बॉम्बे हाई कोर्ट (Bombay High Court) ने उस 19 वर्षीय लड़के को सुनाई जाने वाली दस साल के कठोर कारावास की सजा को रद्द कर दिया है, जिस पर अपनी चचेरी बहन के साथ रेप का आरोप था। इसके लिए बॉम्बे हाईकोर्ट का तर्क यह है कि नाबालिग की सहमति (Minor consent) पर कानूनी नजरिया साफ नहीं है। दरअसल, 19 साल के लड़के को अपने साथ रहने वाली नाबालिग चचेरी बहन के साथ दुष्कर्म के मामले में दोषी पाया गया था।
जानकारी के मुताबिक लड़की की उम्र 15 साल है और वह आठवीं कक्षा में पढ़ती है। लड़की दो सालों से अपने चाचा के घर पर रह रही थी। सितंबर 2017 में लड़की ने अपनी एक दोस्त को बताया कि उसके चचेरे भाई ने उसको गलत तरीके से हाथ लगाया था, जिसके बाद से उसके पेट में दर्द रहने लगा है। उसकी दोस्त ने उसकी यह बात अपनी क्लास टीचर को बताई।
पीड़िता ने मजिस्ट्रेट के सामने दिए ये बयान
जब टीचर ने पीड़ित लड़की से इस बारे में पूछा तो लड़की ने टीचर को अपने साथ हुए यौन शोषण की जानकारी दी और बताया कि उसका चचेरा भाई उसके साथ क्या करता है। तीन मार्च 2018 को उस लड़के के खिलाफ FIR दर्ज की गई। लेकिन जब FIR के बाद बच्ची का मेडिकल चेकअप किया गया, तो कोई बाहरी चोट नहीं पाई गई।
पीड़िता ने कोर्ट को बताया कि साल 2017 के सितंबर, अक्तूबर और फिर 2018 की फरवरी में उसके चचेरे भाई ने उसके साथ यौन शोषण किया। दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 164 के तहत मजिस्ट्रेट के सामने पीड़ित बच्ची का बयान दर्ज किया गया। बयान में पीड़िता ने यह भी बताया कि यह सहमति से किया गया कार्य था और केवल एक बार नहीं, बल्कि चार-पाँच बार। लड़की ने मजिस्ट्रेट के सामने दर्ज किए गए बयान में कहा कि उसने जो बयान पुलिस के सामने दिए थे, वे टीचर के आग्रह पर दिए गए थे।
कोर्ट ने नाबालिगों की सहमति पर दिया यह तर्क
निचली अदालत की तरफ से लड़के को दोषी ठहराए जाने के बाद लड़के ने बॉम्बे हाईकोर्ट में याचिका दायर की और जमानत की माँग की। तथ्यों को देखने के बाद न्यायमूर्ति शिंदे ने कहा कि हालाँकि कानून में नाबालिगों की सहमति को वैध नहीं माना गया है, लेकिन नाबालिगों के बीच सहमति से बनाए गए यौन संबंधों पर कोई कानूनी स्पष्टता नहीं है या कानूनी नजरिया साफ नहीं है।
न्यायमूर्ति शिंदे ने कहा, “मैं इस तथ्य से भी अवगत हूँ कि नाबालिगों के बीच सहमति से यौन संबंध एक कानूनी अस्पष्ट क्षेत्र रहा है, क्योंकि नाबालिग द्वारा दी गई सहमति को कानून की दृष्टि में एक वैध सहमति नहीं माना जाता है।” न्यायालय ने कहा कि इस तथ्य को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है कि पीड़िता ने अपना बयान पलटा था और यहाँ तक कि उसकी माँ अभियोजन पक्ष से भी नहीं मिली थी।
बेंच ने आगे कहा कि ट्रायल के दौरान भी आरोपित को जमानत दी गई थी और उसने इसका दुरुपयोग नहीं किया था। इन सभी मुद्दों को ध्यान में रखते हुए कोर्ट ने आरोपित की सजा को रद्द कर दिया है और लड़के को जमानत पर रिहा करने का आदेश दे दिया है। बॉम्बे हाई कोर्ट तय समय में लड़के की अपील पर सुनवाई करेगा।
गौरतलब है कि बॉम्बे हाईकोर्ट की नागपुर बेंच ने 19 जनवरी को अपने एक फैसले में कहा था कि ‘स्किन टू स्किन’ स्पर्श हुए बिना या कपड़ों के ऊपर से नाबालिग पीड़िता को ‘स्पर्श करना’ पॉक्सो कानून (POCSO Act) या यौन अपराधों पर बाल संरक्षण कानून के तहत यौन हमला नहीं माना जा सकता। हालाँकि चीफ जस्टिस एस ए बोबडे की अगुवाई वाली देश की शीर्ष कोर्ट ने इस फैसले पर 27 जनवरी को रोक लगा दी थी।
इसके बाद एक और मामले में बॉम्बे हाई कोर्ट की नागपुर बेंच की एकल पीठ ने यह फैसला दिया कि किसी लड़की का हाथ पकड़ना और आरोपित का पैंट की जिप खोलना प्रोटेक्शन ऑफ चिल्ड्रेन फ्रॉम सेक्सुअल ऑफेंसेज ऐक्ट, 2012 (POCSO) के तहत यौन हमले की श्रेणी में नहीं आता।
बुधवार (जनवरी 29, 2021) को बॉम्बे हाई कोर्ट का एक और फैसला सामने आया। ये भी रेप से जुड़ा मामला था। इस मामले में भी निचली अदालत ने 26 साल के आरोपित को रेप का दोषी पाया था, लेकिन जस्टिस पुष्पा ने उसे बरी कर दिया। जस्टिस पुष्पा ने तर्क दिया, “बिना हाथापाई किए युवती का मुँह दबाना, कपड़े उतारना और फिर रेप करना एक अकेले आदमी के लिए बेहद असंभव लगता है।”