पिछले दिनों तुर्की के एक टेलीविजन धारावाहिक एर्टुग्रुल (Ertugrul) पर सऊदी अरब और मिस्त्र ने अपने देशों में प्रसारण पर रोक लगा दी थी। इस सन्दर्भ में मिस्त्र की सबसे प्रमुख फतवा काउंसिल ने बयान देते हुए कहा कि तुर्की इस धारावाहिक के माध्यम से मध्य पूर्व में अपना प्रभाव बढ़ाने की कोशिश कर रहा है। काउंसिल ने तुर्की के राष्ट्रपति रजब तैयब इरदुगान पर आरोप लगाते हुए कहा कि वे ‘उस्मानी साम्राज्य’ (ऑटोमन एम्पायर) को फिर से स्थापित करना चाहते है। यह अरब देशों की संप्रभुता को ख़त्म कर उन्हें उस्मानी साम्राज्य के अधीन करने की रणनीति है।
तुर्की और अरब देशों का यह टकराव कोई नया नहीं है, बल्कि इसका इतिहास शताब्दियों पुराना है। इस तथ्य को समझने के लिए हमें इस्लाम धर्म के संस्थापक पैगम्बर मोहम्मद के कालखंड को टटोलना होगा। जब 632 ईसवी में पैगम्बर का निधन हुआ, तो उनके बाद खिलाफत की शुरुआत हुई।
खिलाफत का मतलब साफ है कि सम्पूर्ण विश्व का इस्लाम ही एकमात्र धर्म रहेगा और केंद्रीय शक्ति के तौर पर एक बादशाह यानी खलीफा होगा। इस सोच के साथ पहला खलीफा अबू बकर बना, जो कि एक अरबी था। इसी के नेतृत्व में इस्लाम का प्रसार अरब से बाहर होना शुरू हुआ। दो साल के अंतर्गत फिलिस्तीन पर अरबों का कब्ज़ा हो गया। सीरिया और मेसोपोटामिया जैसी पुरानी संस्कृतियों पर भी इस्लामिक हमले शुरू हो गए।
अबू बकर के बाद उमर, उस्मान, अली और हसन को खलीफा बनाया गया। चूँकि इसका सम्बन्ध सीधे पैगम्बर मोहम्मद से था, इसलिए इस खिलाफत को राशिदुन कहा गया। इन्होंने अपनी राजधानी मदीना को बनाया। इस खिलाफत के दौर में सीरिया, फिलिस्तीन, मिस्त्र, इराक, ईरान, त्रिपोली, मंगोलिया, बुखारा, ताशकंद, समरकंद, अरमेनिया, जार्जिया और अजरबेजान पर इस्लाम का कब्जा हो चुका था।
राशिदुन खिलाफत में खलीफा हसन के दौरान आपसी तनाव चरम पर पहुँच गया था। जिसका फायदा उठाकर सीरिया के शासक मुआविया ने उम्मैय्यद खिलाफत की स्थापना की। अब इस्लाम का केंद्र मदीना की जगह दमिश्क बन गया। इस दौरान इस्लाम का फैलाव स्पेन से लेकर भारत के सिन्धु प्रदेश तक हो चुका था।
इन बीते वर्षों में उम्मैय्यद खलीफाओं ने अरबों की ताकत को लगभग ख़त्म कर दिया था। अरबों के पास अब जो कुछ बचा था, उसे अब्दुल्ला अब्बास ने 749 ईसवी में समाप्त कर दिया। अब्बास एक अफगानी मूल का था, जिसने विद्रोह कर उम्मैय्यद की जगह अब्बासिद खिलाफत की शुरुआत की।
प्रसिद्ध इतिहासकार एचजी वेल्स अपनी पुस्तक ‘ए शोर्ट हिस्ट्री ऑफ़ द वर्ल्ड’ में इस परिवर्तन का वर्णन करते हैं, “उम्मैय्या खिलाफत के सभी पुरुषों का नरसंहार कर उनके शवों को एक जगह इकट्ठा किया, फिर उस पर एक चमड़े की चादर बिछाकर अब्बास ने अपने समर्थकों के साथ खाना खाया। वस्तुतः यह शिया और सुन्नी संघर्ष था, क्योंकि उम्मैय्य्द सुन्नी थे और अब्बासिद शिया थे। खिलाफत के इस तीसरे स्वरुप- अब्बासिद की राजधानी दमिश्क के स्थान पर बग़दाद बन गई।
इस खिलाफत के दौरान दसवी-ग्यारहवीं शताब्दी में तुर्कों ने इस्लाम धर्म अपना लिया था। वे सामान्यतः घुमंतू लोग थे, जो कि दूसरी-तीसरी शताब्दी से अल्ताई पर्वत श्रृंखला, येनिसेय नदी के दक्षिण और बैकाल झील के इलाकों में घुमा करते थे। एक लम्बे अंतराल के दौरान इन तुर्कों ने एकजुट होकर अपनी राजनैतिक ताकत को मजबूत कर लिया था। इस क्रम में, दसवीं सदी के आसपास से इनके और अब्बासिद खलीफाओं के बीच मध्य एशिया में लगातार कई अभियान हुए। इन लगातार युद्धों से अब्बासिद कमजोर होते चले गए और धीरे-धीरे इस्लाम की केंद्रीय ताकत तुर्कों के पास चली गई।
