सर्दी की दोपहर के करीब 12-1 बजे का समय होगा जब आज़ाद, सदाशिव, विश्वनाथ और माहौर किले की दीवार से लगी चट्टान पर पड़े धूप के साथ चने-चबेले खा कर सुस्ता रहे थे।
“कल खबर आई है कि सामान आ गया है।” आज़ाद बोले।
“पुराना है?” सदाशिव ने मूँगफली का छिलका उतारते हुए पूछा।
“नया सामान है इस बार।” आज़ाद ने बताया।
“अभी कहाँ है सामान?” यह माहौर की आवाज़ थी।
“मास्टर जी के यहाँ कल देर रात देकर गया है एजेंट।” आज़ाद ने अँगड़ाई ली।
“दिखाइए तो कभी।” विश्वनाथ ने कहा।
“तुम्हारे घर पर आजकल क्या सीन है सद्दू?”
“कुछ नहीं दाऊ, पड़ोस वाली जीजी के यहाँ शादी है तो सब उसी में लगे रहते है।”
“कब है शादी?”
“कल है शादी, आज तो मंडप है।”
“ठीक, तो फिर आज शाम चार बजे सब पहुँचो। तुम लोगों को दिखाता भी हूँ और सिखाता भी हूँ।” आज़ाद ने जेब से चने निकाल कर मुँह में डाल लिए।
थोड़ी देर में चारों उठे और अपने-अपने रास्ते निकल गए। शाम को चार बजे के आसपास सभी सदाशिव की छत पर बने कमरे में फिर इकट्ठे बैठे थे।
“कौन-कौन है घर में?” आज़ाद ने पूछा।
“कोई ना दाऊ।” सदाशिव ने पानी का गिलास आज़ाद को देते हुए कहा।
“बल्ब जला दे कैलाश।” आज़ाद ने थैला खटिया पर रखते हुए कहा।
“हओ दाऊ।” माहौर ने बल्ब जला दिया।
“साँकर लगा दे सद्दू।”
“हओ।” सदशिव ने साँकर लगा दी। तभी आज़ाद की नज़र कोने में ज़मीन पर चाक से खेलते हुए एक डेढ़-दो साल के बच्चे पर पड़ी।
“ये कौन है?” आज़ाद ने पूछा।
“भांजा है दाऊ।” सदशिव ने जवाब दिया।
“इसको बाहर करो पहले।”
“अरे जे तो बच्चा है दाऊ। इसे क्या पता अपन के बारे में?”
“तुम लोग समझते नहीं। अपने काम में ज़रा सी भी चूक महँगी पड़ सकती है।”
“जे तो ठीक ढंग से बोल भी नहीं पाता।” माहौर ने खींसे निपोरी अपनी।
“मत मानो, तुम लोग। सुनते नहीं हो कभी-कभी भाई तुम लोग।”
“आप सामान दिखाओ।” सब में उत्सुकता थी नए सामान को देखने की।
आज़ाद ने थैला उठाया, बच्चे की तरफ देखा, बच्चा अपने खेलने में व्यस्त था।
“लो देखो।” आज़ाद ने थैला खटिया पर उड़ेल दिया।
“का बात है दाऊ?” माहौर ख़ुशी में उछल गए।
“जे तो भौतई भैरन्ट है दाऊ।” सदाशिव ने सामान को हाथ में लिया।
“कितेक को हेगो दाऊ जे?” विश्वनाथ ने पूछा।
“दाम का तो पता नहीं, मास्टर जी ने किसी से चेक करने को मँगाया है। अगर फटा नहीं तो और आएँगे।”
“देखो इसको ऐसे खोलते हैं, यहाँ ये लॉक है…..”
