मराठाओं ने कभी दुश्मन को पीठ नहीं दिखाया जब भी लड़े अपनी आन-बान-शान के लिए लड़े। ये मराठा ही थे जिन्होंने कभी अफगानिस्तान की सीमा तक अपने शौर्य का पताका फहराया था। आज ही के दिन 262 साल पहले यानी 8 मई 1758 को मराठाओं ने लड़ा था पेशावर का युद्ध जिसमें मराठों ने दुर्रानी साम्राज्य को पराजित कर वर्तमान पाकिस्तान के पेशावर में अपना कब्जा जमाया था।
पेशावर के युद्ध से इससे पहले अधिकांश मध्य और पूर्वी भारत भी उनके ही नियंत्रण में था। लेकिन इस विजय के बाद उनका साम्राज्य ‘अटोक से कटक’ तक फैल गया था।
‘The Battle of Peshawar’ took place on May 8, 1758, between the Marathas and Durrani Empire.
— Amit Paranjape (@aparanjape) May 7, 2020
The Marathas, led by Raghunathrao (younger brother of Nanasaheb Peshwa) and Malharrao Holkar were victorious in the battle, and Peshawar was captured.
(images: @wikipedia, @LiveHIndia) pic.twitter.com/FQVL0c8Alw
पुणे की सीमा से लगभग 2000 किलोमीटर दूर हासिल पेशावर के इस युद्ध में हासिल विजय ने मराठाओं के कीर्ति को दूर तक पहुँचाने में बहुत बड़ा योगदान दिया था। इस बड़ी जीत को अपने नाम करने से मात्र दस दिन पहले (28 अप्रैल 1758) मराठाओं ने अटोक का युद्ध जीतकर वहाँ भी केसरी झंडा फहरा दिया था।
This victory helped the Maratha Empire reach its peak – control now extended to the border of Afghanistan, located nearly 2,000 km away from the capital Pune.
— Amit Paranjape (@aparanjape) May 7, 2020
Most of Central and Eastern India was also under their control.
The Maratha Empire extended from ‘Attock to Cuttack’. pic.twitter.com/B3AHhr3dsj
अटोक पर जीत मराठाओं के साम्राज्य विस्तार के लिए महत्तवपूर्ण पल था। मगर, बावजूद इसके अफगानिस्तान की सीमा पर बजे विजयनाद ने मराठाओं के यश को कोने-कोने तक फैला दिया।
Around the time of Battle of Peshawar, there is a record of correspondence between Raghunathrao and the Shah of Iran. The Shah wanted to cooperate with the Marathas in crushing the Durani Empire.
— Amit Paranjape (@aparanjape) May 7, 2020
Raghunathrao mentions how an Indian empire needs to reach Kabul (as in the past).
यूँ तो इस युद्ध में लड़ने वाले हर मराठा योद्धा ने अपने अदम्य साहस और शौर्य का परिचय दिया था। लेकिन उनका नेतृत्व करने वाले नानासाहेब पेशवा के छोटे भाई रघुनाथराव और मल्हारराव होल्कर का नाम इस जीत के साथ ही इतिहास के पन्नो में अमर हो गया। इस दौरान इरान के शाह ने भी दुर्रानी साम्राज्य को कुचलने के लिए रघुनाथराव का समर्थन किया था।
One more excellent article by @MulaMutha discusses the earlier Maratha campaign in Punjab (that led to the capture of Lahore in 1757).
— Amit Paranjape (@aparanjape) May 7, 2020
The Marathas in the ‘Land of Five Rivers’ https://t.co/OM1fEtF4F7
बात शुरू होती है 1707 से, 1707 में औरंगजेब के मरने के बाद देश में मराठाओं का विस्तार हो रहा था। इनमें मराठाओं के पाँच बड़े राजवंश थे। पुणे के पेशवा, नागपुर के भोसले, बड़ौदा के गायकवाड़, इंदौर के होल्कर और उज्जैन के सिंधिया।
1526 में बाबर के हमले के भारत में करीब 200 साल बाहर से हमला नहीं हुआ। लेकिन 1738-1739 में नादिर शाह के बाद ये सिलसिला दोबारा शुरू हुआ। लेकिन, 1747 में नादिर शाह की मृत्यु के बाद उसका एक सेनापति अहमद शाह अब्दाली सामने आया। जिसने नादिर की मौत होते ही अपना दुर्रानी नाम से अलग साम्राज्य बना लिया। और यही से अस्तित्व में आया अफगानिस्तान।
आज जैसे भारत में महात्मा गाँधी को भारत में राष्ट्रपिता की उपाधि हासिल है और लोग उन्हें प्यार से बापू बुलाते हैं। वैसे ही कहा जाता है कि अफगानिस्तान में राष्ट्रपिता की उपाधि अब्दाली को मिली है और लोग वहाँ उसके लिए शाह बाबा का इस्तेमाल करते हैं। हम समझ सकते हैं अफगानियों के लिए वे क्या शख्शियत रहा होगा।
इसके बावजूद अपना साम्राज्य बनाने के अब्दाली की नीति भारत के लिए बिलकुल वैसी ही थी, जैसे महमूद गजनी की थी। यानी लूटकर अपने देश का खजाना भरना और दूसरे इलाकों पर कब्जा करना।
अब्दाली ने दिल्ली पर सबसे पहला हमला 1748 में किया था। लेकिन दिल्ली पहुँच नहीं पाया और बीच में ही हार का मुँह देखकर वापस लौट गया। पर यहाँ उसके इरादे पस्त नहीं हुए। वे हमले करता रहा, 1749 में उसने दूसरा आक्रमण किया, 1751 में तीसरा, 1752 में चौथा।
इस बीच में पाकिस्तान में वह मुल्तान और लाहौर को मुगलों से छीन चुका था। जिसके कारण मुगल घबरा गए और उन्होंने 1752 में मराठाओं से अहमदिया संधि की। जिसके बाद सतलज के दक्षिण में मराठाओं का दबदबा बढ़ गया और उनपर वहाँ कोई बड़ी चुनौती शेष नहीं थी। पर मराठाओं की नजर पंजाब पर थी और अफगान के निशाने पर भी वही था। ऐसे में दोनों के बीच में देर-सवेर पंजाब को लेकर झगड़े शुरु हो गए और आगे जाकर इन्हीं झगड़ों ने बड़ा रूप लिया।
जब 1758 में पेशावर का युद्ध हुआ। उस समय पेशावर के किला तैमूर शाह दुर्रानी और जहान खान रहते थे। मगर मराठाओं की सेना से हारने के बाद वे वहाँ से भाग खड़े हुए और अफगानिस्तान चले गए। परिणामस्वरूप पंजाब, उत्तर-पश्चिम सीमा प्रांत और कश्मीर में, मराठा यहाँ प्रमुख खिलाड़ी बने।
इसके बाद मराठा सेना के मुख्य सेनापति मल्हार राव होल्कर पेशावर में 3 महीने तक रहे जिसके बाद उन्होंने तुकोजी राव होल्कर को 10 हजार मराठा सैनिकों के साथ अफगान से पेशावर के किले की रक्षा करने का जिम्मा सौंप दिया। मगर, शायद पेशावर के संरक्षण में इतनी सेना काफी नहीं थी क्योंकि दुर्रानी की सेना ने 1759 में दोबारा इसपर कब्जा कर लिया।