बीसीसीआई की प्रशासनिक समिति (CoA) के अध्यक्ष विनोद राय ने कुछ दिन पहले कहा कि क्रिकेट खेलने वाले देशों को पाकिस्तान का उसी प्रकार बहिष्कार करना चाहिए जैसे कभी विश्व समुदाय ने रंगभेद के कारण दक्षिण अफ्रीका का बहिष्कार किया था। भारत और पाकिस्तान के बीच वैसे भी लंबे समय से क्रिकेट शृंखला नहीं हो रही है। भारत केवल वर्ल्ड कप जैसे आयोजनों में ही पाकिस्तान की टीम के साथ खेल रहा है। लेकिन ताज़ा आतंकी घटनाओं को देखते हुए अब आवश्यकता है कि विश्व समुदाय प्रत्येक खेल आयोजन से पाकिस्तान का बहिष्कार करे।
ध्यातव्य है कि रंगभेद के दौर में खेल ही नहीं अकादमिक बिरादरी से भी दक्षिण अफ्रीका का बहिष्कार किया जा चुका है। सन 1965 में 34 ब्रिटिश विश्वविद्यालयों के 496 प्रोफेसरों ने दक्षिण अफ़्रीकी विश्वविद्यालयों का बहिष्कार किया था। सन 1981 में यूरोपीय देशों ने दक्षिण अफ्रीका से तेल का व्यापार करना बंद कर दिया था। सन 1959 में रंगभेद के कारण दक्षिण अफ्रीका को आर्थिक बॉयकॉट झेलना पड़ा था। अस्सी और नब्बे के दशक में विश्व समुदाय ने दक्षिण अफ्रीका के कलाकारों का बहिष्कार किया था।
उस दौर में दक्षिण अफ्रीका के फिल्म कलाकारों के साथ कोई काम नहीं करना चाहता था। भारत और संयुक्त राष्ट्र ने 1988 में रंगभेद की नीति के विरुद्ध दक्षिण अफ्रीका के साथ खेलने से मना कर दिया था। उस समय विजय अमृतराज ने कहा था कि उन्हें दक्षिण अफ्रीका के साथ खेलने के लिए ढेर सारे पैसे ऑफर किए गए थे लेकिन उन्होंने उस देश के साथ खेलने से मना कर दिया था जहाँ रंगभेद की नीति अपनाई जाती थी।
रंगभेद की नीति मानवता के विरुद्ध अभिशाप थी। यह मानव इतिहास में गोरे लोगों द्वारा अपनाई गई सबसे घृणास्पद और क्रूर नीति थी जिसके तहत करोड़ों अश्वेतों को निर्ममता से मारा गया था। ग़ुलामी प्रथा के दौर में अमेरिका में अश्वेत महिलाओं की कोई इज्जत नहीं होती थी। उनका मालिक उनके शरीर को किसी भी तरह इस्तेमाल कर सकता था। एक ग़ुलाम के शरीर पर उसके मालिक का पूरा क़ानूनी अधिकार हुआ करता था।
मालिक अपने ग़ुलाम के साथ यौन हिंसा से लेकर मारकाट तक किसी भी प्रकार का सलूक कर सकता था। यहाँ तक कि किसी ग़ुलाम द्वारा बात न मानने पर उसका मालिक उसे ज़िंदा कुत्ते को भी खिला दे तो वह ग़ैरकानूनी नहीं माना जाता था। ग़ुलामी प्रथा और रंगभेद की नीति के ख़िलाफ कई सौ सालों तक लड़ाई लड़ी गई।
अंतरराष्ट्रीय खेलों के परिदृश्य में एक घटना बहुत प्रसिद्ध है। सन 1968 मेक्सिको ओलंपिक की बात है। 200 मीटर की रेस में दो अश्वेत टॉमी स्मिथ और जॉन कार्लोस क्रमशः स्वर्ण और कांस्य पदक विजेता थे। उन दोनों ने अमेरिका में अश्वेतों की गरीबी को विश्व समुदाय के सामने लाने के लिए बिना जूते पहने पदक ग्रहण किए थे। तब ऑस्ट्रेलिया के रजत पदक विजेता पीटर नॉर्मन ने श्वेत होने के बावजूद उनका साथ दिया था।
यह वह दौर था जब अमेरिका में सिविल राइट्स मूवमेंट चरम पर था। अमेरिका में अश्वेत अधिकारों का आंदोलन सिविल राइट्स मूवमेंट कहलाता है। सिविल राइट्स मूवमेंट की पृष्ठभूमि में अमेरिका में अश्वेत अधिकारों की लड़ाई का इतिहास देखना आवश्यक है। सन 1864 में अमेरिका में गृहयुद्ध के बाद दासता समाप्त कर दी गई थी परंतु यह अश्वेतों पर अत्याचारों का अंत नहीं था।
