भारत का इतिहास ऐसे कई उदाहरणों से भरा पड़ा है, जिसमें देश के स्वतंत्रता सेनानियों ने अंग्रेजी शासन के खिलाफ अदम्य साहस, वीरता, धैर्य और दृढ़ संकल्प का प्रदर्शन किया। ऐसे कुछ ही स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों को इतिहास की पाठ्यपुस्तकों में स्थान दिया गया, जबकि अधिकतर को उचित पहचान नहीं मिल सकी। इसके कारण मातृभूमि की रक्षा के लिए अपने प्राणों को न्योछावर करने वाले वीर स्वतंत्रता सेनानी भी गुमनामी में चले गए। ऐसा ही मामला बंगाल की पहली महिला बलिदानी प्रीतिलता वड्डेदार/वादेदार (Pritilata Waddedar) का रहा है। उन्होंने 23 सितंबर 1932 को सर्वोच्च बलिदान दिया था।
चिटगाँव (वर्तमान बांग्लादेश) में 5 मई 1911 को जगबंधु वड्डेदार और प्रतिभा देवी के घर जन्मी प्रीतिलता बचपन से ही मेधावी छात्रा थीं। उनके पिता नगरपालिका में क्लर्क थे। आय कम होने के कारण परिवार का मुश्किल से गुजारा चलता था। भले ही परिवार की आर्थिक हालत सही नहीं थी, लेकिन जगबंधु वड्डेदार ने अपनी बेटी को अच्छी शिक्षा दी। वह अक्सर बेटी प्रीतिलता से कहते थे, “मेरी उम्मीदें तुमसे जुड़ी हुई हैं”। प्रीतिलता ने पहली बार चिटगाँव के खस्तागीर बालिका विद्यालय में एक छात्रा के तौर पर अपनी विलक्षण बुद्धि का प्रदर्शन किया था।
प्रीतिलता ने 1927 में अपनी मैट्रिक और 1929 में इंटरमीडिएट की परीक्षा दी। वह ढाका बोर्ड में नंबर वन आई थीं। इंटर के बाद प्रीतिलता ने दर्शनशास्त्र में स्नातक करने के लिए कोलकाता के बेथ्यून कॉलेज में एडमिशन लिया। यह वही समय था जब उनके पिता की नौकरी चली गई और घर की सारी जिम्मेदारी प्रीतिलता के कंधों पर आ गई। हालाँकि, कठिनाइयों के बावजूद उन्होंने अपनी शिक्षा जारी रखी, लेकिन ब्रिटिश अधिकारियों ने उनकी डिग्री रोक दी। बाद में मरणोपरांत 22 मार्च 2012 को कोलकाता विश्वविद्यालय ने उन्हें डिग्री प्रदान किया।
क्रांतिकारी संगठनों से जुड़ाव
ग्रेजुएशन की पढ़ाई पूरी करने के बाद प्रीतिलता चिटगाँव वापस आ गईं और वो नंदनकरण अपर्णाचरण स्कूल नामक एक हाई स्कूल की हेडमिस्ट्रेस बन गईं। ईडन कॉलेज से जब वो इंटरमीडिएट कर रही थीं तो उसी दौरान प्रीतिलता ने क्रांतिकारी गतिविधियों में गहरी दिलचस्पी लेनी शुरू कर दी थी। बाद में वो स्वतंत्रता सेनानी लीला नाग के दीपाली संघ में में शामिल हो गईं। 1930 का दशक था जब बंगाल ने गाँधी के अहिंसा के विचारों का परित्याग कर दिया। इसके बाद वहाँ अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ हथियारबंद लड़ाई को बढ़ावा देने वाले क्रांतिकारी संगठनों ने अपनी जगह ले ली।
