Tuesday, November 5, 2024
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संजय सिंह और डेरेक ओ ब्रायन ने ईशान करण की चिट्ठी नहीं पढ़ी… वरना पत्रकार हरिवंश से पंगा न लेते

"सस्पेंड लोगों के प्रति उनके मन में सद्भावना तभी से रही है। चाहे वह मुझ जैसा छोटा कर्मचारी हो या फिर संसद के 'माननीय'... और सुबह-सुबह सरप्राइज देना हरिवंश जी की पुरानी आदत है। फिर चाहे चाय लेकर पहुँचना हो या 2-2 चिट्ठियों से..."

मैं अमूमन सुबह देर से उठता हूँ। आज (22 सितंबर 2020) सुबह आँख खुली तो पता चला कि राज्यसभा के उपसभापति हरिवंश संसद परिसर के भीतर धरने पर बैठे सांसदों के लिए चाय लेकर पहुँचे थे। धरने पर बैठे सांसद अपने निलंबन का विरोध कर रहे थे। इन सांसदों को सदन के भीतर उपसभापति के खिलाफ असंसदीय व्यवहार के कारण ही निलंबित किया गया था। फिर भी हरिवंश का विशाल हृदय देखिए।

ऐसा नहीं है कि रविवार को सदन में जो कुछ हुआ था, उसने हरिवंश को आहत नहीं किया होगा। उन्होंने तीन पन्नों की एक चिट्ठी भी राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति व राज्यसभा के सभापति वेंकैया नायडू को लिखी है। इसमें कहा है, “राज्यसभा में जो कुछ हुआ, उससे पिछले दो दिनों से गहरी आत्मपीड़ा, तनाव और मानसिक वेदना में हूँ। मैं पूरी रात सो नहीं पाया।” इतनी पीड़ा से गुजर रहे हरिवंश ने 24 घंटों के लिए उपवास रखने का फैसला किया है।

इन सब खबरों से गुजरते हुए मेरे मन में वे स्मृतियाँ ताजा हो गईं, जब मैं प्रभात खबर के धनबाद संस्करण में काम करता था। हरिवंश उस समय हमारे समूह संपादक हुआ करते थे। वे बैठते राँची में थे। लेकिन धनबाद खबरों के लिहाज से बड़ा सेंटर था। मेरे बीट भी ऐसे थे, जिनकी उस समय झारखंड से लेकर केंद्र तक सरकार थी। पर मैं बड़ा ही उद्दंड कर्मचारी था। सुबह की बैठक में शायद ही कभी जाता था। बरसों से जमे जमाए सिटी चीफ से अलग पंगा चल रहा था। सिटी चीफ से ही कुछ बीट लेकर मुझे दिए गए थे। टशन की एक वजह यह भी थी।

सिटी चीफ अक्सर मुझे सस्पेंड कर देते थे। कहते थे- राँची से आदेश आया है। यह सिलसिला दीपक अंबष्ठ के स्थानीय संपादक बनकर आने के बाद थमा था। हर बार जब-जब मैं सस्पेंड हुआ, काम पर कुछ दिन बाद हरिवंश जी बुला लिया करते थे। सस्पेंड लोगों के प्रति उनके मन में सद्भावना तभी से रही है। चाहे वह मुझ जैसा छोटा कर्मचारी हो या फिर संसद के ‘माननीय’।

मुझे 2009 के सितंबर की वह घटना भी याद आई, जब मैंने दिल्ली में दैनिक भास्कर ज्वाइन कर लिया। दिसंबर में मैं राँची गया था। मेरा एक महीने का वेतन बचा था। पैसा धनबाद से मिलना था। पर पहले राँची यह सोचकर चला गया कि हरिवंश जी और विजय भैया से मिल लूँगा। धनबाद आने पर मुझे 5 महीनों का पैसा मिला था। वजह जानने की कोशिश की तो पता चला कि हरिवंश जी का फोन आया था। उन्होंने कहा था कि इन पैसों से दिल्ली में जमने में मुझे सहूलियत होगी।

मैंने दैनिक भास्कर, दैनिक जागरण, नई दुनिया, आउटलुक जैसे बड़े संस्थानों में काम किया है। एक से एक संपादक देखे हैं। पर ऐसा दूसरा संपादक नहीं देखा, जो पुराने कर्मचारी के लिए इतना सोचता हो। असल में संपादक अपने कर्मचारियों के लिए भी इस तरह का बड़प्पन नहीं दिखा पाते।

2008 की बात होगी। बोकारो स्टील प्लांट का विस्तारीकरण और आधुनिकीकरण होना था। राजीव गाँधी ग्रामीण विद्युतीकरण योजना के तहत कुछ गाँवों में बिजली पहुॅंचाने का उद्घाटन होना था। तब के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के हाथों यह हुआ था। बोकारो में ब्यूरो ऑफिस था। पर बड़े आयोजनों के वक्त उस दफ्तर से रिपोर्टर और फोटोग्राफर भेजे जाते थे, जिसके अधीन उस जगह का एडिशन आता था। बोकारो, धनबाद संस्करण के तहत ही था। असल में इस तरह के अवसर स्थानीय अखबारों के लिए बड़े मौके होते हैं। इन आयोजन को कई पन्ने समर्पित कर दिए जाते हैं। इसलिए अतिरिक्त लोग लगाए जाते हैं कि कवरेज में सहूलियत हो।

