे। सिद्दी जौहर का घेरा बहुत मजबूत था, फिर भी वह जब भी आगे बढ़ता, किले की तोपों की मार से उसे वापस लौटना पड़ता।
शिवाजी को उम्मीद थी कि जैसे ही वर्षा ऋतु शुरू होगी, सह्याद्रि से आती पानी की मार से घेरा अस्त-व्यस्त हो जाएगा और वे अपने चुनिंदा साथियों के साथ निकल जाएँगे। पर सिद्दी भी कम जिद्दी नहीं था। वह वर्षा ऋतु में भी डटकर खड़ा रहा। घेरा ढीला होने की जगह और कस दिया गया। उसने एक चाल और चली। राजापुर के अंग्रेजों को खूब पैसे खिलाकर उनकी लम्बी दूरी तक मार करने वाली तोपें और तोपची मँगवा लिए।
यह वही अंग्रेज थे जिन्हें कुछ ही महीने पहले शिवाजी ने अभयदान दिया था और संधि की थी। अंग्रेजों की आधुनिक हल्की तोपों ने सिद्दी जौहर का पलड़ा भारी कर दिया। अब तो कुछ भी करके किले से बाहर निकलना ही था अन्यथा पिंजरे में फँसे शेर की तरह कुछ ही दिनों में हिन्दूशाही का उत्साह फेन की भाँति बैठ जाता।
एक रात पन्हालगढ़ के किले की दीवार से रस्सियों के सहारे एक संन्यासी को ऊपर लाया गया और वह शिवाजी के सामने पेश हुआ। उसे देख शिवाजी बहुत खुश हुए। उसके गले लगते हुए बोले, “अरे महादेव, तू इधर कैसे?”
संन्यासी के भेष में आया यह महादेव शिवाजी का खास जासूस और मित्र था। पिछले महीने भर से सैनिक बनकर सिद्दी की सेना में था और आज मौका देखकर किला चढ़ गया था। वह उत्साहित स्वर में बोला, “राजे, ऐसा घेरा मैंने कभी नहीं देखा था। सिद्दी के सारे सरदार दिन में कई-कई बार चक्कर लगाकर देखते हैं कि कहीं कोई कमजोर कड़ी तो नहीं है। खुद सिद्दी भी दिन में दो चक्कर लगाता है। पर राजे, उत्तर की ओर जो पहाड़ी ढलान है, वहाँ दो चौकियों के बीच की दूरी बाकियों से अधिक है। वहीं से दाँव लगाया जा सकता है।”
शिवाजी ने पूरी बातें सुनी और महादेव को आराम करने के लिए कहकर अपने कमरे में चले गए। अगले दिन सभा बैठी। बाजीप्रभु, त्र्यम्बकराव, गंगाधरपन्त, येसाजी जैसे सरदार जुटे। वहाँ महादेव को बुलाया गया और महादेव ने सारी बातें बताई। यह सब सुनकर त्र्यम्बकराव बोले, “यह तो शुभ समाचार है। अब रुकने का कोई फायदा नहीं। जितनी जल्दी हो, आप यहाँ से निकल जाइए राजे।”
बाजीप्रभु अपना रोष छुपा न सके, “हमारे होते हुए राजे यूँ छुप-छुपाकर भागें, यह हम मराठों के लिए डूब मरने के बात है।”
इस पर शिवाजी बोले, “इतिहास से शिक्षा लो बाजी। क्या कृष्ण मथुरा से निकल नहीं गए थे। क्या यह यादवों के लिए डूब मरने की बात थी? और कृष्ण जो गए तो कभी वापस नहीं आए। पर हम जाएँगे तो दुगनी शक्ति से वापस भी आएँगे। युद्ध में अंतिम जीत-हार से पहले कई बार छोटी-छोटी लड़ाइयाँ हारनी भी पड़ती हैं। अतः यह न सोचो कि हम अंतिम रूप से हार गए हैं।” कुछ क्षण रुककर वे पुनः बोले, “यद्यपि यहाँ से निकलना ही अत्यंत कठिन है, पर उससे अधिक कठिन होगा, निकलने के बाद पंद्रह कोस की दूरी तय कर विशालगढ़ तक पहुँचना। क्या हम इतनी दूर शत्रुओं की नजर में आए बिना, या पीछा करती फौज से बचकर पहुँच सकते हैं?”
