निडर, पराक्रमी, कुशल, प्रबुद्ध, न्यायप्रिय कुछ ऐसे विशेषण हैं जिनका सीधा पर्याय आज भी बच्चे-बच्चे के लिए सिर्फ़ छत्रपति शिवाजी महाराज हैं। आज शिवाजी महाराज की जयन्ती के अवसर पर उनके साहस की गाथाओं को पूरा देश याद कर रहा है। महाराष्ट्र सरकार के मुताबिक सन् 1630 में 19 फरवरी को ही छत्रपति शिवाजी का जन्म शिवनेर दुर्ग में हुआ था। कई कलाओं में माहिर छत्रपति शिवाजी ने एक कुशल राजा बनने की दिशा में राजनीति एवं युद्ध की शिक्षा ली थी। उन्होंने अपने जीवन में कई ऐसे कारनामे किए थे, जिन्हें सुनकर ही पता लगता है कि रणभूमि में तो क्या आम जीवन में भी कभी उन्होंने अपने आदर्शों से समझौता नहीं किया। उनमें एक शेर का व्यक्तित्व बचपन से झलकता था।
बाल्यावस्था- जिस अवस्था में बच्चे अपने माँ-बाप के दिखाए रास्ते पर समाज में उठना बैठना-अभिवादन करने के तौर तरीके सीख रहे होते हैं, उस बाल्यावस्था में शिवाजी से जुड़ा एक किस्सा बहुत मशहूर है। कहा जाता है कि शिवाजी के पिता शाहजी अक्सर युद्ध लड़ने के लिए घर से दूर रहते थे। इसलिए उन्हें शिवाजी के निडर और पराक्रमी होने का आभास नहीं था। इसी अनभिज्ञता के साथ एक बार वे शिवाजी को बीजापुर के सुल्तान के दरबार में ले गए।
वहाँ शाहजी ने तीन बार झुक कर सुल्तान को सलाम किया और शिवाजी से भी ऐसा ही करने को कहा। लेकिन, शिवाजी अपने पिता को देखने के बावजूद अपना सिर ऊपर उठाए सीधे खड़े रहे और उसी सिर को उठाए-उठाए वो वापस अपने दरबार में चले गए। इस घटना के दौरान ऐसा नहीं था कि शिवाजी अपने पिता की बात का अनादर कर रहे थे। बल्कि उन्हें तो केवल एक विदेशी शासक के सामने सिर झुकाना नागवार था। इस वाकये को देखने के बाद शाहजी को भी अंदाजा हो गया था कि उनका बालक अन्य बालकों की तरह एक तय लीक पर चलने वाला बच्चा नहीं है।
छत्रपति शिवाजी की कुशलता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि जब उन्होंने बतौर शासक अपना जीवन शुरू किया, तब उनके पिता ने उनके लिए सिर्फ़ 2000 सैनिक छोड़े थे। लेकिन, कुछ ही समय में उन्होंने इस संख्या को बढ़ाकर 10,000 कर डाला। उन्हें मालूम था कि एक राजा के लिए उसकी सेना कितनी महत्वपूर्ण होती है। वे कभी अपने सैनिकों को शहीद होने के लिए नहीं उकसाते थे। बल्कि उनकी तो अपनी सेना को सलाह होती थी कि हमेशा संगठित होकर सुरक्षित कदम उठाना चाहिए। जिससे सामने वाला परास्त भी हो जाए और खुद पर आँच भी न आए।
स्वराज का झंडा बुलंद कर इतिहास में मराठाओं के नाम एक पूरा युग स्वर्णिम अक्षरों से लिखवाने वाले शिवाजी महाराज अन्य राजाओं की तरह अपनी सेना को निजी हथियार देकर नहीं रखा करते थे। उन्हें जितना ख्याल अपनी सेना का था, उससे ज्यादा सजग वे अपनी प्रजा के प्रति थे। उनका सोचना था कि सेना को निजी हथियार नहीं दिए जाएँगे, तो बेवजह आम प्रजा को नुकसान नहीं पहुँचेगा। उनका कहना था कि दुश्मन राज से लूटा गया सारा सामान मराठा खजाने में जमा होगा। उनके निर्देश थे, कभी किसी धार्मिक स्थल और उससे जुड़ी सामग्री को कभी नुकसान नहीं पहुँचाया जाएगा।
छत्रपति शिवाजी बचपन से न्यायप्रिय, धर्मनिरपेक्ष और दयालु थे। बताया जाता है मात्र 14 साल की उम्र से वे ऐसे फैसले लिया करते थे कि बच्चे से लेकर बुजुर्ग व्यक्ति तक उनकी छत्रछाया में खुद को सुरक्षित महसूस करते थे। उन्हें लेकर किस्सा मशहूर है कि एक बार शिवाजी के समक्ष उनके सैनिक किसी गाँव के मुखिया को पकड़ कर लाए। मुखिया बड़ी और घनी-घनी मूछों वाला बड़ा ही रसूखदार व्यक्ति था। लेकिन इस बार उस पर एक विधवा की इज्जत लूटने का आरोप साबित हो चुका था। हालाँकि, इस वाकये के दौरान शिवाजी मात्र 14 साल के थे। मगर उनके मन में महिलाओं के प्रति असीम सम्मान था। उन्होंने तत्काल अपना निर्णय सुनाया और कहा- “इसके दोनों हाथ और पैर काट दो” ऐसे जघन्य अपराध के लिए इससे कम कोई सजा नहीं हो सकती। क्या आज किसी 14 साल के बच्चे से ऐसे विवेक और बुद्धि की अपेक्षा की जा सकती है? शिवाजी के राज में महिलाओं को बंदी बनाने की अनुमति नहीं थी और जो महिलाओं का अपमान करता था उसके लिए मुखिया की तरह कड़ा दंड तय था।
