दिल्ली में हुए हिन्दू-विरोधी दंगों के मामले में पुलिस द्वारा दायर की गई चार्जशीट न सिर्फ वॉल्यूम के मामले में सबसे बड़ी है बल्कि जाँच के दौरान प्रयोग में लाए गए नए वैज्ञानिक तकनीकों के कारण भी इसे खास माना जा रहा है। इस मामले की संवेदनशीलता और इसके पेचीदा होने के कारण दिल्ली दंगों की जाँच के दौरान पुलिस द्वारा कॉल डिटेल्स विवरण के अलावा कई अन्य तरह की तकनीक का भी इस्तेमाल किया गया।
पश्चिमी देशों में आपराधिक मामलों की जाँच के दौरान ‘इंटरनेट प्रोटोकॉल्स डिटेल्स रिकॉर्ड्स’ तकनीक का इस्तेमाल किया जाता है। दिल्ली हिन्दू-विरोधी दंगों के मामले में भी पुलिस ने इसे आजमाया। इसके तहत स्मार्टफोन्स में इंटरनेट ट्रैफिक का विवरण जुटाया जाता है। इससे VoIP कॉल्स के दौरान बनाए गए कनेक्शंस का अध्ययन करने में आसानी होती है। चूँकि अधिकतर आरोपित व्हाट्सएप्प और टेलीग्राम जैसे एप्स के माध्यम से सम्पर्क में थे, पुलिस को इस तकनीक से खासी सहायता मिली।
कई ऐसे पीड़ित भी थे, जो जल गए थे और उनकी पहचान ज़रूरी थी। ऐसे मृतकों के चेहरे को फिर से तैयार करने के लिए उनके फोटोग्राफ्स से उनकी खोपड़ी को ‘Superimpose’ किया गया और इससे ‘फेसिअल रिकंस्ट्रक्शन’ में मदद मिली। यहाँ तक कि इस मामले में फंडिंग और ‘मनी ट्रेल’ के लिए भी तकनीक का सहारा लिया गया। ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ में राज शेखर झा की रिपोर्ट में ये बातें सामने आई हैं।
इस मामले में ‘फण्ड फ्लो एनालिसिस’ के लिए भी तकनीक का सहारा लिया गया। आरोपितों द्वारा किए गए वित्तीय लेनदेन के पैटर्न की जाँच के लिए एक सॉफ्टवेयर का प्रयोग किया गया। बता दें कि दिल्ली दंगों के दौरान रुपयों का खूब लेनदेन हुआ था औ दंगाइयों तक वित्तीय मदद पहुँचाई गई थी। वाहनों को जलाने से पहले दंगाइयों ने ‘इ-वाहन’ को मैसेज भेज के उसके मालिकों की पहचान जुटाई थी।
इसके लिए टेक्स मैसेजों की जाँच की गई। सरकारी डाटाबेस से उन नंबरों को जुटाया गया, जिनके द्वारा ‘इ-वाहन’ को टेक्स्ट मैसेज भेजे गए थे। दंगों के दिन भेजे गए इन मैसेजों का ब्यौरा जुटाया गया। क्राइम ब्रांच की स्पेशल इन्वेस्टीगेशन टीम द्वारा अन्य दंगों की जाँच के लिए भी ये तरीका आजमाया जा रहा है। इसके अलावा ‘Geo-लोकेशन’ के जरिए गूगल मैप्स का इस्तेमाल कर आरोपितों के मूवमेंट के बारे में पुलिस ने सारी जानकारी जुटाई।
फ़रवरी 24 को शाम 5:50 बजे मार डाले गए राहुल सोलंकी का मामले में जियो-टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल काफी काम आया। सड़क पर लगे सीसीटीवी कैमरों, मीडिया कैमरों और फोन कैमरों से शूट किए गए 950 वीडियो फुटेज जुटाए गए, जिनमें ‘फेसिअल रिकग्निशन सिस्टम’ का इस्तेमाल कर के 2655 आरोपितों की पहचान की गई। इसके लिए एनालिटिक्स टूल्स का भी इस्तेमाल किया गया। ये तकनीकें मृतकों की पहचान के लिए भी काम आई।
From IPDR & Google Maps analysis to facial reconstruction & Fund Flow analysis software — the Delhi riots probe is based on first-of-its-kind scientific investigation techniques as Delhi Police goes beyond the traditional probe tools like call details records analysis etc. pic.twitter.com/ClFeAVsiKS
— Raj Shekhar Jha (@rajshekharTOI) September 21, 2020
इन सबसे जो फोटोग्राफ्स मिले, उन्हें कई सारे डेटाबेस से मैच कराया गया। दिल्ली पुलिस क्रिमिनल डोजियर सहित अन्य सरकारी डेटाबेस से उन्हें मैच कराया गया। इससे 2655 आरोपितों की पहचान हुई और उनके खिलाफ सबूत होने के कारण उन पर कार्रवाई करने में आसानी हुई। मोबाइल फॉरेन्सिक्स और क्लोनिंग जैसी तकनीकों से आरोपितों के पास से जब्त मोबाइल फोन्स की जाँच की गई।
वीडियो और कॉल्स के रिकॉर्डेड ऑडियो के माध्यम से आरोपितों के खिलाफ सबूत इकट्ठा करने में आसानी हुई। दिल्ली पुलिस कमिश्नर एसएन श्रीवास्तव ने TOI को बताया कि इस केस के ‘सब-जुडिस (न्यायलय में चल रहा)’ होने के कारण इससे जुड़ी जानकारियाँ साझा नहीं की जा सकतीं। हालाँकि, उन्होंने स्वीकारा कि दिल्ली पुलिस की जाँच काफी हद तक वैज्ञानिक और तकनीकी माध्यमों और तौर-तरीकों पर आधारित रही है।
ज्ञात हो कि हाल ही में सितम्बर 14 को उमर खालिद को दिल्ली में हुए हिन्दू-विरोधी दंगों के मामले में यूएपीए के तहत गिरफ्तार किया गया। आम आदमी पार्टी के पार्षद रहे ताहिर हुसैन को दिल्ली दंगों की चार्जशीट में मुख्य अभियुक्त बनाया गया है और उसने पूछताछ में कबूला भी है कि वो हिन्दुओं को सबक सिखाना चाहता था। साथ ही ‘पिंजड़ा तोड़’ जैसे संगठनों के कई ‘एक्टिविस्ट्स’ पर भी शिकंजा कसा गया।