अबकी बाजीप्रभु पूरे जोश से बोले, “राजे! आप बस इस किले से निकलिए। आपको विशालगढ़ तक पहुँचाने का जिम्मा मेरा।”
अगली रात महादेव के साथ दस सैनिक किले की खिड़की (छोटे दरवाजे) से निकले और उन चौकियों के बीच से निकलकर कुछ आगे जाकर सकुशल वापस आ गए। अगली कुछ रातों तक ऐसा ही किया गया। हर बार सैनिक बढ़ जाते। दो-तीन बार पालकी भी ऐसे ही आर-पार की गई। सब ठीक था, पर राजे संतुष्ट नहीं थे। योजना में कुछ तो कमी थी।
इस मौके पर पकड़ा जाना बहुत भारी पड़ता। वे डरते नहीं थे, बल्कि यह सोचकर परेशान थे कि यदि इस समय वे पकड़ लिए गए तो हिन्दूशाही का सपना आकार लेने से पहले ही समाप्त हो जाएगा। मराठों के बीच आपसी मन-मुटाव इतना अधिक था कि यदि वे न रहे तो मराठे और सारी जनता यूँ ही न जाने कितनी पीढ़ियों तक गुलाम बनी रहेंगी।
शिवाजी का नापित ‘शिवा’ उनका बहुत मुँह लगा था। बावजूद इसके, वह कई दिन से उनकी उदासी पढ़ रहा था पर कुछ बोलने की हिम्मत न होती थी। एक दिन शिवाजी अपने आंतरिक कक्ष में आए तो देखा कि उनका नाई उनके वस्त्र और आभूषण पहनकर शीशे के सामने खड़ा है और अपनी दाढ़ी को एक खास तरीके से सँवार रहा है।
शिवाजी चुपचाप कौतूहल से उसे देखते रह गए। जब शिवा नाई ने अपनी सज्जा पूरी कर ली तो शिवाजी राजे की आँखें फटी रह गईं। वह हूबहू उनका प्रतिबिंब लग रहा था। शिवा नाई ने इतने पर ही बस नहीं किया, बल्कि उसने राजे की जूतियाँ पहन ली, उनका कटार खोंस लिया और कुछ कदम चहलकदमी करने लगा। तभी उसकी नजर अपनी ओर देखते राजे पर पड़ी। वह हड़बड़ा गया और झपटकर उनके पैरों में गिर पड़ा।
इस बेअदबी पर भी शांत रहकर राजे ने प्रश्न किया, “शिवा, यह सब क्या?”
शिवा ने अत्यंत विनीत होकर कहा, “राजे, अपराध क्षमा। लेकिन मैंने यह सब खिलवाड़ में नहीं पहना। गणपति ने मुझे आपके जैसा डील-डौल दिया है। मैं देख रहा था कि यदि मैं आपकी तरह के कपड़े वगैरह पहन लूँ तो क्या राजे बन सकता हूँ। राजे! देखिए, मैं बिल्कुल आप जैसा ही लगता हूँ। मराठे भले मुझे पहचान लें पर शत्रु इतनी आसानी से नहीं पहचान सकेंगे। छोटा मुँह बड़ी बात, मैं आपको सलाह देने चला हूँ, पर मेरी विनती सुन लीजिए। क्या हो कि मैं आपके भेष में पकड़ा जाऊँ? फिर तो आपका रास्ता साफ हो जाएगा। आप आराम से निकल सकते हैं। है न राजे!”
