हमारा पुराना इतिहास हो या फिर आज़ादी के बाद का समय, भारत में देश के लिए प्राण न्योछावर करने वाले वीरों की कमी नहीं रही है। जब भारतीय सेना की बात होती है तो इसके शुरुआती नायक नाथू सिंह, फील्ड मार्शल मानेकशॉ और जनरल करियप्पा याद किए जाते हैं। जिन महावीरों ने भारत के लिए बलिदान दिया, उनमें से एक नाम लेफ्टिनेंट कर्नल अर्देशीर बुरज़ोरजी तारापोर का भी है, जिनके बारे में हम आज चर्चा करेंगे।
अर्देशीर बुरज़ोरजी तारापोर का शुरुआती जीवन
अर्देशीर बुरज़ोरजी तारापोर का जन्म अगस्त 18, 1923 को बम्बई में हुआ था। वो बचपन से ही साहस और सूझबूझ के लिए जाने जाते थे। एबी तारापोर तीन भाइयों में दूसरे नंबर पर थे। अर्देशीर जब 7 साल के थे, तभी उन्हें पुणे के सरदार दस्तूर विद्यालय में भर्ती कराया गया था। प्रोफेसर किट्टू रेड्डी अपनी पुस्तक ‘वीरों के वीर: भारतीय सेना का बहादुर जवान‘ में बताते हैं कि तारापोर पढ़ाई में उतने अच्छे नहीं थे लेकिन एथलेटिक्स, बॉक्सिंग, तैराकी, टेनिस और क्रिकेट में ये हमेशा आगे रहते थे।
उन्होंने सन 1940 में मैट्रिक की परीक्षा पास की थी। विद्यालय से निकलने के बाद उनका चयन हैदराबाद सेना में कमीशन के लिए किया गया। अफसर प्रशिक्षण स्कूल, गोलकुंडा में उनकी ट्रेनिंग हुई। इसके बाद इनकी ट्रेनिंग बंगलौर में हुई। जनवरी 1, 1942 को उन्हें सातवीं हैदराबाद इन्फेंट्री में कमीशन प्रदान किया गया। लेकिन, अर्देशीर बुरज़ोरजी तारापोर चाहते थे कि उनकी नियुक्ति हैदराबाद स्टेट फोर्सेज की आर्म्ड रेजिमेंट में हो।
काफी अनुरोध के बाद उन्हें उन्हें हैदराबाद इम्पीरियल सर्विस लांसर्स में स्थानांतरित किया गया। पश्चिम एशिया में द्वितीय विश्व के दौरान भी उन्होंने सेवाएँ दी। आखिरकार 1951 में उन्हें भारतीय सेना में कमीशन मिली और 17 हॉर्स में उनका स्थानांतरण हुआ। फिर उन्हें A स्क्वाड्रन में भेजा गया। इनके साथी प्यार से इन्हें आदि कहते थे। वो नेपोलियन से प्रेरित थे और उसके बारे में अध्ययन करते थे। अपनी मेज पर उसकी मूर्ति भी रखते थे।
हालाँकि, उनके आर्म्ड रेजिमेंट में स्थानांतरण की कहानी भी मजेदार है। टैंक से युद्ध करने का सपने रखने वाले तारापोर जिस बटालियन में थे, वहाँ एक बड़े अधिकरी आए जो सैनिकों को ग्रेनेड फेंकना सीखा रहे थे। इसी दौरान एक सैनिक ने ग्रेनेड को गलती से किसी ऐसी जगह फेंक दिया, जहाँ नुकसान होने का खतरा ज्यादा था। तारापोर ने कूद कर वहाँ से ग्रेनेड को कहीं और फेंक दिया। खुद घायल हुए पर नुकसान से बचा लिया। इलाज के बाद उनसे प्रभावित हुए कमांडर-इन-चीफ ने उनका अनुरोध स्वीकार किया।
#RememberandNeverForget#ParamVir Lt Col Ardeshir Burzorji Tarapore, 17 Poona Horse, Hero of #IndoPakWar 1965 on his birth anniversary today. pic.twitter.com/LcLffw0n9Q
