अयोध्या मामले में मध्यस्थता के मसले पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक पीठ के पास कई तरह की दलीलें आईं। जहाँ मुस्लिम पक्ष मध्यस्थता के लिए तैयार दिखा, वहीं हिन्दुओं की तरफ के वकीलों ने इस पर उत्साह नहीं दिखाया। हिन्दू महासभा और रामलला विराजमान की तरफ से मध्यस्थता को लेकर प्रतिक्रियाएँ आईं कि हाई कोर्ट ने भी ऐसी कोशिश की थी लेकिन उसका परिणाम सकारात्मक नहीं रहा।
इस जिरह के दौरान कई सवाल उठाए गए जिनमें मध्यस्थता कैसे हो, क्या उसके परिणाम को दोनों समाज के लोग मानेंगे, करोड़ों लोगों की भावनाओं से जुड़े विषय पर कोर्ट के फैसले की जगह मध्यस्थता कितनी सही है, आदि शामिल थे।
सुनवाई की शुरुआत में ही हिन्दू महासभा ने कहा कि जनता इस बात को स्वीकार नहीं करेगी कि इस मुद्दे पर बातचीत द्वारा मसला सुलझाया जा सके। इस पर जस्टिस बोबड़े ने हिंदू महासभा से पूछा, “आप कैसे कह रहे हैं की समझौता असफल रहेगा?”
बातचीत और समझौते की राह पर जाने की बात कहते हुए कोर्ट ने कहा कि ये विषय सिर्फ ज़मीन का नहीं, बल्कि करोड़ों लोगों की भावनाओं से जुड़ा हुआ है, इस पर मिल बैठकर बात करने से अगर रास्ता निकल आए तो वही बेहतर होगा।
मुस्लिम पक्षकार की ओर ओर से राजीव धवन ने पक्ष रखते हुए कहा कि यह कोर्ट के ऊपर है कि मध्यस्थ कौन हो? लेकिन मध्यस्थता गोपनीय तरीके से हो। इस पर जस्टिस बोबड़े ने कहा कि यह गोपनीय ही होना चाहिए। साथ ही उन्होंने कहा कि पक्षकारों द्वारा गोपनीयता का उल्लंघन नहीं भी होना चाहिए। मीडिया में इस पर टिप्पणियाँ नहीं होनी चाहिए। और न ही प्रक्रिया की रिपोर्टिंग हो। अगर इसकी रिपोर्टिंग हो तो इसे कोर्ट की अवमानना घोषित किया जाए।
हिन्दू पक्ष ने कहा कि मान लीजिये की सभी पक्षों में समझौता हो गया तो भी समाज इसे कैसे स्वीकार करेगा? इस पर जस्टिस बोबड़े ने कहा कि अगर समझौता कोर्ट को दिया जाता है और कोर्ट उस पर सहमति देता है और आदेश पास करता है। तब वो सभी को मानना ही होगा।
BJP नेता सुब्रमण्यम स्वामी ने सुनवाई के दौरान कहा कि मध्यस्थता की कुछ सीमाएँ होती हैं और उससे आगे नहीं जाया जा सकता है।