एक मामूली नापित के मुँह से ऐसी बलिदान की बातें सुन राजे का मन भर आया। उन्होंने उसे गले से लगाया और कहा, “मेरे देश में जब तक तुझ जैसे नागरिक हैं, किसी शिवा को राष्ट्रसेवा में कभी कोई बाधा नहीं आ सकती। पर मैं स्वयं के प्राणों के लिए तेरे प्राण अर्पण नहीं कर सकता।”
शिवा पैरों में गिर पड़ा और बोला, “राजे! आपके लिए, महाराष्ट्र के लिए, भारत भूमि के लिए कितने-कितने मराठे सैनिक-भेष में युद्ध लड़ते है और मृत्यु पाते हैं। आप जब इस किले से निकलेंगे तो न जाने कितने वीर मराठे आपके लिए प्राणोत्सर्ग कर देंगे। तो क्या मैं ही इतना अधम हूँ कि अपने प्राण बचाता फिरूँ? मेरे हिस्से का स्वर्ग मुझसे न छीनो राजे। मरना तो कभी न कभी है ही, फिर आपके लिए मरना तो जीवन जीने से अधिक आनन्ददायक होगा।”
राजे कुछ बोल न सके और मन्त्रणा कक्ष की ओर चले गए।
रात गहरा गई थी। आसमान में इतने बादल थे कि पूनम की रात भी अंधकार में डूबी हुई थी। छोटे दरवाजे से दो पालकियाँ निकली। राजे, 600 बांदल मावळे सैनिक और 200 कहार। इतने कहार इसलिए कि कहारों की एक टोली के तनिक भी धीमा होते ही दूसरी टोली उनकी जगह ले ले।
बरसाती कीचड़ और पहाड़ी-पथरीले रास्ते से लगातार भागते हुए जाना था। सब नंगे पैर थे, कि तनिक भी आवाज न हो। शिवा नाई को एक पालकी में शिवाजी राजे के भेष में बिठा दिया गया और उसकी पालकी दूसरे रास्ते से चल पड़ी। शिवाजी ने भी अपने सरदारों से जल्दी से विदा ली और पालकी में बैठ गए। सब लोग चल पड़े।
दुश्मन की चौकियाँ नजदीक आ गई थी। शिवाजी की टोली बहुत आहिस्ते, बिना शोर किए चली जा रही थी, चौकियाँ पार भी हो ही गई थी कि किसी सैनिक का पैर बरसात के कीचड़ में धँस गया। पैर के धँसने और निकालने की आवाज भी उस नीरवता में बड़ी जोर से गूँजी। पहरेदार सिपाहियों का ध्यान आकृष्ट हुआ और जोर की आवाज हुई, “होशियार”। यह आवाज सुनते ही अब तक ‘धीमे चलो, आहिस्ते चलो’ कहने वाले बाजीप्रभु ने आदेश दिया ‘तेज चलो’ और पूरी टोली धनुष से छूटे तीर की तरह भाग चली।
सिद्दी जौहर अपने डेरे पर सोया हुआ था। उसे शिवाजी के भाग जाने की मनहूस खबर सुनाई गई। सिद्दी की नींद पूरी तरह उड़ गई और अब उसका गुस्सा देखने लायक था। जिसे पकड़ने के लिए वह महीनों तक डेरा डाले रहा, वह भाग गया! अपने मातहतों पर चिल्लाता, शिवाजी को पकड़ने के लिए टुकड़ियाँ भेजता, सिद्दी बेवजह यहाँ से वहाँ भाग रहा था तभी उसे खुशखबरी मिली, “शिवाजी पकड़ा गया।”
सिद्दी के चेहरे का तनाव जाता रहा। उसकी आँखें हँसने लगी। थोड़ी देर में मसूद खान के पीछे-पीछे शाही चाल से चलते हुए शिवाजी ने प्रवेश किया। उन्हें देखकर लगता ही नहीं था कि वे किसी दुश्मन के खेमे में खड़े हैं। उन्होंने इत्मीनान से सबकी ओर देखा और सिद्दी पर उनकी नजरें ठहर गईं। सिद्दी इस जलवे को देख भौचक रह गया।
व्यंग्य से पूछा, “क्यों राजे! भाग रहे थे क्या?”
राजे बोले, “हाँ, सोचा तो यही था।”
“तो बात नहीं बनी?”