— Flags Of Honour (@FlagsOfHonour) August 18, 2020
अर्देशीर बुरज़ोरजी तारापोर के बारे में कहा जाता है कि ये एक आदर्श अधिकारी थे, जिनकी मिसालें लोग दिया करते थे। वो एक प्रभावशाली खानदान से आते थे क्योंकि उनके पुरखों का सम्बन्ध छत्रपति शिवाजी की सेना से था, जिसके फलस्वरूप उन्हें 100 गाँव दिए गए थे। ‘तारापोर’ गाँव के नाम पर ही इनका सरनेम भी आया। उनके नेतृत्व में भारतीय सैन्य बल की एक टुकड़ी ने कैसे 60 पाकिस्तानी टैंक नष्ट कर दिए थे, इसकी कहानी आज भी सुनी-सुनाई जाती है।
1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध में किए कारनामे
अब उस कहानी पर आते हैं, जिसके लिए अर्देशीर बरज़ोरजी तारापोर को जाना जाता है। 1965 के जिस युद्ध में पाकिस्तान ने भारत से मुँह की खाई थी, उसमें तारापोर ने अद्भुत साहस का परिचय दिया था। इस युद्ध में वो कमांडिंग अधिकारी के पद पर थे और उन्हें पूना हॉर्स रेजिमेंट का नेतृत्व सौंपा गया था। कहानी शुरू होती है सितम्बर 11, 1965 से, जब वो सियालकोट में अपनी टुकड़ी का नेतृत्व कर रहे थे।
वो चाविंड को जीतना चाहते थे। तभी उन्हें सियालकोट के फिल्लौर पर हमला करने का आदेश मिला। लेकिन, दुश्मन सतर्क था। वजीराली क्षेत्र में उनकी टुकड़ी पर हमला कर दिया गया। ये तो सभी को ज्ञात है कि पाकिस्तान ने उस युद्ध में अमेरिका से मिले पैटन टैंकों का जम कर इस्तेमाल किया था। वजीराली में घायल होने के बावजूद उन्होंने दुश्मनों का परास्त किया। लेकिन उनका लक्ष्य चाविंड को जीतना था।
इसके बाद उन्होंने सितम्बर 14, 1965 को 17 हॉर्स और 8 गढ़वाल राइफल्स की टुकड़ियों को जसोरण क्षेत्र में जमा होने को कहा, ताकि चाविंड को पीछे के रास्ते से घेरा जा सके लेकिन 8 गढ़वाल सैनिक बलिदान हो गए। एक ओर पाकिस्तानी टैंक शक्तिशाली भी थे और उनकी संख्या भी ज्यादा थी, वहीं भारतीय सैनिकों की संख्या कम थी। लेकिन भारतीय सैनिकों ने पाकिस्तानी टैंकों को नष्ट करना जारी रखा।
हालाँकि, भारतीय सेना की तरफ से 43 टैंकों की टुकड़ियाँ ज़रूर आईं लेकिन तब तक काफी देर हो चुकी थी। इधर घायल तारापोर अपने बचे-खुचे जवानों के साथ लड़ते रहे। अपनी पुस्तक ‘लेफ्टिनेंट कर्नल ए. बी. तारापोर‘ में मेजर राजपाल सिंह ने लिखा है कि उन्होंने 9 टैंकों के साथ पाकिस्तानियों की 60 पैटन टैंकों को धूल में मिला दिया। उन्हें पीछे हटने के आदेश मिले लेकिन वो लड़ते रहे।
दरअसल, अगर आदेश को मान कर अर्देशीर बुरज़ोरजी तारापोर पीछे लौट चलते तो उनकी जान बच जाती लेकिन गोली लगने के बावजूद वो युद्ध करते रहे। आखिरकार युद्ध करते-करते दुश्मनों को नाकों चने चबवा कर वो बलिदान हुए लेकिन तब तक भारतीय सेना पाकिस्तान में 35 किलोमीटर अंदर तक घुस चुकी थी। उन्होंने सेंचुरियन टैंकों के साथ पैटन का मुकाबला किया। जब उन्हें पीछे हटने का आदेश मिला, तब वो पाकिस्तान की जमीन पर थे और उन्होंने अपने लोगों से कहा कि पीछे हटने से हार होगी, इसीलिए युद्धस्थल नहीं छोड़ेंगे।