इन तुर्कों में ओग़ुज़ एक प्रभावशाली जाति थी और इसमें काई कबीला सबसे प्रमुख था। एर्टुग्रुल इसी काबिले के मुखिया सुलेमान शाह का बेटा था। सुलेमान का राज्य उत्तर-पूर्वी ईरान में था। दूसरी तरफ मध्य एशिया में मंगोलों का प्रभुत्व तेजी से फैलता जा रहा था। 13वीं शताब्दी की शुरुआत में मंगोलों ने उत्तर-पूर्वी ईरान पर हमला कर दिया, जिससे सुलेमान को वहाँ से भागना पड़ा। सीरिया के रास्ते में फरात नदी को पार करते समय वह घोड़े से गिर गया और वहीं उसकी हत्या कर दी गई। एलेग्जेंडर डब्लू. हिडन अपनी पुस्तक ‘The Ottoman dynasty’ (1895) में शाह की मौत पर लिखते हैं कि उनके बेटों की मौजूदगी में उन्हें नदी में डुबाया गया था।
सुलेमान के तीन बेटों में एर्टुग्रुल सबसे छोटा था। पिता की हत्या के बाद दो बड़े भाइयों ने मंगोलों की गुलामी स्वीकार कर ली। जबकि एर्टुग्रुल को एक तुर्क-पर्शियन सेज्लुक सल्तनत की सुरक्षा का काम मिल गया। इस सल्तनत पर बाइज़ेंटाइन (पूर्वी रोमन साम्राज्य) की तरफ से लगातार हमले होते रहते थे। एर्टुग्रुल का काम इन हमलों से सल्तनत की रक्षा करना था। इसलिए उसे पश्चिमी आनातोलिया (वर्तमान तुर्की का हिस्सा) के आसपास सल्तनत के अधीन शासन करने का प्रभार दिया गया। अनातोलिया की सीमा मंगोलों से लगती थी।
साल 1277 तक मंगोलों ने पर्शिया, ईराक और पूर्वी आनातोलिया पर कब्ज़ा कर लिया था। इससे तुर्क-पर्शियन सेज्लुक सल्तनत लगभग समाप्त होने की कगार पर पहुँच गई। इस स्थिति का फायदा उठाकर एर्टुग्रुल जैसे छोटे जागीरदारों ने अपने रियासतों को स्वतंत्र घोषित करना शुरू कर दिया। तीन साल बाद यानी 1280 में जब एर्टुग्रुल की मृत्यु हुई तो उसकी जागीर का नेतृत्व उसके बेटे उस्मान को मिला।
एर्टुग्रुल के बारे में कुछ ज्यादा कुछ भी ख़ास नहीं लिखा गया है। इतिहासकारों ने अधिकतर ध्यान उसके बेटे उस्मान और उस्मानी साम्राज्य के विस्तार पर दिया है।
फिर भी एर्टुग्रुल के बारे में एलेग्जेंडर डब्लू. हिडन ने थोड़ा-बहुत जरूर लिखा है। अपनी पुस्तक में वे उससे सम्बंधित एक मिथ्य का जिक्र करते हुए लिखते हैं, “एर्टुग्रुल ने एक अजीब सा सपना देखा, जिसमें वह किसी अनजान जगह पर एक संन्यासी से मिला। जहाँ उसने एक पुस्तक को देखकर पूछा कि यह क्या है? उसे जवाब मिला कि यह कुरान है। एर्टुग्रुल ने उस पुस्तक को पूरी रात बैठकर पढ़ा। लगातार पढ़ने के चलते सुबह उसकी आँख लग गई। तभी उसे एक आवाज़ सुनाई दी- अब तुमने मेरे शब्दों को इतनी इज्जत के साथ पढ़ा है इसलिए तुम्हारे वंशजों को इस दुनिया में लगातार सम्मान मिलेगा।”
इसके विपरीत, वाशिंगटन विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर पीटर एफ शुगर ने ‘हिस्ट्री ऑफ़ ईस्ट सेंट्रल यूरोप’ पुस्तक में एर्टुग्रुल को ‘गाजी’ कहकर संबोधित किया है। इस्लाम में ‘गाजी’ की उपाधि मूर्तिपूजकों, गैर-मुस्लिमों, अल्लाह को न मानाने वाले अथवा काफिरों की हत्या करने वाले को दी जाती है।
वास्तव में तुर्क आक्रमणकारी थे, जो कि सिर्फ लूटपाट, हत्या और गैर-मुस्लिमों पर अमानुषिक अत्याचार के लिए ही बदनाम रहे। इनका पूरा इतिहास हिन्दुओं, यहूदियों और ईसाइयों के नरसंहारों से भरा हुआ है। इजरायली इतिहासकार बैनी मोरिस ने डोर जीएवी के साथ मिलकर ‘द थर्टी इयर जेनोसाइड– द टर्किज डिस्ट्रक्शन ऑफ़ इट्स क्रिस्चियन माइनॉरिटीज’ पुस्तक लिखी है। अपनी इस पुस्तक में उन्होंने उस्मानी साम्राज्य द्वारा 25 लाख ईसाइयों की हत्या का जिक्र किया है।