“बनी होती तो यहाँ आपके सामने तो न खड़ा होता।”
“ओह, बैठिए, बैठिए। बेअदबी के लिए माफ़ी चाहता हूँ।”
शिवाजी बैठ गए तो सिद्दी उनके सामने बैठकर बोला, “तो राजे, भाग तो आप पाए नहीं! फिर भी, जाते तो कहाँ जाते?” किंचित मुस्कुराकर राजे बोले, “हमारे धर्मग्रंथ कहते हैं कि कर्म कर, फल की चिंता न कर। किले से निकलना तो था ही। अब आपके सामने हूँ, मौका लगा होता तो विशालगढ़ पहुँच जाता। वहाँ आप कुछ न कर पाते।”
राजे को यूँ निश्चिंतता से बात करता देख फजल खान का गुस्सा उफ़न पड़ा। बोला, “इस शिवा के बच्चे ने हमें कैसे-कैसे दिन दिखाए और आप इससे इतनी तहजीब से पेश आ रहे हैं? सल्तनत का दुश्मन है ये। इसकी गरदन अभी उड़ा दी जानी चाहिए।”
सिद्दी गुस्से में बोला, “खबरदार! राजे सल्तनत के दुश्मन होते हुए भी, छोटे-मोटे सरदार नहीं, बल्कि राजा हैं। इनका फैसला सुल्तान करेंगे। अभी यह हमारे मेहमान हैं। इनकी शान में गुस्ताखी बर्दाश्त नहीं की जाएगी।”
सिद्दी अभी बोल ही रहा था कि एक जासूस हड़बड़ाता हुआ अंदर आया और सिद्दी के कान में कुछ बोल गया। उसकी बात सुनते ही सिद्दी हड़बड़ाकर उठा और शिवाजी से बोला, “कौन हो तुम?”
“मैं, शिवाजी।”
“खबरदार गुस्ताख़। शिवा तो अभी भी विशालगढ़ के रास्ते पर भाग रहा है। तू कौन है कमबख्त?”
शिवा खूब हँसा और बोला, “मैं शिवाजी हूँ। शिवाजी राजे का नाई, शिवा नाई। और तुम लोगों ने क्या समझा, शिवाजी कोई बालक हैं जो पकड़ लोगे। अब तक तो वे तुमसे एक पहर की दूरी तय कर चुके।”
शिवा नाई की यह हँसी सिद्दी को बर्दाश्त नहीं हुई। उसने अपनी तलवार उसके पेट में भोंक दी। शिवाजी का वह सिपाही मातृभूमि की जय बोलता वीर सैनिक की भाँति पीठ के बल गिर पड़ा।
मसूद अपनी फौज जमाकर विशालगढ़ की ओर दौड़ पड़ा। उधर विशालगढ़ के रास्ते पर पालकी उठाए कहार दौड़े चले जा रहे थे। उन्हें घेरे बाजीप्रभु और 600 सैनिक भी बराबर दौड़ रहे थे। आधी रात से भागते-भागते सुबह हो आई थी, लेकिन मजाल है कि किसी के कदम एक पल को भी रुके हों।
भागते-भागते दोपहर हो गई, लेकिन विशालगढ़ न आया। उधर मसूद घोड़े पर बैठा उड़ा चला आ रहा था। विशालगढ़ से 3 कोस दूर गजापुर की घाटी तक शिवाजी की टोली आ गई थी, उनके पीछे से 1,500 की फौज के साथ आता मसूद दिखने लगा था। कोढ़ में खाज यह हुआ कि आगे गए जासूस खबर लाए कि मराठा सरदार सुर्वे और राजा जसवंत सिंह विशालगढ़ पर घेरा डाले बैठे हैं। देश का कैसा भाग्य कि जसवंत सिंह जैसा राजपूत राजा और सुर्वे जैसा मराठा सरदार मुगलों के पक्ष में थे। बाजीप्रभु ने पालकी रुकवाई। उन्होंने राजे से कहा, “राजे, हम फँस गए हैं। हुक्म हो।”
राजे की बुद्धि भी काम नहीं कर रही थी। वह अभी कुछ तय ही कर रहे थे कि बाजीप्रभु बोल उठे, “राजे! अधिक समय नहीं है। पीछे मसूद है और आगे सुर्वे। आप आधी फौज लेकर सुर्वे का घेरा तोड़ते हुए विशालगढ़ पहुँच जाइए। तब तक मैं मसूद को रोकता हूँ।”
“लेकिन केवल 300 के साथ तुम 1500 से कैसे लड़ोगे?”
