नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति के मसौदे में शामिल तीन-भाषा के फार्मूले ने तमिलनाडु में राजनीतिक तल्ख़ियाँ भले ही बढ़ा दी हों, लेकिन राज्य में जैसे-जैसे CBSE बोर्ड से जुड़े स्कूलों की संख्या में इज़ाफ़ा हो रहा है, वैसे-वैसे हिन्दी सीखने वाले छात्रों की संख्या भी लगातार बढ़ रही है। इससे पता चलता है कि लोगों को हिन्दी से नहीं बल्कि उसे छात्रों पर ज़बरदस्ती थोपे जाने से दिक्कत है।
दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा के ज़रिए स्वेच्छा से हिन्दी सीखने वाले स्टूडेंट्स की संख्या 2009-10 के बाद से बढ़ रही है। दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा एक प्रमुख हिन्दीसेवी संस्था है, जिसकी स्थापना 1918 में हिन्दी के प्रचार के लिए की गई थी। इसी साल राज्य में एक समान सिलेबस को अनिवार्य कर दिया गया था। इसका फ़ायदा CBSE स्कूलों को मिला और वे ख़ूब फले-फूले क्योंकि उनका सिलेबस बेहतर था। 10 साल पहले राज्य में केवल 98 CBSE स्कूल थे। अब CBSE की स्थायी मान्यता वाले 950 और अस्थायी मान्यता वाले हज़ारों स्कूल हैं।
दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा द्वारा आयोजित परीक्षा में शामिल होने वाले उम्मीदवारों की संख्या दो लाख से बढ़कर 5.7 लाख हो गई है। आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार, इनमें से 80% स्कूली छात्र-छात्राएँ हैं। तमिलनाडु के अलावा और किसी अन्य दक्षिणी राज्य में इतनी बढ़ोतरी दर्ज नहीं की।
दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा के महासचिव एस जयराज ने कहा:
“चेन्नै में जिन स्टूडेंट्स के सिलेबस में हिन्दी है वे इन परीक्षाओं के ज़रिए हिन्दी सीखने के लिए बहुत उत्सुक रहते हैं। इसकी प्राथमिक परीक्षा ‘परिचय’ कहलाती है, यह साल में दो बार आयोजित की जाती है। फ़रवरी में आयोजित परीक्षा में 30 हज़ार से ज़्यादा परीक्षार्थी बैठते हैं वहीं जुलाई में होने वाली परीक्षा में 10 हज़ार से भी कम परीक्षार्थी शामिल होते हैं। इसका कारण यह बताया जाता है कि अधिकांश लोग शैक्षिक सत्र की शुरुआत में ही यह परीक्षा नहीं देना चाहते।”
उन्होंने कहा, “इससे यह भी पता चलता है कि माता-पिता चाहते हैं कि उनके बच्चे हिन्दी सीखें, क्योंकि वे इंग्लिश और तमिल भाषा को पर्याप्त नहीं समझते और तमिलनाडु में लोग हिन्दी भाषा से नफ़रत नहीं करते हैं।”
द्रविड़ विदुथलाई काजगम नेता कोलाथुर मनि इस बात से सहमत हैं और कहते हैं:
“पेरियार और उनके अनुयायियों ने लोगों को हिन्दी सीखने से कभी रोका नहीं। उन्होंने उसका विरोध तभी किया जब हिन्दी को स्कूलों में अनिवार्य किया जाने लगा। बहुत से लोगों ने, ख़ासकर शिक्षकों ने हिन्दी सीखनी इसलिए शुरू की होगी क्योंकि यह उनके रोज़गार से जुड़ी है। इसके अलावा हिन्दी सीखने वाले अधिकांश बच्चे अगड़े वर्ग से हैं।”
पी कन्नन का बेटा CBSE स्कूल में पढ़ता है। उन्होंने कहा, “मैं नहीं चाहता कि जब मेरा बेटा रोज़गार के लिए दूसरे राज्यों में जाए तो उसे शर्मिंदा होना पड़े। एक से अधिक भाषाओं को जानना हमेशा बेहतर होता है क्योंकि इससे उनके रोज़गार की संभावना बढ़ जाती है।”