“दम्बूक-दम्बूक” अचानक बच्चे की आवाज़ आई। वो ना बोल पाने वाला नन्हा बच्चा ख़ुशी से उछलता हुआ सामने खड़ा था।
आज़ाद के एक हाथ में रिवॉल्वर थी, दूसरे हाथ में कारतूस थे और वो भौंचक्का हुए उस नन्हे से ना बोल पाने वाले बालक तो देखे जा रहे थे।
तभी दरवाज़े पर सांकर बजी और सभी झटके से खड़े हो गये।
“तुम तो कह रहे थे कि घर पर कोई नहीं है दोपहर में?” आज़ाद ने सदशिव को घूरा।
दरवाज़े पर सांकर फिर बजी। आज़ाद ने फटाफट कारतूस और रिवॉल्वर खटिया पर रखी तकिये के नीचे दबाई और वहीं पाट पर बैठ गए। माहौर तुरंत बच्चे के पास बैठ गए और विश्वनाथ एक किताब खोल कर कुछ पढ़ने लगे। सदशिव ने दरवाज़ा खोला तो सामने उसके जीजा खड़े थे।
“अरे दाऊ जू आप? आप का कर रये इते? पंगत में ना गये?” दरवाज़े पर खड़े-खड़े सदाशिव ने पूछा।
“लुगाइयाँ हैंगी उते। हमें ना रओ मजो सो निकस आये।” जीजा जी ने कमरे में उड़ती सी नजर डाली।
“अरे हरिसंकर दाऊ हैंगे इते।” जीजाजी ने सदशिव के दरवाज़े पर से हाथ हटाया और धड़धड़ाते हुए कमरे में चले आए।
“ए, तुम का कर राये इते?” अब जीजा की नज़र बच्चे पर आ गई। सब की जान सूखी हुई थी।
“काका दम्बूक–काका दम्बूक!” बच्चे ने आज़ाद की और इशारा किया। जीजा जी ने आज़ाद की और अचरज में देखा, माहौर ने माथे पर से पसीना पोंछा, सदशिव कमरे से बाहर निकल कर खड़े हो गए और विश्वनाथ किताब लिए ज़मीन पर ही बैठ गए। बवाल होने ही वाला था अब।
“काका दम्बूक-काका दम्बूक।” बच्चे ने जैसे ही फिर दोहराया आज़ाद ने तुरंत अपने बाएँ हाथ की मुट्ठी से बन्दूक की नली बना ली और दाएँ हाथ की तर्जनी से बाएँ हाथ के अंगूठे में अंटा देकर उसको बन्दूक के आकार में बना कर खड़े हो गये। उसके बाद आज़ाद ने मध्यमा और अंगूठे से चुटकी बजाई और मुँह से आवाज़ निकाली “ढूम-ढूम-ढूम”।
“अब तुम मारो चोर को।” आज़ाद ने कहते हुए बच्चे को गोद में बिठाया और उसी तकिये पर बैठ गए जिसके नीचे कारतूस और रिवॉल्वर रखे थे। बच्चे का मुँह अब अपने काका की तरफ था। आज़ाद ने बच्चे की मुट्ठी से बन्दूक बनवाई और काका पर निशाना लगाकर आवाज़ निकाली “ढूम-ढूम-ढूम”।
काका को भी एक्टिंग दिखने का मौका मिल गया और वो ज़मीन पर गिरने की एक्टिंग करने मशगूल हो गये।
बच्चे ने इसके बाद सभी पर अपनी ‘दम्बूक’ से निशाना साधा और सभी ज़मीन पर गिरने लगे। आज़ाद गोदी में लिए बच्चे को बाहर आ गए और जीजाजी के हवाले कर दिया। जीजा जी अब छत पर ज़मीन पर पड़े अपनी एक्टिंग दिखा रहे थे और बच्चा पूरी छत पर अपनी “दम्बूक” से गोलीबारी किए जा रहा था।
तभी नीचे से आवाज़ आई।
“पंगत है गयी सुरु दाऊ।” काका ने बच्चे को लिया और सीढ़ी से नीचे उतर गए।
“दाऊ तुम ना आ रए?” मुड़ते हुए काका ने पूछा।
“आप जाओ, मुझे इनको कुछ सिखाना है।” आज़ाद कमर पर हाथ रखे हुए तीनों तिलंगो को घूर रहे थे। तीनों तिलंगो को आज गाली वाली पंगत जीमने का मौका मिलने वाला था।
आज़ाद अंदर आए तो तीनों सामने लाइन लगा कर खड़े हो गये। ऐसे देख कर आज़ाद की हँसी छूट गयी, बोले,
“देखो भाई, कितनी बार कहा है कि अपने काम में सावधानी बहुत ज़रूरी है। चौकन्नापन नहीं दिखाओगे तो किसी दिन छोटी सी गलती से भी लम्बे नप जाओगे।”
“गलती है गई दाऊ।”
“महँगी पड़ सकती थी सद्दू।”
“हओ दाऊ।”
“और जे बिल्ली जैसा मुँह बना कर क्यूँ खड़े हो जाते हो सब, जब ऐसा कुछ होता है।”
“ऐसो ना है।” माहौर बोले।
“ऐसो ना है, कैसो ना है कैलास? तुमाई सकल तो ऐसी है रइ थी जैसे डकैती डार केर आ रये।” आज़ाद ने माहौर को हड़काया।
“अब ना हुइए दाऊ।”
“देखो इसमें कारतूस इस तरह फिट होता है।” आज़ाद की क्लास फिर शुरू हो गई थी और तीनों छात्र बड़े गौर से सीख रहे थे।
(भारत के स्वतंत्रता संग्राम एक ऐसे ही कुछ गुमनाम क्रांतिकारियों की गाथाएँ आप ‘क्रांतिदूत’ शृंखला में पढ़ सकते हैं जो डॉ. मनीष श्रीवास्तव द्वारा लिखी गई हैं।)