“मुझे लड़कर जीतना नहीं है राजे, बस कुछ देर तक उन्हें रोकना है। यह दर्रा मेरे बड़े काम आएगा। बस आप सकुशल पहुँच जाइए।”
शिवाजी समझ रहे थे कि बाजी क्या कह रहा है। वह राजे की जान बचाने के लिए अपनी जान दाँव पर लगा रहा है। पर कोई दूसरा उपाय भी तो नहीं। भारी मन से शिवाजी ने बाजीप्रभु को गले लगाया और जाने के लिए मुड़े। बाजीप्रभु ने उतावली में कहा, “बस किले में पहुँचकर एक तोप दगवा दीजिएगा, जिससे हमें मालूम पड़ जाए कि आप सही सलामत पहुँच गए हैं।”
शिवाजी आधे सिपाहियों के साथ चले गए। उनके जाते ही बाजीप्रभु सिंह की तरह दहाड़ते हुए बोले, “मेरे बहादुरों। हमारे राजा जब तक गढ़ न पहुँच जाए, तब तक एक भी शत्रु इस दर्रे से होकर नहीं गुजरना चाहिए। मराठी आन की लाज हमारे हाथों में है। हर हर महादेव!”
300 वीरों के घोष से वह घाटी जीवंत हो उठी। उधर शिवाजी अपने वीरों से साथ दौड़े चले जा रहे थे। जब विशालगढ़ कुछ ही दूर रहा तब सुर्वे को खबर हुई। वह दौड़ता हुआ आया पर वीर शिवाजी के वीरों के आगे उसकी एक न चली।
शत्रुओं को गाजर की तरह काटते हुए शिवाजी और उनके मावळे विशालगढ़ पहुँच गए। नगाड़े बज उठे। शिवाजी ने तुरन्त एक तोप दागने का हुक्म दिया। राजे ने सभी घायल सैनिकों की तुरन्त मरहम पट्टी का आदेश दिया और खुद किले के सबसे ऊँचे बुर्ज पर खड़े होकर गजापुर की ओर देखने लगे।
गजापुर शांत दिखाई देता था। रात हो गई। बड़ी मायूसी से राजे बैठकखाने में आए। तभी किलेदार भागता हुआ आया। उसके पीछे-पीछे एक घायल सैनिक को लाया जा रहा था। उसे एक ऊँचे स्थान पर लिटा दिया गया। उस सैनिक ने जब राजे को देखा तो उठने का प्रयास किया, इतने भर से ही जाने कहाँ-कहाँ से रक्त की धाराएँ बह चली। राजे ने व्याकुलता से उससे कहा, “लेटे रहो और बताओ क्या हुआ?”
सैनिक बड़ी मुश्किल से, अटकते-अटकते बोला, “राजे, बाजीप्रभु खूब लड़े। दर्रे से एक भी सैनिक पार न हो सका। जो भी आता बाजी उसके दो टुकड़े कर देते। हम मौका देखकर पीछे हटते और शत्रुओं के घुसते ही उन्हें काट देते। एक समय तो ऐसा आया राजे कि जो शत्रु सैनिक बढ़-बढ़कर आ रहे थे, अब आगे बढ़ने में सकुचाने लगे। बाजी उन्हें भाला फेंक-फेंककर मार रहे थे। मसूद की एक न चली। आखिर में उसने बन्दूक मँगाई और ताककर बाजीप्रभु को छलनी कर दिया। उनके सीने में गोली लगी। बाजी गिर गए, पर उनकी जगह लेने के लिए तमाम मराठे थे ही। हमें लगा कि बाजी मारे गए, पर दो पल में ही उन्होंने आँखें खोल ली और पूछा ‘क्या तोप की आवाज सुनाई दी’, जब उन्हें बताया कि नहीं, तो वे तुरन्त उसी अवस्था में उठ गए और बोलने लगे, ‘राजे गढ़ तक नहीं पहुँचे, तो बाजी भला उससे पहले मर कैसे सकता है?’ वे फिर से भाला लेकर शत्रु के सामने तन कर खड़े हो गए। उन्होंने दसियों शत्रु-सैनिक काट गिराए।” थोड़ी साँस लेकर सैनिक पुनः बोला, “राजे, तभी तोप की आवाज सुनाई दी और बाजीप्रभु ‘राजे, आखिरी सिजदा’ बोलकर गिर पड़े।” इतना बोलकर उस सैनिक ने भी अपनी आँखें मूँद ली। शिवाजी उस सैनिक के सीने पर गिर पड़े।