विनायक दामोदर वीर सावरकर ना केवल स्वाधीनता संग्राम के सेनानी थे बल्कि वो महान देशभक्त, क्रांतिकारी, चिंतक, लेखक, कवि, ओजस्वी वक्ता और देश को गौरवशाली बनाने की सोच रखने वाले दूरदर्शी स्वप्नदृष्टा भी थे। वीर सावरकर जैसे बहुत कम क्रांतिकारी एवं देशभक्त होते हैं, जिनका पूरा जीवन राष्ट्र यज्ञ की बलिबेदी पर समिधा बन गया। उनकी कलम में चिंगारी थी, उनके कार्यों में भी क्रांति की अग्नि धधकती थी।
सावरकर ऐसे महान सपूत थे जिनकी कविताएँ एवं विचार भी क्रांति मचाते थे और वह स्वयं भी महान क्रांतिकारी थे। उनमें तेज भी था, तप भी था और त्याग भी था। 1909 में लिखी पुस्तक ‘द इंडियन वॉर ऑफ इंडिपेंडेंस-1857’ में सावरकर ने इस लड़ाई को ब्रिटिश सरकार के खिलाफ आजादी की पहली लड़ाई घोषित किया। वीर सावरकर 1911 से 1921 तक अंडमान जेल में रहे। 1921 में वे स्वदेश लौटे और फिर 3 साल की जेल में सजा काटी।
9 अक्टूबर, 1942 को भारत की स्वतंत्रता के लिए चर्चिल को समुद्री तार भेजा और आजीवन अखंड भारत के पक्षधर रहे। सावरकर एक मात्र ऐसे भारतीय थे जिन्हें एक ही जीवन में दो बार आजीवन कारावास की सजा सुनाई गयी थी। काले पानी की कठोर सजा के दौरान सावरकर को अनेक यातनाएँ दी गईं। अंडमान जेल में उन्हें छः महीने तक अंधेरी कोठरी में रखा गया। दुनिया के वे ऐसे पहले कवि थे जिन्होंने अंडमान के एकांत कारावास में जेल की दीवारों पर कील और कोयले से कविताएँ लिखीं और फिर उन्हें याद किया।
वीर सावरकर और बलिदानी क्रांतिकारी भगत सिंह
इस प्रकार याद की हुईं 10 हजार पंक्तियों को उन्होंने जेल से छूटने के बाद पुनः लिखा। अनेक प्रकार की कठोर यातनाएँ सहने के बाद भी सावरकर ने अंग्रेजों के सामने झुकना स्वीकार नहीं किया। सावरकर जेल में रहते हुए भी स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय रहे। शहीद-ए-आजम भगत सिंह के मन में सावरकर के देशप्रेम और उनके विचारों को लेकर कितनी श्रद्धा थी, इस बात को भगत सिंह के लिखे एक लेख के माध्यम से आज भी हम समझ सकते हैं।
भगत सिंह ने ‘विश्व प्रेम’ नाम के लेख में, जो 15 और 22 नवंबर, 1924 के ‘मतवाला’ अंक में दो बार प्रकाशित हो चुका है, उसमें भगत सिंह, सावरकर के विषय में लिखते हैं – “विश्वप्रेमी वह वीर है जिसे भीषण विप्लववादी, कट्टर अराजकतावादी कहने में हम लोग तनिक भी लज्जा नहीं समझते – वही वीर सावरकर। विश्वप्रेम की तरंग में आकर घास पर चलते-चलते रुक जाते कि कोमल घास पैरों तले मसली जाएगी|” शहीद-ए-आजम ने ऐसा लिखा था।
यह साबित हो गया है कि भगत सिंह ने सावरकर की किताब ‘1857 का स्वातंत्र्य समर’ का अंग्रेजी अनुवाद प्रकाशित किया था और क्रांतिकारियों में इसका प्रचार किया था। कुछ लेखकों ने दावा किया है कि सावरकर और भगत सिंह रत्नागिरी में मिले थे लेकिन इसकी कोई निर्विवाद पुष्टि नहीं हो पायी। गाँधी जी के अनुयायी वाई डी फड़के के अनुसार, भगत सिंह ने सावरकर की ‘1857 का स्वातंत्र्य समर’ से प्रेरणा पाई। भगत सिंह अपनी जेल डायरी में कई लेखकों के उद्धरण नोट किए हैं।
उसमें केवल सात भारतीय लेखक हैं, जिनमें से एकमात्र सावरकर हैं जिनके एक से अधिक उद्धरण भगत सिंह ने अपनी डायरी में शामिल किए हैं और उनमें से छह के छह उद्धरण एक ही पुस्तक, ‘हिंदूपदपादशाही’ से हैं। 23 मार्च, 1931 को जब भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फाँसी दी गई, उस समय सावरकर ने एक कविता लिखी, जिसका पहला अंश है-
हा, भगत सिंह, हाय हा !