उन्हीं दिनों में मास्टरदा सूर्य सेन और निर्मल सेन की मुलाकात उनके एक क्रांतिकारी भाई ने प्रीतिलता वड्डेदार से करवाई। ये उन दिनों की बात थी जब महिलाओं को क्रांतिकारी समूहों में शामिल किया जाना दुर्लभ था। लेकिन मास्टरदा ने प्रीतिलता को न केवल अपने संगठन में शामिल किया, बल्कि उन्हें लड़ने और हमलों का नेतृत्व करने के लिए भी प्रशिक्षित किया। हालाँकि, सूर्य सेन द्वारा चलाए जा रहे जुगंतर समूह के ढलघाट शिविर में प्रीतिलता के शामिल होने से साथी क्रांतिकारी नेता बिनोद बिहारी चौधरी नाराज हो गए। लेकिन सेन को इस बात का पता था कि बिना किसी के शक के एक महिला हथियारों का ले जा सकती है।
यही कारण था कि शुरू में संगठन में उनका इस्तेमाल केवल ब्रिटिश अधिकारियों को चकमा देने के लिए किया गया था। लेकिन बाद में उनके रैंक को बढ़ा दिया गया। चिटगाँव स्थित शस्त्रागार में 18 अप्रैल 1930 छापा मारा गया और उस दौरान प्रीतिलता वड्डेदार ने सफलतापूर्वक टेलीफोन लाइनों, टेलीग्राफ कार्यालय को नष्ट कर दिया। वह सूर्य सेन और क्रांतिकारी रामकृष्ण बिस्वास से भी प्रभावित थीं। क्रांतिकारी रामकृष्ण विश्वास उस दौरान रेल अधिकारी तारिणी मुखर्जी की गलती से हत्या करने के आरोप में अलीपुर सेंट्रल जेल में सजा काट रहे थे। दरअसल, वो चिटगाँव के पुलिस महानिरीक्षक क्रेग की हत्या करना चाहते थे, लेकिन गलती से रेल अधिकारी की हत्या हो गई।
संकल्पों पर सदैव अडिग रहीं
चकमा देने की कला में माहिर प्रीतिलता वड्डेदार बिना किसी शक के करीब 40 बार जेल में बिस्वास से मिली थीं। प्रीतिलता आसानी से उनकी बड़ी बहन बनकर जेल में चली जाती थीं। वर्ष 1931 में अंग्रेजों ने बिस्वास को फाँसी दे दी। उस घटना ने प्रीतिलता के क्रांतिकारी विचारों को और अधिक बल दिया। स्वतंत्रता सेनानी कल्पना दत्ता ने अपनी पुस्तक ‘चटगाँव आर्मरी रेडर्स: रिमिनिसेंस’ में प्रीतिलता वड्डेदार के साथ अपने अनुभव साझा किए हैं।
किताब में कल्पना दत्ता ने खुलासा किया था कि किस तरह से दुर्गा पूजा के दौरान प्रीतिलता बकरे की बलि देने के लिए तैयार नहीं थीं तो उनके साथी क्रांतिकारियों ने सशस्त्र संघर्ष में उनकी क्षमता पर सवाल उठाया। उन लोगों ने प्रीतिलता से सवाल किया था, “आप देश की आजादी भी अहिंसक तरीके से लड़ना चाहती हैं या क्या?” इस पर उन्होंने जवाब दिया, “जब मैं देश की आजादी के लिए अपनी जान देने के लिए तैयार हूँ, तो जरूरत पड़ने पर किसी की जान लेने में मैं जरा भी नहीं हिचकिचाऊँगी।” यह घटना उनके दिल में जल रही देशभक्ति की आग और उनके दृढ़ संकल्प को दिखाती थी।
यूरोपियन क्लब पर बोला धावा
