जम्मू-कश्मीर एवं लद्दाख हाई कोर्ट ने एक मामले की सुनवाई करते हुए बेहद अहमद टिप्पणी की है। हाई कोर्ट ने कहा कि गोवंश की तस्करी से धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँचा सकता है। इसलिए यह सार्वजनिक व्यवस्था के लिए खतरा है। यह मामला गो-तस्करी से जुड़े एक व्यक्ति शकील मोहम्मद का है। कोर्ट ने उसे उसकी हिरासत को बरकरार रखा है और चुनौती देने वाली याचिका खारिज कर दी।
मामले की सुनवाई करते हुए न्यायमूर्ति मोक्षा खजूरिया काज़मी ने कहा कि हिरासत में लिए गए व्यक्ति शकील मोहम्मद की गतिविधियाँ (पशु तस्करी) न केवल कानून और व्यवस्था की समस्या पैदा करती हैं, बल्कि क्षेत्र में सार्वजनिक व्यवस्था बनाए रखने के लिए भी खतरा पैदा करेंगी। कोर्ट ने हिरासत में लिए गए शकील मोहम्मद की हिरासत को न्यायसंगत बताया।
न्यायालय ने स्पष्ट किया, “गोजातीय पशुओं में गाय और बछड़े शामिल हैं और उनकी अवैध तस्करी को हमेशा एक समुदाय द्वारा वध के उद्देश्य से ही देखा जाता है। इसलिए ऐसे समुदाय के लोगों में यह भावना है कि यह गतिविधि उनकी धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँचाती है।” अदालत ने कहा कि हिरासत में लिए गए व्यक्ति के खिलाफ गोवंशीय पशुओं की अवैध तस्करी के कई एफआईआर दर्ज हैं।
कोर्ट ने कहा कि ऐसी गतिविधियों से समुदाय के वर्तमान जीवन की गति भी बाधित होने की संभावना है। इससे न केवल कानून और व्यवस्था की समस्या उत्पन्न होगी, बल्कि क्षेत्र में सार्वजनिक व्यवस्था बनाए रखने के लिए भी खतरा पैदा होगा। बता दें कि शकील को मार्च 2024 में जम्मू-कश्मीर सार्वजनिक सुरक्षा अधिनियम के तहत हिरासत में लिया गया था।
शकील मोहम्मद की अम्मी ने विभिन्न आधारों पर उसकी गिरफ्तारी को चुनौती देते हुए एक याचिका दायर की थी। शकील की अम्मी ने याचिका में दावा किया है कि शकील को बिना सोचे-समझे हिरासत में लिया गया और प्रक्रियागत सुरक्षा उपायों का उल्लंघन किया गया। इसमें उसे हिरासत में लिए जाने के खिलाफ अपना पक्ष रखने के उसके अधिकार के बारे में सूचित करना और उसकी अपनी भाषा में पढ़ना शामिल है।
इस मामले में सरकार की ओर से पेश वकील ने कहा कि शकील मोहम्मद एक कट्टर और आदतन अपराधी है। वह चाकू घोंपने, दंगा करने और गोवंश की तस्करी समेत कई आपराधिक वारदातों में शामिल रहा है। वकील ने दलील दी कि शकील मोहम्मद शांतिप्रिय लोगों के बीच आतंक फैलाया है और उसकी असामाजिक गतिविधियाँ सार्वजनिक व्यवस्था के लिए हानिकारक हैं।
उसकी प्रिवेटिव डिटेंशन को लेकर न्यायालय ने आर कलावती बनाम तमिलनाडु राज्य (2006) में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले पर भरोसा किया। इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने माना गया था कि प्रासंगिक कारक हिरासत में लिए गए व्यक्ति के कार्यों की प्रकृति नहीं है, बल्कि सामुदायिक जीवन या सार्वजनिक व्यवस्था को बाधित करने की उसकी क्षमता प्रासंगिक है।
न्यायालय ने पाया कि शकील की गतिविधियों से सार्वजनिक व्यवस्था को बिगाड़ने की संभावना थी। इसलिए उसकी निवारक हिरासत को बरकरार रखा। न्यायालय ने याचिका में लगाए गए इस आरोप में भी कोई दम नहीं पाया कि उसे हिरासत में रखने में प्रक्रियागत सुरक्षा उपायों का उल्लंघन किया गया। कोर्ट ने पाया कि हिरासत आदेश शकील को हिंदी/डोगरी में पढ़कर सुनाया गया था, जिसे वह समझ गया।