पिछले 10 वर्षों में एक शब्द अंग्रेजी के शब्दकोष से निकल कर भारत के सेक्यूलर-लिबरल और वामपंथी कहे जाने वाले कथित बुद्धिजीवियों की पहली पसंद बना है। इस शब्द को दिल्ली के किसी कैफे में बैठा कोई बुद्धिजीवी जब उपयोग करता है तो उसका तात्पर्य एक अल्पसंख्यक के भीड़ से गुस्से से मारे जाने से होता है। यदा कदा यही शब्द मीडिया की रिपोर्टों, लिखे और लिखवाए जाने वाले लेखों में दिखाई पड़ता है। यह शब्द ‘मॉब लिंचिंग’ है। इसका शाब्दिक अर्थ तो भीड़ द्वारा किसी व्यक्ति की हत्या होता है लेकिन इसकी व्याख्यायें कई हैं।
इसी मॉब लिंचिंग पर दिन भर बौद्धिक शो चलाने वाले भारतीय वामपथी लिबरल 93 वर्ष पुरानी एक घटना भूल जाते हैं। ज्यादा सही यह कहना होगा कि वह जान कर भी भूलने का प्रयास करते हैं। आज (25 मार्च, 2024) से ठीक 93 साल पहले (25 मार्च, 1931) एक ऐसी ही मॉब लिंचिंग हुई थी। मॉब लिंचिंग भी कोई सामान्य नहीं थी और ना ही उसमें प्राण गंवाने वाला व्यक्ति। यह मॉब लिंचिंग कानपुर में हुई थी। मॉब लिंचिंग करने वाले ‘समुदाय विशेष’ यानी मुस्लिम समुदाय से थे और उनका शिकार होने वाले व्यक्ति थे गणेश शंकर विद्यार्थी।
गणेश शंकर विद्यार्थी: पत्रकार और समाजसेवी
प्रयागराज में 1890 में जन्मे गणेश शंकर विद्यार्थी के पिता एक सामान्य शिक्षक थे। शिक्षा पूरी करने के बाद विद्यार्थी एक जगह क्लर्क की नौकरी करने लगे थे। इसके बाद वह कानपुर में शिक्षक बन गए। हालाँकि, विद्यार्थी की असल रूचि पत्रकारिता में थी। विद्यार्थी कानपुर में पत्रकारिता के साथ ही समाजसेवा में जुड़े थे।
गणेश शंकर विद्यार्थी को केवल इसलिए मारा गया था क्योंकि वह दगों में फंसे लोगों को बचा रहे थे। गणेश शंकर विद्यार्थी ने अपने पत्रकारिता प्रेम और अंग्रेजो के विरुद्ध चल रहे आन्दोलन को धार देने के लिए एक समाचार पत्र शुरू करने का निर्णय लिया था। यह निर्णय काफी कठिन था क्योंकि समाचार पत्र शुरू करने के लिए उन दिनों मात्र पैसे ही नहीं बल्कि आदमी साहस की भी आवश्यकता थी। अंग्रेज सरकार हर चीज पर नियंत्रण रखती थी। विद्यार्थी ने अपने तीन साथियों के साथ ‘प्रताप’ समाचार पत्र की स्थापना की।
अंग्रेजों के दमन के विरुद्ध लिखने और स्पष्ट तरीके से अपनी बात लिखने के कारण यह समाचार पत्र पत्रकारिता का प्रतिमान बन गया। इस समाचार पत्र में छपने वाले विद्यार्थी के लेख जनमानस की आवाज उठाते और सामन्ती व्यवस्था के खिलाफ प्रहार करते। विद्यार्थी को पत्रकारिता उतनी ही प्रिय थी जितनी देश का स्वराज्य का सपना। वह कॉन्ग्रेस (तब कॉन्ग्रेस का अर्थ स्वराज्य आन्दोलन करने वालों का दस्ता हुआ करता था) से जुड़ गए। गाँधी जी को उन्होंने अपना जीवन समर्पित किया।
गणेश शंकर विद्यार्थी असहयोग आन्दोलन में सक्रिय रूप से जुड़े रहे। उन्होंने कानपुर के मिल वर्करों की पहली हड़ताल का नेतृत्व किया। रायबरेली के किसानों के दर्द को जनता के सामने रखा। उन्हें रायबरेली कि किसानों के लिए बोलने पर जेल में डाला गया। उनकी भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त से गहरी दोस्ती हुई। उन्होंने प्रताप में क्रांतिकारियों की 63 दिन की भूख हड़ताल को प्रमुख स्थान दिया। इसी हड़ताल में बाघा जतिन दास की मृत्यु हुई थी। वह 1925-1929 के बीच उत्तर प्रदेश की विधानसभा के सदस्य भी रहे।
