इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने धर्म परिवर्तन और विवाह को लेकर एक अहम फैसला सुनाया है। न्यायालय ने अपने आदेश में स्पष्ट रूप से कहा है कि केवल विवाह के लिए धर्म परिवर्तन स्वीकार्य नहीं है। इसके अलावा न्यायालय ने अपने आदेश में यह भी कहा कि धर्म परिवर्तन का उद्देश्य अलग है, उसका विवाह से कोई सरोकार नहीं है।
धर्म परिवर्तन करने के बाद विवाह करने वाले एक जोड़े ने संरक्षण के लिए माँग करते हुए इलाहाबाद उच्च न्यायालय में याचिका दायर की थी। इस याचिका को खारिज करते हुए न्यायमूर्ति एमसी त्रिपाठी ने यह आदेश सुनाया है।
मुज़फ़्फ़रनगर के इस विवाहित जोड़े ने परिवार वालों को उनके शांति पूर्ण वैवाहिक जीवन में हस्तक्षेप करने पर रोक लगाने की माँग की थी। न्यायालय ने इस याचिका में दखल देने से इनकार करते हुए इसे खारिज कर दिया है।
न्यायालय ने अपने आदेश में कहा है कि एक याची हिन्दू है तो दूसरा मुस्लिम। प्रियांशी उर्फ़ समरीन ने 29 जून 2020 को हिन्दू धर्म स्वीकार किया था और इसके लगभग 1 महीने बाद हिन्दू रीति से शादी की थी। कोर्ट ने इस तथ्य के आधार पर स्पष्ट रूप से कहा कि यह धर्म परिवर्तन सिर्फ विवाह के उद्देश्य से किया गया है।
न्यायालय ने 2014 के नूर जहां बेगम मामले के आदेश का हवाला देते हुए आदेश सुनाया और कहा कि ऐसे मामलों में न्यायालय पहले ही स्पष्ट कर चुका है कि ‘विवाह के लिए धर्म परिवर्तन मान्य नहीं हो सकता है।’
नूर जहां बेगम मामले में दायर की गई अनेक याचिकाओं में एक ही प्रश्न था, “क्या सिर्फ विवाह के लिए धर्म परिवर्तन मान्य हो सकता है?” जबकि धर्म परिवर्तन करने वाले व्यक्ति को न तो उस धर्म के बारे में कोई जानकारी होती है और न आस्था/विश्वास। तमाम याचिकाओं में एक ही प्रश्न था कि लड़कियों ने मुस्लिम लड़कों के कहने पर इस्लाम धर्म कबूल किया। जबकि उन लड़कियों को न तो इस धर्म के बारे में मूलभूत जानकारी थी और न ही आस्था।
न्यायालय ने अपने आदेश में कहा कि इस तरह की गतिविधियाँ कुरान के शूरा दो आयत 221 के निर्देशों के विपरीत है। न्यायालय ने इस तरह की गतिविधियों को कुरान की शिक्षा को ध्यान में रखते हुए वैध करार नहीं दिया है। सर्वोच्च न्यायालय ने भी लिली थॉमस मामले में ठीक ऐसा ही आदेश दिया था। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने आदेश में कहा था कि इस्लाम में सच्ची आस्था के बिना सिर्फ विवाह करने के लिए किया गया धर्म परिवर्तन मान्य नहीं कहा जा सकता है।