क्या कोई कल्पना कर सकता है कि एक व्यक्ति के शरीर से लिपटा धागा भी किसी का जीवन बचा सकता है! सामान्य तौर पर यह बात पचती नहीं। हाँ! आस्थावान हिन्दू जनेऊ के धार्मिक व आध्यात्मिक पहलू से भली भाँति परिचित होता है किन्तु, इसके धारण करने वाले के अलावा किसी अन्य व्यक्ति का जीवन भी इसके माध्यम से बचाया जा सकता है, यह बात जब मैंने सुनी तो लिखने को विवश हो गया। सोचा! किस प्रकार किसी अपरिचित व्यक्ति के जीवन पर आए भयंकर संकट के समय, बिना किसी धार्मिक, आध्यात्मिक या कर्म-कांडीय प्रक्रिया का विचार मन में लाए, उसकी जीवन रक्षा के लिए अपना सर्वप्रिय व पवित्रतम वस्त्र झटके में कैसे त्याग दिया।
यूँ तो सामान्य रूप से देखें तो जनेऊ तीन सूती धागों की मानव शरीर से चिपकी एक शृंखला होती है। किन्तु, सम्पूर्ण शरीर में कान से लेकर कमर तक लटके इन तीन धागों का समुच्चय हिन्दू मान्यताओं में विशेष स्थान रखता है। वास्तव में तो यह एक ऐसा पवित्र बंधन होता है जो कि इसके धारण करने वाले व्यक्ति को ना सिर्फ धार्मिक, सामाजिक व आध्यात्मिक रूप से नियम बद्ध करता है अपितु, देव ऋण, ऋषि ऋण व पितृ ऋण से मुक्ति भी दिलाता है। इसके धारण करने, प्रयोग करने व उतारने की एक निश्चित प्रक्रिया व कठोर नियम होते हैं। मानव-जीवन में यज्ञोपवीत (जनेऊ) का अत्यधिक महत्त्व है। सृष्टि की प्रथम रचना ऋग्वेद में दिए मंत्र ने इसकी बड़ी महिमा बताई है:
ओ३म् यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं प्रजापतेर्यत्सहजं पुरस्तात्।
आयुष्यमग्र्यं प्रतिमुंच शुभ्रं यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेज़: ।।
पुरोहित द्वारा इस वेद मंत्र के उच्चारण के साथ एक विशेष विधि से किए गए उपनयन संस्कार को सभी संस्कारों में महत्त्वपूर्ण माना गया है।
बात गत 16 सितंबर की, झारखंड की राजधानी राँची से लगभग 100 किमी दूर चांडिल की है। वहाँ पर एक बड़ी स्टील फैक्ट्री है। इसकी मरम्मत के लिए कुछ इंजीनियर कोलकाता से आए हुए थे। शाम का समय था। भोजन के उपरांत इंजीनियर गेस्ट हाउस के बाहर घूम रहे थे। अचानक एक बेहद जहरीला साँप उनमें से एक इंजीनियर को डस कर सामने एक पेड़ के पास जाकर खड़ा हो गया। साँप को देखकर एक स्थानीय व्यक्ति ने समझ लिया कि जिसको डसा है, उसका बचना बेहद मुश्किल है क्योंकि, वह उस क्षेत्र का सबसे जहरीला साँप था। पैर का जहर शरीर के अन्य हिस्सों तक ना पहुँचे, इस हेतु पैर को बाँधने के लिए, किसी ने अपना रुमाल निकाला तो किसी ने कुछ और। किन्तु, दिल्ली से गए एक हरे राम नामक कर्मचारी ने आव देखा ना ताव, अपने शरीर से लिपटे हुए जनेऊ को फुर्ती से निकाला और पीड़ित इंजीनियर के पैर को कसकर बाँध दिया। साथ ही कंपनी के वरिष्ठ प्रबंधक ने स्थानीय चिकित्सा अधिकारियों को सूचना देते हुए पीड़ित को जमशेद पुर स्थित जिला अस्पताल पहुँचाया।
साँप की प्रकृति की समय पर पहचान, घटना स्थल से अस्पताल पहुँचने के लगभग एक घंटे के मार्ग को आधे समय में तय करने, मरीज के पहुँचने से पूर्व डॉक्टरों व जरूरी इन्जेक्शन की उपलब्धता सुनिश्चित करने तथा मरीज की मनोदशा को निरंतर ठीक रखने के अतिरिक्त आस्थावान हिन्दू– श्री हरे राम द्वारा शीघ्रता से जनेऊ समर्पित कर पैर को बाँधने के कारण उस इंजीनियर के जीवन को तो बचा लिया गया किन्तु, एक प्रश्न जीवंत रह गया कि यदि इस पूरी शृंखला की कोई एक भी कड़ी में कुछ कमजोरी रह जाती तो क्या उस इंजीनियर के जीवन को बचाया जा सकता था? शायद नहीं!
हम जानते हैं कि हिंदू जब एक बार जनेऊ धारण कर लेता है तो सामान्य तौर पर उसे आजीवन त्यागता नहीं है। ऐसे में हरे राम ने जनेऊ को तत्परता के साथ कैसे अपने शरीर से बिना कोई मंत्र पढ़े या कोई पूजा पाठ किए या किसी की धार्मिक अनुमति की प्रतीक्षा किए, एक क्षण में उतार कर एक अनजान के पैर में बाँध दिया। वास्तव में यह हिंदू संस्कार, हिंदू सोच और मानवता के प्रति दर्द की एक अनूठी मिसाल है। हिंदू समाज हमेशा पीड़ित की रक्षा के लिए सक्रिय रहता है। चाहे उसके लिए उसे कुछ भी क्यों ना करना पड़े। हिंदू मान्यता कहती है कि जीवन से बड़ा कुछ नहीं। जनेऊ भी जीवन बचाने मे इतनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है, सामान्य तौर पर अकल्पनीय है। साथ ही, हरि भक्त हरे राम का समर्पण भी वंदनीय है।
(विनोद बंसल: लेखक विश्व हिन्दू परिषद के राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं।)