5 दिनों तक सियालकोट सेक्टर में युद्ध जारी रहा। वो अपने टैंक से दुश्मनों पर गोले बरसाते आगे बढ़ते जा रहे था। इस क्रम में उनके टैंक को भी दुश्मनों ने कई बार निशाना बनाया था। लेकिन, वो आगे बढ़ते गए। शाम के समय ही उनके टैंक पर एक गोला आकर गिरा, जिससे वो वीरगति को प्राप्त हुए। सबसे बड़ी बात कि उनके बलिदान होने के बाद भी उनकी यूनिट दुश्मनों से मुकाबला करती रही क्योंकि वो उनके लिए प्रेरणा बन गए थे।
उन्होंने पहले ही इच्छा जता दी थी कि अगर वो ज़िंदा नहीं बचते हैं तो उनका अंतिम संस्कार इसी युद्ध के मैदान में किया जाए, जिसे पूरा किया गया। सियालकोट सेक्टर में फिल्लोड़ा और चाविंड की इस लड़ाई को टैंकों से लड़े गए सबसे भीषण युद्ध के रूप में जाना गया। वो एक अच्छे लीडर थे, तभी मृत्योपरांत भी उनके लोग देशसेवा का वही जज्बा लिए युद्ध करते रहे। दुश्मन की जमीन पर दुश्मन को सबक सिखाया।
परमवीर चक्र से किए गए सम्मानित
लेफ्टिनेंट कर्नल एबी तारापोर को 1965 में परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया, जो भारतीय सेना का सबसे बड़ा सम्मान है। उन्हें उनकी वीरता, साहस और अप्रतिम शौर्य के लिए इस सम्मान से नवाजा गया। ‘नेशनल वॉर मेमोरियल’ और ‘गेलेंट्री अवॉर्ड्स’ की सरकारी वेबसाइट्स पर जाकर आप उनके बारे में पढ़ सकते हैं। उनके बारे में ‘नेशनल मेमोरियल’ में कुछ यूँ वर्णन किया गया है:
“लेफ्टिनेंट कर्नल अर्देशीर बुरज़ोरजी तारापोर 1965 में भारत-पाक युद्ध के दौरान स्यालकोट सेक्टर में पूना हॉर्स रेजिमेंट के कमांडिंग ऑफिसर थे। 11 सितंबर 1965 को 17 पूना हॉर्स पर शत्रु के बख्तरबंद टैंको द्वारा भारी जवाबी हमला किया गया। रेजिमेंट ने शत्रु के हमले को नाकाम कर दिया और अपनी जगह डटे रहकर वीरतापूर्वक फिल्लौरा पर आक्रमण कर दिया। घायल होने के बावजूद लेफ्टिनेंट कर्नल तारापोर ने सुरक्षित स्थान पर ले जाए जाने से मना कर दिया और वजीरवाली, जसोरन तथा बुतुर-डोगरांडी पर कब्जा करने में अपनी रेजिमेंट का नेतृत्व किया।”
“उनके नेतृत्व से प्रेरित होकर पूना हॉर्स ने 60 पाकिस्तानी टैंकों को ध्वस्त कर दिया। इस लड़ाई के दौरान, लेफ्टिनेंट कर्नल तारापोर के टैंक पर एक गोला आकर टकराया जिससे टैंक में आग लग गई और वे शूरवीर की तरह वीरगति को प्राप्त हुए। उनके द्वारा छः दिनों तक प्रदर्शित वीरता भारतीय सेना की उच्चतम परंपराओं के अनुकूल थी जिसके लिए लेफ्टिनेंट कर्नल अर्देशीर बुरज़ोरजी तारापोर को मरणोपरांत परम वीर चक्र से सम्मानित किया गया।”
