24 जनवरी, हमारे देश में ‘नेशनल गर्ल चाइल्ड डे’ (राष्ट्रीय बालिका दिवस) के रूप में जाना जाता है। इस दिन को देश भर में अधिकांश बालिकाओं के साथ हो रही असमानता, भेद-भाव आदि पर प्रकाश डालने के लिए मनाया जाता है। साल 2008 में महिला एवं बाल विकास मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा इस दिन को मनाने की शुरूआत की गई थी। इस दिन को विशेष रूप से मनाने का यह भी उद्देश्य था कि लड़कियों की पढ़ाई, पोषण, कानूनी अधिकारों, चिकित्सा सेवा, महिला सुरक्षा जैसी ज़रूरी चीज़ों पर बात की जा सके।
आज इस दिन के उपलक्ष्य में महिला एवं बाल विकास मंत्रालय द्वारा नई दिल्ली, चाणक्यपुरी स्थित प्रवासी भारतीय केंद्र में समारोह भी आयोजित किया जा रहा है। इस समारोह में हाल ही में शुरू हुए ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ योजना की वर्षगाँठ को मनाते हुए भी बात होगी। साल 2019 में इस समारोह का विषय “उज्ज्वल कल के लिए लड़कियों का सशक्तिकरण” है। इसका समारोह का मक़सद बाल लिंग अनुपात के बारे में जागरूकता पैदा करना है। इस पूरे समारोह की मुख्य अतिथि मेनका गाँधी होंगी।
हमारे समाज में इस दिन को मनाने का विशेष महत्व इसलिए भी होना चाहिए, क्योंकि अधिकांश बच्चियों और महिलाओं की स्थिति देश में ठीक उसी तरह है जैसे गरीबों और असहायों की। देश में बालिकाओं के लिए चलाए जाने वाले अभियान इस बात को स्पष्ट करते हैं कि चाहे लोग कितना ही आगे बढ़ जाएँ लेकिन सोच उनकी कुंठित ही है। राजनैतिक स्तर पर सरकार बच्चियों और महिलाओं के लिए योजनाओं को लागू करके, कानून बनाके, सुविधाएँ देकर, अभियान चलाकर अपना काम कर रही है, लेकिन उनकी स्थिति को सुधारने के लिए हमे सामाजिक स्तर पर कार्य करने की बेहद आवश्यकता है।
आज से कुछ समय पहले की बात करें चाहे आज की, शायद ही देश में कुछ एक अस्पताल ऐसे हों जहाँ के कूड़ेदान में कभी कोई नवजात बच्ची पड़ी न पाई गई हो। घर से लेकर सड़क तक, मार्केट से लेकर सुपर बाज़ार तक, स्कूल से लेकर दफ़्तर तक बालिकाओं और महिलाओं का शोषण किसी न किसी रूप में किया जाता रहा है। हाल ही में सोशल मीडिया पर ट्रेंड में रहा #MeToo अभियान इन्हीं सब घटनाओं का परिणाम था।
साल 2018 में मी_टू के तूल पकड़ने के बाद एक ऑनलाइन सर्वे कराया गया, जिसमें जो नतीज़े निकलकर आए वो बेहद हैरान करने वाले हैं। इस सर्वे में पाया गया कि करीब 81 प्रतिशत महिलाएँ अपनी पूरी ज़िंदगी में कभी न कभी यौन शोषण का शिकार हुई हैं। इनमें 77 प्रतिशत महिलाओं ने वर्बल सेक्शुअल हैरस्मेंट (भद्दी गली, छींटाकशी, सीटी मारना, अश्लील कमेंट करना) का सामना किया। 51 प्रतिशत महिलाओं का कहना रहा कि उन्हें बिना उनकी मर्ज़ी के हाथ लगाया गया। 41 प्रतिशत ने बताया कि वो ऑनलाइन यौन शोषण का शिकार हुई हैं।