13 जून 1932 का दिन था और प्रीतिलता वड्डेदार सूर्य सेन से मिलने गईं थीं, उसी दौरान उनके ठिकाने को ब्रिटिश सैनिकों ने घेर लिया। दोनों तरफ से लड़ाई शुरू हो गई। उस दिन प्रीतिलता बाल-बाल बच गईं और वहाँ से निकलने में सफल रहीं। प्रीतिलता की गतिविधियों को लेकर ब्रिटिश अधिकारी भी सतर्क हो गए और उन्होंने उन्हें ‘मोस्ट वांटेड’ क्रांतिकारियों की लिस्ट में डाल दिया। इसके बाद सूर्य सेन ने प्रीतिलता को अंडरग्राउंड रहने का निर्देश दिया और संगठन दूसरी योजनाओं पर काम करने लगा। दरअसल, मास्टरदा पहाड़ताली यूरोपियन क्लब नाम के एक नस्लवादी और श्वेत वर्चस्ववादी क्लब को निशाना बनाना चाहते थे। भारतीयों से ये इतनी नफरत करता था कि क्लब के बाहर नोटिस बोर्ड पर लिखा गया था, ‘कुत्तों और भारतीयों को इजाजत नहीं है।’
23 सितंबर 1932 का दिन था, जब प्रीतिलता वड्डेदार समेत कई अन्य क्रांतिकारियों को पहाड़ताली यूरोपियन क्लब पर हमला कर उसे नष्ट करने का जिम्मा सौंपा गया। इसके तहत प्रीतिलता को 40 लोगों के ग्रुप का लीडर बनाया गया। मिशन को अंजाम देने के लिए प्रीतिलता ने खुद पंजाबी का रूप धरा और उनके बाकी के साथियों ने शर्ट और लुंगी पहनी थी। रात के करीब 10:45 बजे क्रांतिकारियों ने क्लब को चारों ओर से घेरकर उसमें आग लगा दी। इस दौरना एक महिला और चार पुरुषों की भी मौत हो गई। इस बीच क्लब के अंदर तैनात पुलिस अधिकारियों ने भी जवाबी हमले किए।
वीरगति ने कइयों को दी प्रेरणा
गोली लगने से प्रीतिलता घायल हो गईं। अंग्रेजों की पकड़ में आने से बचने के लिए उन्होंने पोटैशियम सायनाइड की गोली खा ली। 21 वर्ष की अल्पायु में उनके दिए गए बलिदान ने बंगाल में दूसरे क्रांतिकारियों के लिए प्रेरणा का काम किया। कल्पना दत्ता ने अपनी पुस्तक में बताया कि कैसे प्रीतिलता वड्डेदार को पोटैशियम सायनाइड कैप्सूल देने के सूर्य सेन खिलाफ थे।
मास्टरदा ने उस घटना को लेकर बताया, “मैं आत्महत्या में विश्वास नहीं करता। लेकिन जब वह अंतिम विदाई देने आईं तो उन्होंने मुझसे जबरन पोटैशियम सायनाइड ले लिया। वह बहुत जल्दबाजी में थीं और युद्ध के दौरान फँस जाने की स्थिति में इसकी आवश्यकता के बारे में अच्छे तर्क कर रही थीं। मैं उसके आगे टिक नहीं सका। मैंने उसे दिया।”
अपने बलिदान के जरिए प्रीतिलता वड्डेदार ने बंगाल की महिलाओं को संदेश दिया कि देश को अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त कराने के लिए वे पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चल सकती हैं। अपनी किताब में कल्पना दत्ता बताती हैं कि कैसे प्रीतिलता वड्डेदार को हुए नुकसान के कारण उनके माता-पिता तबाह हो गए थे। वह बताती हैं, “चिटगाँव के लोग प्रीति या उनके महान बलिदान को नहीं भूले हैं। वे उनके पिता की ओर इशारा कर किसी भी अजनबी को बताते हैं- ये उस पहली लड़की के पिता हैं, जिसने हमारे देश के लिए अपनी जान दी।”
सन्दर्भ: Dutt, K. (1945). Chittagong Armoury Raiders: Reminiscences. India: People’s Publishing House