उनकी बेटी जरीन एम बॉइस तब 16 साल की ही थीं, जब उनके पिता वीरगति को प्राप्त हुए। वो कहती हैं कि उन्हें वो रात अब भी याद है, जब उनके पिता को पीछे हटने का आदेश मिला था। पूना हॉर्स ने एक टूर्नामेंट जीता था और उसकी पार्टी में वो भी थीं। रात के 10 बजे अचानक से नाच-गान बंद हो गया और 2-3 बजे उन्होंने टैंकों की आवाज सुनी। उन्होंने कैप्टेन जसबीर सिंह के साथ अपने पिता को चर्चा करते देखा था। दुर्भाग्य से तारपोर पर हुए हमले में वो भी बलिदान हो गए थे।
दरअसल, उनके पिता 2 महीने बाद ही रिटायर होने वाले थे और उन्हें अमेरिका में एक अच्छी पोस्टिंग का ऑफर भी था लेकिन उन्होंने देश को चुना। ‘रेडिफ’ को दिए एक इंटरव्यू में जरीन अपने पिता को याद कर भावुक हो गई थीं। उन्होंने बताया कि जब उनके टैंक पर हमला हुआ था तो उस अवस्था में भी उन्होंने अपने साथियों को कूद कर बचाया था। वो बताती हैं कि ऊपर से आदेश के बावजूद उन्होंने कह दिया था कि अपने सैनिकों को छोड़ कर नहीं जा सकते।
लेफ्टिनेंट कर्नल अर्देशीर बुरज़ोरजी तारापोर: एक निडर सैन्य अधिकारी
मेजर जनरल इयान कार्ड्ज़ू अपनी पुस्तक ‘परम वीर चक्र‘ में उनके बारे में और अधिक जानकारी देते हुए लिखते हैं कि तारापोर के दादा हैदराबाद में बस गए थे और वहाँ की रियासत के कस्टम शुल्क विभाग में कार्यरत थे। उनके पिता भी इसी विभाग में थे, जो उर्दू और फ़ारसी के विद्वान भी थे। विश्वयुद्ध के दौरान तारापोर जब मध्य-पूर्व में तैनात थे, तब अंग्रेज कमांडिंग अधिकारी भारतीयों के लिए अपमानजनक शब्दों का प्रयोग करते थे, जिसे लेकर उन्होंने आपत्ति जताई थी। बाद में वरिष्ठों ने इस मामले को सुलझाया था।
DD Urdu pays tribute to one of the heroes of the 1965 Indo-Pak War, Param Vir Chakra Lt Col AB Tarapore on his birth anniversary. pic.twitter.com/uGIQaterZG
— DD-URDU (@UrduDoordarshan) August 17, 2020
उनका मानना था कि नियम-कानून और अनुशासन अच्छी चीजें हैं लेकिन जब समय आए तो इन्हें तोड़ा भी जा सकता है। उनके कठिन प्रशिक्षण और उत्साह के कारण ही उन्हें इंग्लैंड भेजा गया था, जहाँ उन्होंने सेंचुरियन टैंकों को लेकर गहन अध्ययन किया। वो अपनी रेजीमेंट के साथ काफी मित्रवत व्यवहार करते थे और सभी के साथ स्नेह से पेश आते थे। कहते हैं, उनके युद्ध ने ही भारत-पाक युद्ध 1965 का रुख बदल दिया था।
इसी तरह के युद्ध में परमवीर चक्र विजेता अब्दुल हमीद ने भी अपनी वीरता का प्रदर्शन किया था। वो चौथी ग्रेनेडियर्स के कम्पनी क्वार्टर मास्टर हवलदार थे, जिन्होंने लाहौर के कुसूर क्षेत्र से भी आगे तक पाकिस्तानी सेना को घर में घुस कर खदेड़ा था। हवलदार अब्दुल हमीद अपनी जीप पर आरसीएल गन लेकर तैनात थे और उन्होंने उसी से टैंकों वाली सेना के छक्के छुड़ा दिए। उन्होंने उन टैंकों के साए में जाकर उससे मात्र 150 गज की दूरी पर स्थित होकर युद्ध किया था।