एक मजहबी भीड़ और विद्यार्थी की हत्या
गणेश शंकर विद्यार्थी कानपुर में सदैव समाजसेवा में लगे रहते थे। 1927 में मुस्लिमों ने एक हिन्दू शादी में बैंड बजाने पर बवाल कर दिया था। विद्यार्थी ने कुछ नेताओं के साथ मिल कर एक मस्जिद के सामने संगीत बजाकर इस मानसिकता का विरोध किया। 1931 में जब 23 मार्च को भारत के तीन सपूतों भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फाँसी दी गई तो पूरे देश में उबाल आ गया। कॉन्ग्रेस समेत तमाम क्रांतिकारियों ने देश में हड़ताल, धरने और बंद का आयोजन किया।
कानपुर में भी बंद बुलाया गया था। सभी दुकानें और प्रतिष्ठान बंद करने की अपील थी। हालाँकि, देश के भावों से विरोध करने वालों की कमी ना अब है, ना तब थी। कुछ मुस्लिम दुकानदारों ने इस बंद को मानने से इनकार कर दिया था। यह सब अंग्रेजों के शह पर हो रहा था। दुकानें बंद ना करने के बाद साम्प्रदायिक हिंसा भड़की और भीड़ गली मुहल्लों में जाकर लोगों को मारने लगी। इस दौरान विद्यार्थी जी कराची जाने की तैयारी कर रहे थे। वह कॉन्ग्रेस के एक अधिवेशन में शामिल होने की तैयारी में थे।
जब उनके शहर का मिजाज बिगड़ गया तो वह यहीं रुक गए। उन्होंने दंगों में फंसे लोगों की सहायता करने का निर्णय लिया। उन्होंने इस दौरान तमाम हिन्दू-मुस्लिमों को दंगे की चपेट से बचाया। लेकिन एक दिन भीड़ के हत्थे चढ़ गए।
बताते हैं कि 25 मार्च के दिन वह कानपुर के चौबेगोला इलाके में भीड़ और दंगे को नियंत्रित करने का प्रयास कर रहे थे। युग पुरुष गणेश शंकर विद्यार्थी में दिए घटना के विवरण के अनुसार, चौबेगोला में नई सड़क इलाके में 4-5 मुस्लिमों का एक समूह आया और गणेश शंकर विद्यार्थी की तरफ चिल्लाते हुए मारने के लिए बढ़ा। इस समूह ने गणेश शंकर विद्यार्थी के खंजर घोंपा और लाठियों से उन पर वार किया। उन पर एक कुल्हाड़ी से भी वार किया गया।
एक और किताब ‘भारत के निर्माता: गणेश शंकर विद्यार्थी’ में लिखा गया है कि पहले कुछ मुस्लिमों ने उनसे हाथ मिलाया और उनकी तारीफ की। उनसे एक भाषण देने की अपील की गई। फिर उन्हें एक जगह पर ले जाकर छोड़ दिया गया। इसके बाद उन पर हमला हुआ। गणेश शंकर विद्यार्थी ने इस हमले पर अपने आप को आगे कर दिया। नृशंस तरीके से उनकी हत्या हुई। उनके साथ के लोगों पर हमले हुए। गणेश शंकर विद्यार्थी की लाश दो दिन बाद एक बोरे में मिली।
गणेश शंकर विद्यार्थी अंतिम क्षणों तक लोगों से दंगा रोकने की अपील करते रहे। हालाँकि, नफरत में अंधे दंगाइयों पर इसका ना असर होना था, ना हुआ। गणेश शंकर विद्यार्थी की जब हत्या हुई तब वह मात्र 41 वर्ष के थे। वह इस उम्र में ही काफी ख्याति पा चुके थे और भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन का बड़ा चेहरा थे। लेकिन नफरती भीड़ ने यह ना देख कर मात्र यह देखा कि गणेश शंकर विद्यार्थी उन लोगों के मजहब से नहीं थे और उन्हें मार दिया।
आज देश में मॉब लिंचिंग को लच्छेदार शब्दों में लपेट कर खूब हवा दी जाती है। लेकिन गणेश शंकर विद्यार्थी की हत्या पर बात नहीं होती। शायद उनकी हत्या पर बात करते समय उस मानसिकता पर बात करनी पड़ेगी, जो उनकी हत्या की जिम्मेदार थी और आज भी यदा कदा देखने को मिलती है।