कुछ दिन पहले पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी की पुलिस ने कोलकाता पुलिस कमिश्नर राजीव कुमार को बचाने के लिए सीबीआई अधिकारियों को बंधक बनाने की शर्मनाक हरकत की। इस घटना से न केवल केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो जैसी उच्च स्तरीय जाँच एजेंसी की छवि धूमिल करने का प्रयास किया गया बल्कि राज्य और केंद्र के मध्य अविश्वास की स्थिति उत्पन्न हुई। किसी भी लोकतांत्रिक देश के लिए ऐसी परिस्थिति उसके संघीय ढाँचे के लिए बेहद ख़तरनाक साबित हो सकती है।
राजीव कुमार को कई बार समन भेजा जा चुका था जिसके बाद सीबीआई की टीम उनसे पूछताछ करने गई थी लेकिन पश्चिम बंगाल सरकार ने सारी लोकतांत्रिक शुचिता को दरकिनार कर सीबीआई का मजाक बना कर रख दिया। ध्यातव्य है कि सीबीआई को तीन प्रकार से केस सुपुर्द किए जाते हैं।
एक तो तब जब राज्य सरकार की पुलिस किसी केस को सुलझाने में असफल होती है तब राज्य सरकार केंद्र से सीबीआई जाँच करवाने का आग्रह करती है। दूसरा तरीका है कि केंद्र सरकार स्वयं किसी महत्वपूर्ण केस की जाँच सीबीआई से करवाना चाहे तो करवा सकती है। इन दोनों परिस्थितियों के अतिरिक्त हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट सीबीआई जाँच के आदेश दे सकते हैं।
जब सीबीआई को राज्य से किसी केस की जाँच की अनुमति मिल जाती है तब उसे उस राज्य में पुलिस के अधिकार मिल जाते हैं। इसी अधिकार के चलते सीबीआई राजीव कुमार से पूछताछ करने गई थी। संविधान केंद्र सरकार को यह अधिकार भी देता है कि यदि किसी राज्य में संकट उत्पन्न हो तो केंद्र हस्तक्षेप कर सकता है।
कानून व्यवस्था मुख्य रूप से राज्य के जिम्मे है किंतु यदि राज्य की स्थिति बिगड़ जाए और कोर्ट सीबीआई जाँच का आदेश दे तो सीबीआई कोर्ट का आदेश मानने को बाध्य है। इस दृष्टि से हज़ारों करोड़ों रुपए के चिट फंड घोटाले (जिनसे लाखों लोग प्रभावित हुए) से संबंधित केस की छानबीन सीबीआई से करवाना केंद्र सरकार का दायित्व है। इस कार्य में बाधा उत्पन्न करना या तो भ्रष्टाचार को समर्थन देने जैसा है, या फिर राज्य का अपनी जनता की पीड़ा से मुँह मोड़ने जैसा।
हालाँकि, सीबीआई की छवि पहली बार धूमिल नहीं हुई है। कुछ महीने पहले सीबीआई के दो वरिष्ठ अधिकारियों के बीच चली तनातनी का तमाशा देश ने देखा। एक दूसरे के ऊपर आरोप प्रत्यारोप करते हुए निदेशक आलोक वर्मा और सेकंड इन कमांड राकेश अस्थाना ने सीबीआई जैसे संस्थान की अच्छी खासी फ़ज़ीहत करवाई। सरकार ने दोनों को छुट्टी पर भेजा जिसके बाद मामला कोर्ट में गया। इन सबके बीच 25 अक्टूबर 2018 को एक विचित्र खबर आई कि इंटेलिजेंस ब्यूरो के 4 अधिकारी आलोक वर्मा के घर के बाहर ‘पकड़े’ गए।
अर्थात अभी तक तो एक ही एजेंसी ‘तोता’ उपनाम लेकर बदनाम थी लेकिन आईबी के अधिकारियों को जिस प्रकार सड़क पर घसीटा गया था उससे यह स्पष्ट हो गया कि भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था के अधीन काम करने वाली केंद्रीय एजेंसियों की वास्तव में क्या स्थिति है।
आंतरिक और बाह्य सुरक्षा
एजेंसियों का कार्यक्षेत्र समझने के लिए देश के सुरक्षा ढाँचे को समझना ज़रूरी है। सुरक्षा के मुख्यतः दो प्रकार हैं- आंतरिक और बाह्य। बाह्य सुरक्षा सशस्त्र सेनाओं के जिम्मे है जबकि आंतरिक सुरक्षा का दायित्व गृह मंत्रालय के अधीन कार्य करने वाली एजेंसियाँ संभालती हैं जिनमें सेंट्रल आर्म्ड पुलिस फ़ोर्स कहलाने वाले बल भी सम्मिलित हैं।