ग़ुलामी प्रथा समाप्त करने के बाद भी अमेरिका में अनेक ऐसे कानून बनाए गए जिससे अमेरिकी समाज में अन्याय और भेदभाव का प्रभुत्व बना रहा। इन कानूनों को ‘जिम क्रो’ कानून कहा गया। ‘जिम क्रो’ कोई व्यक्ति नहीं था, यह अश्वेतों के प्रति अनादर व्यक्त करने वाला शब्द था। इन कानूनों के अनुसार अमेरिकी समाज में श्वेत और अश्वेत अलग-अलग रखे गए।
वे अलग-अलग बसों और ट्रेनों में चलते थे। श्वेतों के रेस्टोरेंट में अश्वेत प्रवेश नहीं कर सकते थे। कुछ कानूनों के तहत एक अश्वेत को सिद्ध करना होता था कि वह रोज़गार में है, अन्यथा उसे जेल या लेबर कैम्प्स में डाला जा सकता था। उनके वोटिंग के अधिकार भी सीमित थे। सन 1969 तक इंटर-रेशियल शादियाँ गैरकानूनी थीं।
भेदभाव यहीं तक सीमित नहीं था। समाज के लोगों के व्यवहार में जो भेदभाव था, वह इन कानूनी भेदभाव तक सीमित नहीं था। अमेरिका में, खासतौर से दक्षिणी राज्यों में स्थिति विकट थी। यदि किसी श्वेत व्यक्ति को किसी अश्वेत व्यक्ति का व्यवहार पर्याप्त सम्मानजनक नहीं लगता था तो इसके परिणाम कुछ भी हो सकते थे। यदि किसी अश्वेत व्यक्ति पर किसी अपराध का आरोप लग जाये तो दंड का निर्धारण आम सहमति से होता था। दंड का निर्धारण न्यायिक प्रक्रिया से ही हो यह आवश्यक नहीं था।
अगर पब्लिक को न्यायिक प्रक्रिया से निर्धारित न्याय पसंद नहीं आता था तो यह भीड़ न्याय कर देती थी। ऐसी हज़ारों घटनाएँ हैं जिसमें उत्तेजित श्वेत भीड़ ने किसी अश्वेत आरोपित को पकड़ कर उसे मारा-पीटा, नाक कान काट लिए, आंखें फोड़ दीं और फाँसी दे दी या ज़िंदा जला दिया। अगर आरोपी जेल में बंद हो तो भीड़ ने उसे जेल से निकाल कर मार डाला। उसके बाद उस भीड़ ने मृत व्यक्ति के साथ गर्व से फ़ोटो खिंचवाई और ऐसे फोटोग्राफ्स उस समय के अमेरिकी अखबारों में मज़े से छपा करते थे। ऐसी घटनाओं को ‘लिंचिंग सक्सेस’ भी बताया जाता था। अखबारों में छपे उन फोटोग्राफ्स के बावजूद किसी भी श्वेत व्यक्ति को ऐसी घटनाओं के लिए सज़ा हुई हो ऐसा नहीं है।
रंगभेद की नीति को धीरे-धीरे अमेरिका बहुत पीछे छोड़ आया लेकिन दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद नब्बे के दशक तक चला था। इसी कारण क्रिकेट खेलने वाले कई देशों ने दक्षिण अफ्रीका का दशकों तक बहिष्कार किया था। नब्बे के दशक में जाकर के ही यह बहिष्कार ख़त्म हुआ था।
आज के परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो रंगभेद और जेहादी आतंकवाद में कोई विशेष अंतर नहीं दिखाई पड़ता। आइसीस (ISIS) द्वारा औरतों को सेक्स स्लेव बनाना, पाकिस्तान में आतंकी संगठन जमात-उद-दावा की शरिया अदालतों द्वारा अमानवीय दंड देने वाले फैसले सुनाना जैसे कारनामें जेहाद को रंगभेद से अलग नहीं करते बल्कि दोनों विचारधाराएँ एक ही प्रतीत होती हैं। एक मुस्लिम औरत को किसी दूसरे मर्द के साथ दिख जाने पर पत्थरों से मार दिया जाना ‘लिंचिंग सक्सेस’ जैसा ही है।
जिस प्रकार रंगभेद में श्वेत खुद को अश्वेतों से ऊपर मानते हैं उसी प्रकार जेहाद में भी इस्लाम को सभी आस्थाओं में सर्वोपरि मानकर हिंसा की जाती है। रंगभेद और जेहाद में बस इतना ही अंतर है कि गोरे रंग वाला व्यक्ति काले में ‘कन्वर्ट’ नहीं हो सकता जबकि जेहाद इतनी सहूलियत देता है, अन्यथा वास्तव में ग्लोबल जेहाद से अधिक हत्याएँ रंगभेद की नीति के कारण हुई थीं। ऐसे में दुनिया के पहले जेहादी इस्लामिक स्टेट पाकिस्तान का विश्व क्रिकेट समुदाय से बहिष्कार होना ही चाहिए।