370/35A किस-किस अमानवीयता के कवच थे, यह ठीक-ठीक पता करने में अगर दशक नहीं तो कई साल तो लग ही जाएँगे। लेकिन 370 हटने के बाद से लोगों के दर्द का जमा गुबार पिघलना तो शुरू हो ही गया है। ऐसा ही एक दर्द निकला कश्मीर निवासी और वाल्मीकि समुदाय से ताल्लुक रखने वाले एक सफाई कर्मचारी का इंडिया टुडे की पत्रकार पूजा शाली से बात करते हुए।
जब उनसे पूछा गया कि वह तो ताउम्र (कश्मीरी सरकार द्वारा स्थाई निवासी का सर्टिफिकेट न दिए जाने, और सरकारी नौकरियाँ स्थाई निवासियों के ही लिए रोककर रखने से) सफ़ाई कर्मचारी ही रह गए, लेकिन उनकी बेटी के पास विकल्प होना उन्हें कैसा लग रहा है, तो उनका जवाब देते हुए गला रूँध गया। अपने आँसुओं को रोकते हुए बताया कि वे इतनी गरीबी में रहते हैं कि जब अपनी बेटी राधिका को एक ट्रेनिंग दिलाने के लिए लेकर गए तो उन्हें वहाँ पूरे दिन भूखा ही रहना पड़ा।
370/35A के हिमायतियों को शर्म करने के लिए कहते हुए वैज्ञानिक और लेखक आनंद रंगनाथन ने यह वीडियो शेयर किया:
Radhika’s dad; his tears finally washing away DECADES of cruelty. Harrowing moment captured by @PoojaShali.
— Anand Ranganathan (@ARanganathan72) August 16, 2019
“The arc of the moral universe is long but it bends toward justice,” said Dr King.
It did bend. And yet, there are some men & women who want to look away. SHAME on them. pic.twitter.com/oLOIkhF2Ds
इसके अलावा उन्होंने 21-वर्षीय दलित युवक एकलव्य की कहानी भी साझा की जो पॉलिटिकल साइंस में पोस्टग्रेजुएट होने के साथ एक टॉपर है, लेकिन 370/35A के चलते उसे भी सफ़ाई कर्मचारी के अलावा कोई नौकरी न मिलती।
कश्मीर में 1957 में स्थानीय सफ़ाई कर्मचारियों के महीनों तक हड़ताल पर चले जाने के बाद तत्कालीन राज्य सरकार ने दूसरे राज्यों से सफ़ाई कर्मचारियों को बुला कर वहाँ बसाया था। लेकिन उन्हें 370/35A का हवाला दे कर स्थाई निवास प्रमाणपत्र जारी नहीं किया गया, और इसी 370/35A के अनुसार सरकारी नौकरियाँ केवल स्थाई निवासियों के लिए आरक्षित थीं। यानी, राज्य में रहकर उन कर्मचारियों के लिए सफ़ाई कर्मचारी के अलावा कोई नौकरी नहीं थी। और यही स्थिति 370/35A के खात्मे यानि 5 अगस्त, 2019 तक चालू थी।