इस रिपोर्ट में इस बात पर भी ज़ोर दिया गया था कि अधिकतर महिलाओं को कहाँ पर शोषण होता महसूस हुआ। एक तरफ़ जहाँ 66% महिलाओं ने उत्तर में सार्वजनिक जगहों का नाम लिया वहीं पर 38% ने अपने दफ्तरों में ये अनुभव किया। इसके अलावा 35% महिलाओं का जवाब उनका अपना घर रहा।
साल 2014 में अपने साक्षात्कार में महिला एवं बाल विकास मंत्री मेनका गाँधी ने अपने 100 दिन के कार्यकाल को पूरा करते हुए इस बात की जानकारी दी थी कि देश में हर दिन 2,000 लड़कियों को पैदा होने से पहले या तुरंत बाद मार दिया जाता है।
हमारे देश में जहाँ पर पितृसत्ता की जकड़ इतनी कसी हुई हो, कि एक औरत ही लड़की की दुश्मन बनती जा रही है। ऐसे में हम अंदाजा लगा सकते हैं कि हमें नेशनल गर्ल चाइल्ड डे को मनाने की कितनी ज़रूरत है, लड़कियों के अधिकारों पर आवाज़ उठाने की कितनी ज़रूरत है। जहाँ लड़की के पैदा होने से पहले ही उसकी शादी के दहेज की चिंता सर पर भार बन जाए वहाँ पर समझा जा सकता है ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ अभियान के क्या महत्व होंगे।
मिड डे मील से लेकर लाडली योजना तक के पीछे का उद्देश्य सिर्फ यही रहा है कि लड़की को पढ़ाना और बढ़ाना घर के लोगों पर बोझ न बने। साल 2011 में आई ब्रिटिश मेडिकल जर्नल में छपी ‘लैंसेट’ में पाया गया कि करीब 1.2 करोड़ भारतीय लड़कियाँ 1981 से अब तक पेट से ही गिराई जा चुकी हैं। 1981 में एक तरफ जहाँ 1000 लड़कों के मुकाबले 962 लड़कियाँ थी, वहीं 2011 के आते-आते ये अनुपात और भी बिगड़ गया, जिसमें लड़कियों की संख्या 918 ही रह गई।
समाज में पिछड़े हुए समाज पर न बात करते हुए अगर राज्य में मंत्री पद पर आसित व्यक्ति (सोमनाथ भारती, आप नेता) के बारे में ही यदि बात करें तो उनकी पत्नी भी घरेलू हिंसा की शिकार हुई हैं।
उपयुक्त लिखी सभी बातें मात्र ख़बरों का या फिर जानकारी का हिस्सा नहीं हैं, निबंध लिखने के लिए लिंग अनुपात के आँकड़े शायद हमें कहीं से भी मिल जाएँगे लेकिन अपने भीतर और आस-पास के माहौल में जागरूकता फैलाने का कार्य हमें स्वयं ही करना है। ये ऑनलाइन सर्वे, ये आँकड़े सिर्फ उन महिलाओं की दशा इंगित करते हैं जो खुलकर इन विषयों पर बात करती हैं या फिर अपने ख़िलाफ़ हो रहे अन्यायों को शिकायत के रूप में दर्ज़ कराती हैं।
इन सबके अलावा हमारे समाज में वो औरतें, वो लड़कियाँ भी शामिल हैं जो न ही कुछ बोलती है और न ही उनपर होते अत्याचार थमने का नाम ले रहे हैं। ऐसे में सरकार द्वारा चलाए गए अभियान और शुरू की गई योजनाएँ तब तक व्यर्थ हैं, जबतक हम खुद महिलाओं की स्थिति को सुधारने का बीड़ा नहीं उठाएँगे। देश की हर महिला को और हर व्यक्ति को इस बात की जानकारी होने बेहद आवश्यक है कि न केवल 24 जनवरी के दिन बल्कि हर दिन एक लड़की के भविष्य को सुधारने पर बात की जानी चाहिए।