चढ गया फाँसी पर तू वीर हमारे लिये हाय हा !
राजगुरु तू, हाय हा !
वीर कुमार, राष्ट्रसमर में हुआ शहीद
हाय हा ! जय जय हा !
आज की यह हाय कल जीतेगी जीत को
राजमुकुट लायेगी घर पर
उससे पहला मृत्यु का मुकुट पहन लिया
हम लेंगे हथियार वो हाथ में।
जो तुमने पकड़ा था दुश्मन को मारते मारते !
दलितों से भेदभाव के खिलाफ सावरकर ने चलाया था अभियान, आंबेडकर ने की थी प्रशंसा
वीर सावरकर हमेशा से जात-पात से मुक्त होकर कार्य करते थे। राष्ट्रीय एकता और समरसता उनमें कूट-कूटकर भरी हुई थी। रत्नागिरी आंदोलन के समय उन्होंने जातिगत भेदभाव मिटाने का जो कार्य किया वह अनुकरणीय था। वहाँ उन्होंने दलितों को मंदिरों में प्रवेश के लिए सराहनीय अभियान चलाया। साथ ही अस्पृश्यता को समाप्त करने की दिशा में महनीय योगदान दिया। महात्मा गाँधी ने तब खुले मंच से सावरकर की इस मुहिम की प्रशंसा की थी।
यही नहीं, संविधान निर्माता बाबासाहेब भीमराव आम्बेडकर ने सावरकर के बारे में कहा था – “मैं इस अवसर का उपयोग सामाजिक सुधारों के क्षेत्र में आपके कामों की प्रशंसा के लिए करता हूँ। यदि अछूतों को मुख्यधारा के हिंदू समाज का हिस्सा बनना है तो केवल अस्पृश्यता को समाप्त करना पर्याप्त नहीं होगा। इसके लिए चतुर्वर्ण का अभ्यास समाप्त करना होगा। मुझे यह कहते हुए खुशी हो रही है कि आप उन कुछ लोगों में से हैं, जिन्होंने ऐसा करने की आवश्यकता को पहचाना है।“
महाराष्ट्र के महान समाज सुधारक महर्षि शिंदे ने लिखा “मैं इस सामाजिक आंदोलन की सफलता से इतना प्रसन्न हूँ कि मैं भगवान से प्रार्थना करता हूँ कि वह मेरा शेष जीवन उन्हें (सावरकर को) दे दें” (सत्यशोधक – 5 मार्च, 1933)। वहीं प्रसिद्ध लेखक प्रबोधंकर ठाकरे ने लिखा “हिंदू एकता की आवश्यकता को महसूस करने के बाद जाति उन्मूलन का मुद्दा चाहे जितना कठिन हो, इसे हल करना आवश्यक है। इस दिशा में सावरकर के प्रयास प्रशंसनीय हैं।” (स्वराज्य, मुंबई, 2 सितंबर, 1936)।
भारत का इतिहास दुनिया के लिए एक प्रेरणा है, पूरे विश्व के लिए अनुकरणीय है। सम्पूर्ण दुनिया भारत की ओर देख रही है, हमेशा भारत में विश्व गुरु की पात्रता निरन्तर प्रवहमान रही है। देश ने कोरोना महामारी के संकट के दौरान दुनिया के सभी देशों के हित-चिन्तन का भाव रखा। बिना किसी भेदभाव के वसुधैव कुटुम्बकम की भावना पर ये नया भारत चल रहा है। यही वीर सावरकर का दर्शन था। यही उनका चिंतन था कि भारत प्रभुता सम्पन्न गौरवशाली राष्ट्र बने। पूरी दुनिया का पथ-प्रदर्शक करने वाला राष्ट्र बने। जिस पर भारत शनै:-शनै: चल रहा है।
(लेखक बृजेश द्विवेदी वरिष्ठ पत्रकार हैं।)