इन्ही तुर्कों में से एक बाबर ने 16वीं शताब्दी की शुरुआती दशकों में भारत पर हमला किया था। राणा सांगा की हार के बाद बाबर ने हिन्दुओं की हत्या कर उनके सिर का एक स्तंभ बनवाया। चंदेरी के दुर्ग पर भी कब्जा करने के बाद उसने हिन्दुओं के सिरों की एक मीनार बनवाई थी। हिन्दुओं के खिलाफ इन अत्याचारों के लिए बाबर को भी एर्टुग्रुल की तरह ‘गाजी’ की उपाधि दी गई थी।
बाबर के वंशजों को मुग़ल कहा गया। इसमें गैर-मुस्लिमों पर अत्याचारों का सबसे क्रूरतम उदाहरण औरंगजेब ने पेश किया था। उसने हजारों हिन्दू मंदिरों का ध्वंस किया और नए मंदिरों के निर्माण पर रोक लगवा दी। उसके आदेश पर बनारस, मथुरा, पाटन, जोधपुर, उदयपुर, अयोध्या और हरिद्वार जैसे अनेक धार्मिक स्थानों पर मंदिरों को तोड़ दिया गया। हिन्दुओं पर अतिरिक्त टैक्स लगाए गए। उन्हें उनके त्यौहार और जन्मोत्सव मनाने पर भी मनाही थी। इसके अतिरिक्त हिन्दुओं का बड़ी संख्या में नरसंहार किया और उन्हें जबरन इस्लाम में धर्मान्तरित करवाया गया।
इस तरह तुर्कों ने विश्व के कई हिस्सों पर कब्जा किया, वहाँ की संपत्तियों को लूटा, लड़कियों का बलात्कार किया, बच्चों और औरतों को गुलाम बनाया और करोड़ों की संख्या में गैर-मुस्लिमों का जबरन धर्म-परिवर्तन अथवा नरसंहार किया। इसके अलावा, इसी बीच तुर्की के बादशाहों ने खुद ही अपने को खलीफा भी घोषित कर दिया और अरबों पर भी अपना अधिपत्य बना लिया था।
तुर्कों के इस अमानवीय सत्ता का अंत प्रथम विश्वयुद्ध के बाद साल 1924 में जाकर हुआ। दरअसल, आपसी गृहयुद्ध और सत्ता के प्रति अहंकार ने कथित तुर्की खलीफा को कमजोर कर दिया था। अतंतः प्रथम विश्व युद्ध की समाप्ति तक तुर्कों के उस्मानी साम्राज्य को ब्रिटेन और फ्रांस ने मिलकर बिलकुल खत्म कर दिया।
वर्तमान में तुर्की फिर से अपनी इस सत्ता को पाने की कोशिश कर रहा है। इस सन्दर्भ में उसने अत्याचारों के उस्मानी कालखंड को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करने के लिए एर्टुग्रुल का सहारा लिया। ऐसा इसलिए किया गया क्योंकि उस्मानी साम्राज्य की शुरुआत एर्टुग्रुल के साथ ही होती है। इसके लिए तुर्की में एर्टुग्रुल पर साल 2014 में एक धारावाहिक बनाया गया, जिसे वहाँ के मुस्लिमों ने बेहद पसंद किया।
इस बढ़ती लोकप्रियता को भुनाने के लिए पाकिस्तान के सरकारी टेलीविज़न (PTV) ने भी एर्टुग्रुल को अपने यहाँ प्रसारित करना शुरू कर दिया। पीटीवी ने इस सीरीज को उर्दू में डब किया, जिसके बाद इसने पाकिस्तान के साथ ही भारत के कट्टरपंथियों पर अपना प्रभाव बनाना शुरू कर दिया। अभी इस धारावाहिक को नेटफ्लिक्स पर भी इंग्लिश सबटाइटल के साथ प्रसारित किया जा रहा है।
आज एक सिरफिरा लुटेरा, हत्यारा और बलात्कारी कैसे दक्षिण एशिया- भारत और पाकिस्तान के मुस्लिमों का नायक हो सकता है? वास्तव में, गलती उनकी भी नहीं है। यह पूरा खेल जिहादी-लेफ्ट इतिहासकारों का है, जिन्होंने पिछले 70 सालों में विदेशी हमलावरों को ‘नायक’ के तौर पर पेश किया है। जबकि राजा दाहिर, पृथ्वीराज चौहान, राजा हेमू, राणा सांगा, महाराणा प्रताप जैसे नायकों को इतिहास के पन्नों में समेट दिया गया।