धनबाद वाले संपादक के लिए उस जमाने में एक एंबेसडर हुआ करती थी। रिपोर्टर, फोटोग्राफर भी अमूमन उसी गाड़ी से बाहर भेजे जाया करते थे। जब रिपोर्टर कार्यक्रम को कवर कर लौट रहा था तो पता चला कि जिन गाँवों में बिजली पहुँचने का उद्धाटन हुआ है, उनमें से कुछ सड़क से थोड़ा नीचे उतरते ही है। दफ्तर से आदेश नहीं होने के बावजूद रिपोर्टर ने फैसला किया कि कुछ गाँव हो आए। वह इन गाँवों में पहुॅंचा तो पता चला कि कहीं ट्रांसफर्मर तो लगा है, पर घरों तक तार नहीं पहुँचे हैं। कहीं पोल ही लगे थे। जिन तीन या चार गाँव में रिपोर्टर और फोटोग्राफर गए, उनमें से कहीं भी घरों में बिजली नहीं पहुँची थी। कुछ तस्वीरें ली गईं। कुछ स्थानीय लोगों से बात की गई और रिपोर्टर व फोटोग्राफर धनबाद लौट आए।

लौटने पर सिटी चीफ को बताया गया कि ऐसा मामला है। उन्होंने सुनते ही खा​रिज कर दिया। उनका कहना था कि प्रधानमंत्री का कार्यक्रम महत्वपूर्ण है। ये सब तो बाद में भी होता रहेगा। उस समय के स्थानीय संपादक का स्वभाव था कि सबको अलग-अलग सहला दो। इसकी वजह से उन गाँवों की रिपोर्ट छपने की उम्मीद नहीं थी। हरिवंश जी को फोन किया गया। उन्होंने कहा कि ठीक है खबर और तस्वीरें भेजिए। मैं देखता हूँ। एक-एक कर संस्करण फाइनल होकर छपने जा रहे थे, पर उस खबर की कहीं कोई चर्चा नहीं थी।

मुझे याद है उस देर रात बेहद मायूस होकर अपने घर गया था। सुबह आँख खुली तो धनबाद संस्करण में आठ कॉलम में वह खबर लीड छपी थी। तब के धनबाद के सांसद ददई दुबे ने लोकसभा में प्रभात खबर की वह रिपोर्ट भी दिखाई थी और प्रधानमंत्री से फर्जी उद्धाटन करवाने के लिए जिम्मेदारों पर कार्रवाई की माँग की थी।

यानी, सुबह-सुबह सरप्राइज देना हरिवंश जी की पुरानी आदत है। कभी खबर प्रकाशित कर छोटे कर्मचारियों को सरप्राइज करना, कभी चाय से खुद के साथ अनुचित व्यवहार करने वालों सांसदों को सरप्राइज करना।

राष्ट्रपति और राज्यसभा के सभापति को लिखी उनकी तीन पन्ने की चिट्ठी देखकर, एक-एक पन्ने की उन दो चिट्ठी की भी याद आई, जो कुछ समय के अंतराल में आई थी और जिन्हें दफ्तर के नोटिस बोर्ड पर लगाया गया था। एक उनके बेटे की शादी के प्रीतिभोज में आमंत्रण का। दूसरा, पत्रकारिता की जिम्मेदारियों का उल्लेख करता हुआ, जिसे पढ़कर कोई उस प्रीतिभोज में जाना नहीं चाहता था। जबकि इस चिट्ठी के आने से पहले सिटी चीफ रोज लिस्ट तैयार करते थे कि कौन जाएगा और किसको ड्यूटी करनी है उस दिन।

दूर बैठकर भी कर्मचारियों के मन को बखूबी पढ़ लेने वाले हरिवंश जी, अब आसन पर बैठ संजय सिंह से लेकर डेरके ओ ब्रायन के मन की ‘राजनीति’ को पढ़ते होंगे। हँसते होंगे। आज वे संपादक होते तो अखबार के पहले पन्ने का बॉटम जरूर ईशान करण की चिट्ठी होती। ईशान करण एक ‘पाठक’ थे। पता नहीं अब उनकी चिट्ठी छपती है या नहीं। उस जमाने में खूब छपती थी। जब-जब वह चिट्ठी छपती यह चर्चा भी होती थी कि असल में ईशान करण, हरिवंश जी का ही छद्म नाम है। वो चिट्ठियाँ होती ही इतनी बेबाक थी कि काटो तो खून नहीं।

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अजीत झा
अजीत झा
देसिल बयना सब जन मिट्ठा

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