हिंदू हृदय सम्राट कहे जाने वाले महाराज शिवाजी को इतिहास के पन्नों में धर्मनिरपेक्ष शासक कहा जाता है। लेकिन फिर भी उनके बारे में ये तथ्य मशहूर है कि महाराश शिवाजी हमेशा उन लोगों की मदद करते थे, जो हिंदू धर्म अपनाने के इच्छुक होते थे। यहाँ तक उन्होंने अपनी बेटी की शादी भी एक ऐसे शख्स से करवाई थी, जिसने हिंदू धर्म अपनाया। वे मुगल शासकों से युद्ध केवल हिंदुत्व की रक्षा करने के लिए करते थे। उन्होंने कभी मुस्लिमों से नफरत नहीं की। लेकिन जब बात हिंदुत्व पर आई तो उन्होंने किसी से समझौता भी नहीं किया। उनकी सेना में कई मुस्लिम सैनिक थे।
आदिल शाह और औरंगजेब से जुड़ा किस्सा
शिवाजी की पैतृक जायदाद बीजापुर के सुल्तान द्वारा शासित दक्कन में थी। बीजापुर के सुल्तान आदिल शाह ने बहुत से दुर्गों से अपनी सेना हटाकर उन्हें स्थानीय शासकों के हाथों सौंप दिया था। 16 वर्ष की आयु तक पहुँचते-पहुँचते शिवाजी को यकीन हो गया था कि हिन्दुओं की मुक्ति के लिए उन्हें संघर्ष करना होगा। शिवाजी ने अपने विश्वासपात्रों को इकट्ठा कर अपनी ताकत बढ़ानी शुरू कर दी। जब आदिलशाह बीमार पड़ा तो बीजापुर में अराजकता फैल गई। शिवाजी ने इस मौके लाभ उठाकर बीजापुर में प्रवेश करने का फैसला लिया। छोटी सी उम्र में ही उन्होंने टोरना किले का कब्जा हासिल कर लिया था।
1659 में आदिलशाह ने अपने सेनापति को शिवाजी को मारने के लिए भेजा। दोनों के बीच प्रतापगढ़ किले पर युद्ध हुआ। इस युद्ध में शिवाजी की विजय हुई। उनकी बढ़ती ताकत को भाँपते हुए मुगल सम्राट औरंगजेब ने जय सिंह और दिलीप खान को शिवाजी को रोकने के लिए भेजा और उनसे एक समझौते पर हस्ताक्षर करने को कहा। समझौते के मुताबिक उन्हें मुगल शासक को 24 किले देने थे। यहाँ बता दें कि कोंढाणा का किला भी इन्हीं किलों में से एक था, जिसकी टीस में सिंहगढ़ का युद्ध शिवाजी की ओर से उनके सेनापति तानाजी ने लड़ा।
इस 24 किलों वाले समझौते के बाद शिवाजी एक बार आगरा के दरबार में औरंगज़ेब से मिलने के लिए गए। वह 9 मई, 1666 को अपने पुत्र संभाजी एवं 4000 मराठा सैनिकों के साथ मुग़ल दरबार में उपस्थित हुए, परन्तु औरंगज़ेब ने उन्हें वहाँ उचित सम्मान न दिया। जिस पर शिवाजी ने भरे हुए दरबार में औरंगज़ेब को विश्वासघाती कह डाला। इसके बाद औरंगजेब ने उन्हें एवं उनके पुत्र को ‘जयपुर भवन’ में क़ैद कर दिया। लेकिन 13 अगस्त, 1666 को फलों की टोकरी में छिपकर शिवाजी वहाँ से भाग निकले और रायगढ़ पहुँचे। सन 1674 तक शिवाजी ने उन सारे प्रदेशों पर अधिकार कर लिया था, जो पुरन्दर की संधि के अन्तर्गत उन्हें मुग़लों को देने पड़े थे।
देखते ही देखते उन्होंने मराठाओं की एक विशाल सेना तैयार कर ली थी। जो स्वराज्य के लिए जान देने को तैयार थे। उन्हीं के शासन काल में गुरिल्ला युद्ध के प्रयोग का भी प्रचलन शुरू हुआ। उन्होंने नौसेना भी तैयार की थी। अप्रैल 1680 को बीमार होने पर उनकी मृत्यु हो गई थी।
आज उनकी हर तस्वीर में उनके हाथ में उनकी तलवार देखने को मिलती है। कहा जाता है कि उनकी तलवार पर 10 हीरे जड़े हुए थे। जो इस वक्त लंदन में हैं। शिवाजी महाराज की तलवार प्रिंस ऑफ वेल्स एडवर्ड सप्तम को नवंबर 1875 में उनकी भारत यात्रा के दौरान कोल्हापुर के महाराज ने उपहार स्वरूप भेंट की थी। लेकिन कभी भी इस तलवार को वापस लाने के कोशिश नहीं की गई।