यदि संपूर्ण सुरक्षा ढाँचे की कल्पना एक मनुष्य के रूप में की जाए तो हम देखेंगे की सशस्त्र सेनाएँ इस मनुष्य के पाँव हैं जो सीमाएँ लाँघने में सक्षम हैं, राज्य सरकारों की पुलिस और केंद्रीय पुलिस बल इस मनुष्य के हाथ हैं जो एक दायरे के अंदर ही काम कर सकते हैं लेकिन इंटेलिजेंस या गुप्तचर विभाग इस सुरक्षा रूपी मनुष्य का दिमाग है जो दूर तक सोच सकता है और भविष्य के खतरों को भाँप सकता है।
जहाँ जाँच एजेंसियाँ वारदात होने के बाद काम करती हैं वहीं इंटेलिजेंस एजेंसियाँ अपराध होने से पहले उसके घटित होने की संभावनाओं पर निगरानी रखती हैं। सीबीआई और आईबी के कार्यक्षेत्र में यह मूल अंतर है। आईबी को पब्लिक आर्डर और आंतरिक सुरक्षा संबंधी सूचनाएँ गुप्त रूप से इकट्ठा करने की ज़िम्मेदारी दी गई है जिसके अंतर्गत उसे संवेदनशील स्थानों पर निगरानी रखनी होती है। किंतु आलोक वर्मा प्रकरण में आईबी की कार्यशैली पर ही सवाल खड़े किए गए।
सीबीआई और आईबी दोनों की फ़ज़ीहत होने का एक ही कारण है। वह यह कि दोनों एजेंसियों को संवैधानिक दर्जा प्राप्त नहीं हैं और इन दोनों की वैधानिक स्थिति भी स्पष्ट नहीं है। जहाँ सीबीआई अपनी उत्पत्ति का स्रोत दिल्ली पुलिस स्पेशल एस्टैब्लिशमेंट एक्ट (1946) बताती है वहीं आईबी किसी भी कानून द्वारा स्थापित एजेंसी नहीं है। नवंबर 2013 में गुवाहाटी उच्च न्यायालय ने सीबीआई को ‘असंवैधानिक’ घोषित कर दिया था। इससे पहले 2012 में कर्नाटक उच्च न्यायालय ने आईबी के वैधानिक दर्ज़े पर सवाल खड़े किए थे।
हालाँकि द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग की रिपोर्ट में यह सुझाव दिया गया था कि सीबीआई को DSPE एक्ट से मुक्त कर एक पृथक सीबीआई एक्ट के अंतर्गत स्थापित किया जाना चाहिए लेकिन अभी तक इस पर अमल नहीं किया गया है।
अमरीका और हमारे सुरक्षा प्रणाली में यही मौलिक भेद है। अमरीका ने 1947 में National Security Act पास कर एक्सटर्नल इंटेलिजेंस एजेंसी सीआईए बनाई और आंतरिक सुरक्षा के लिए एफबीआई को तमाम ऐसे वैधानिक अधिकार दिए जिससे वह कॉउंटर इंटेलीजेंस और आपराधिक जाँच दोनों कार्य करती है।
हमें भी स्वतंत्रता के बाद ऐसी ही स्वायत्तता प्राप्त आंतरिक सुरक्षा एजेंसी बनानी थी जो इंटेलिजेंस एकत्र करना और आपराधिक जाँच दोनों कर सके क्योंकि इंटेलिजेंस और ‘इन्वेस्टिगेशन’ एक दूसरे से गहराई तक जुड़े हुए पहलू हैं। भ्रष्टाचार और संगठित अपराध से लेकर आतंकवाद तक आज सभी प्रकार के अपराधों के तार आपस में जुड़े होते हैं। कई बार एजेंसियों में बेहतर तालमेल न होने के कारण जाँच प्रक्रिया में बाधा उत्पन्न होती है।
एक समय सीबीआई का निदेशक केंद्रीय सतर्कता आयोग (CVC) नियुक्त करता था। भ्रष्टाचार के मामलों की जाँच करने में आज भी CVC को सीबीआई से अधिक अधिकार प्राप्त हैं। लेकिन CVC के पास फुल टाइम चीफ़ विजिलेंस अफसर नहीं हैं जो सीबीआई की तरह जाँच कर सकें। और सीबीआई को राज्य में पुलिस के अधिकार देने के बावजूद हथियार नहीं दिए जाते। इससे यह पता चलता है कि जिस एजेंसी के पास अधिकार हैं उसके पास दायित्व नहीं है और जिसके पास दायित्व है उसे अधिकार नहीं दिए गए।
देश की अन्य एजेंसियों की वैधानिकता की बात करें तो 2017 में एक मजेदार बात हुई थी। देश के किसी भी कानून में एक इंटेलिजेंस एजेंसी का कार्यक्षेत्र परिभाषित नहीं है फिर भी 2017 में नेशनल टेक्निकल रिसर्च आर्गेनाइजेशन (NTRO) के कर्मचारियों को Intelligence Organisations (Restriction of Rights) Act, 1985 के अधीन लाकर यूनियन बनाने से रोक दिया गया था।
आतंकवाद से लड़ने के लिए हड़बड़ी में कानून लाकर बनाई गई जाँच एजेंसी एनआईए का दायरा भी सीमित ही है। आज आवश्यकता है एक ऐसी एजेंसी की जो आंतरिक सुरक्षा, भ्रष्टाचार की जाँच, इंटेलिजेंस एकत्र करना और आतंकवाद इन सभी ज़िम्मेदारियों को पूर्ण स्वायत्ता के साथ संभाल सके।