सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस अभय एस ओका ने सोमवार (4 मार्च 2024) को कहा कि अदालत परिसर में कोई भी “पूजा” या “अर्चना” नहीं की जानी चाहिए। उन्होंने पुणे में एक “भूमि पूजन” समारोह में भाग लेने के दौरान यह बयान दिया। पुणे जिला अदालत की नई इमारतों के उद्घाटन के लिए जिला अदालत में इस कार्यक्रम का आयोजन किया गया था। उनका बयान सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जस्टिस के जोसेफ के उस बयान के एक सप्ताह बाद ही आया है, जिसमें उन्होंने प्रोपेगेंडा वेबसाइट द वायर की ओर से आयोजित कार्यक्रम में कहा था कि उन्होंने सीजेआई से सुप्रीम कोर्ट के आदर्श वाक्य “यतो धर्मस्ततो जय” (जहाँ धर्म है, वहाँ जीत है) को हटाने के लिए कहा है।
सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस अभय एस ओका ने जोर देकर कहा कि कानूनी बिरादरी को डॉ बाबासाहेब अम्बेडकर की मानसिकता को अपनाना चाहिए और धार्मिक अनुष्ठानों के बजाय मूल संवैधानिक सिद्धांतों पर जोर दिया जाना चाहिए। रिपोर्ट्स के मुताबिक, उन्होंने कहा, ”हमें न्यायपालिका से जुड़े किसी भी कार्यक्रम के दौरान पूजा-अर्चना या दीपक जलाने जैसे अनुष्ठान बंद करने होंगे। इसके बजाय, हमें संविधान की प्रस्तावना रखनी चाहिए और किसी भी कार्यक्रम को शुरू करने के लिए उसके सामने झुकना चाहिए। हमें अपने संविधान और उसके मूल्य का सम्मान करने के लिए यह नई चीज शुरू करने की जरूरत है।”
इस कार्यक्रम में सुप्रीम कोर्ट के जज जस्टिस बीआर गवई और जस्टिस प्रसन्ना बी वराले के साथ ही बॉम्बे हाई कोर्ट के चीफ जज जस्टिस देवेन्द्र कुमार उपाध्याय और पुणे के संरक्षक जज सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस रेवती मोहिते डेरे भी उपस्थित थे।
इस कार्यक्रम में अपने भाषण के दौरान जस्टिस बीआर गवई ने मुखर होकर जस्टिस अभय एस ओका के रुख से सहमति जताई और कहा कि जस्टिस ओका ने बहुत अच्छा सुझाव दिया है। उन्होंने कहा, ”किसी खास धर्म की पूजा करने के बजाय हमें अपने हाथों से फावड़ा लेकर नींव के लिए निशान लगाना चाहिए। हमें हमारे सहयोगी अनिल किलोरे के सुझाव के अनुसार दीप प्रज्ज्वलन समारोह के बजाय पौधों को पानी देकर कार्यक्रम का उद्घाटन करना चाहिए। इससे पर्यावरण के मामले में समाज में एक अच्छा संदेश जाएगा।”
जस्टिस गवई ने कहा, “मुझे लगता है कि अगर जज के रूप में हमारे भीतर रामशास्त्री प्रभुणे जैसा साहसी और निष्पक्ष स्वभाव है, तो हमें जमानत देने से क्यों डरना चाहिए? आजकल स्थिति यह है कि जिला अदालत में जमानत नहीं मिलती है।”
एक सप्ताह के भीतर कथित धार्मिक संबद्धताओं के संबंध में न्यायपालिका की ओर से यह लगातार दूसरी टिप्पणी है। इससे पहले 28 फरवरी को रिटायर्ड जस्टिस जोसेफ ने सुझाव दिया था कि सुप्रीम कोर्ट के आदर्श वाक्य को बदलना चाहिए। उन्होंने कहा था कि “यतो धर्मस्ततो जय” (जहाँ धर्म है, वहाँ जीत है) को बदलना चाहिए। क्योंकि “सत्य ही संविधान है, जबकि धर्म हमेशा सत्य नहीं होता। समय की आवश्यकता के अनुसार अपने कर्तव्य का निर्वहन करना ही धर्म है।”
दिलचस्प बात यह है कि साल 2018 में एक सेमिनार में सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्स जस्टिस जोसेफ ने कैथोलिक चर्च की तुलना भारत की प्रस्तावना से की थी। उन्होंने कहा था, “कैथोलिक चर्च ने हमेशा दुनिया भर की अन्य परंपराओं और विश्वासों को अपने आप में आत्मसात किया है। यहा हमारे संविधान की प्रस्तावना की तरह ही है, जो वी (हम) शब्द से शुरू होती है। उन्होंने पोप के महिमामंडन में कहा था कि “एक व्यक्ति जो इस चर्च को एक इकाई में रखता है, वह पोप है।”
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