अनशन, आंदोलन, सत्याग्रह ये तीन शब्द नहीं बल्कि सामाजिक राजनीतिक परिवर्तन के सशक्त हथियार थे। इनकी महत्ता को स्थापित करने में महात्मा गाँधी ने अपना पूरा जीवन खपा दिया। लेकिन पिछले कुछ सालों में राजनेताओं ने इसका इतना दुरुपयोग किया कि अब कोई भी इनका प्रयोग करता है तो उसमें जनहित न होकर व्यक्तिगत राजनीतिक महत्वाकांक्षा होती है, जिसके बल पर आज के राजनेता जनता को बेवकूफ़ बनाने का कार्य कर रहे हैं।
केजरीवाल, हार्दिक पटेल, ममता बनर्जी और अब चंद्रबाबू नायडू जैसे कुछ नेताओं ने आजकल आंदोलन, अनशन, सत्याग्रह की परिभाषा इतनी सस्ती कर दी है कि क्या कहा जाए! कभी अँग्रेजों के खिलाफ यही ब्रह्मास्त्र था। जिसने उन आक्रांताओं को भी घुटने टेकने पर मज़बूर किया, जिनके बारे में कहा जाता था कि उनके राज में सूरज नहीं डूबता लेकिन भारत की पावन धरा पर एक अधनंगे फ़क़ीर गाँधी ने ऐसा डुबोया की आज तक उबर नहीं सके।
आंदोलन, अनशन, सत्याग्रह शब्दों के वास्तविक मर्म को यदि ये संकीर्ण राजनीति करने वाले सही ढंग से समझते, तो अपने राजनीतिक प्रदर्शनों को आंदोलन, अनशन, सत्याग्रह नाम नहीं देते। क्योंकि आंदोलन, अनशन, सत्याग्रह ऐसे छद्म राजनीतिक या रणनीतिक हथियार नहीं हैं, जिनका आए दिन दुरुपयोग किया जाए।
आख़िरी बार 2013 में कॉन्ग्रेस के महाघोटालों से तंग और त्रस्त जनता अन्ना हज़ारे के नेतृत्व में जब दिल्ली के रामलीला मैदान में आंदोलित हुई तो इस देश ने कॉन्ग्रेस मुक्त भारत का बिगुल ही बजा दिया। अन्ना को दूसरा गाँधी कहा जाने लगा।
आंदोलन, सत्याग्रह जब तक नैतिक बल पर आधारित रहा, वह देश को एकजुट करने में क़ामयाब रहा। लेकिन जैसे ही उसमें राजनीतिक स्वार्थ की मिलावट हुई, वह मात्र एक नाटक रह गया। कौन है वह सूत्रधार, जिसने सबसे पहले इसका माखौल उड़ाया? इस सवाल के जवाब में महान क्रन्तिकारी नेता केजरीवाल का नाम याद आता है, जो पब्लिसिटी स्टंट के इतने माहिर खिलाड़ी निकले कि आंदोलन शब्द को गंध से भर दिया। अब कोई ज़रूरी वजहों से भी आंदोलन के बारे में सोचे तो नाटक लगने लगता है। फिर चाहे वह चुनाव के समय दिल्ली में तमिलनाडु के किसानों को जुटाकर मल-मूत्र पीना क्यों न हो। इसके पीछे भी सिर्फ चुनावी बढ़त के लिए अन्नदाता से ऐसा घृणित कार्य करवा लेने की साजिश ही है।
आपको हार्दिक पटेल जैसे नेताओं का भूख हड़ताल तो याद ही होगा। ममता बनर्जी भी सीबीआई से अपने चहेते अधिकारियों को बचाने के लिए धरने पर बैठ गईं थी और उसे भी अनशन का नाम दे दिया था। अन्ना का आए दिन आंदोलन तो नज़र ही आता है। जिस व्यक्ति को देश ने इतना सम्मान दिया, देश का बच्चा-बच्चा उसमें दूसरा गाँधी देखने लगा, वह भी राह भटक कर इसे प्रसिद्धि के हथियार के रूप में प्रयोग करने लगा। यहाँ तक कि ठीक से काम करती सरकारों को भी आंदोलन, अनशन की धमकी देने लगा।
अन्ना जैसे व्यक्ति भी ये भूल गए कि विशुद्ध नैतिक बल पर आधारित आंदोलन, अनशन, सत्याग्रह करना हो तो मन, वचन और कर्म की पूर्ण अहिंसा उसकी सबसे बड़ी कसौटी होती है। न कि राजनीतिक या प्रसिद्धि की भूख को आधार बनाकर सरकारों को डराने, काम से रोकने या धमकी देने के लिए इनका इस्तेमाल करना।
आज के सुविधा भोगी नेताओं को यह बात याद करनी होगी कि आंदोलन, अनशन, सत्याग्रह तीनों का स्वरूप नकारात्मक नहीं, रचनात्मक है। इसके पीछे क्रोध या द्वेष की भावना न थी, न होनी चाहिए। इसमें छोटी-मोटी बातों, आपसी मनमुटावों को कभी तूल नहीं दिया जाता। अधीरता से काम नहीं लिया जाता और न ही व्यर्थ का शोरगुल मचाया जाता है।
इन तीनों शब्दों के अर्थ को समझने के पीछे के नैतिक और आध्यात्मिक पहलुओं को सीखने और समझने का व्यावहारिक प्रयास लुप्त हो गया है। आज तो महागठबंधन की राजनीतिक जुटान के लिए भी आंदोलन, अनशन, सत्याग्रह जैसे शब्दों का प्रयोग हो रहा है। महागठबंधन भी वो जो राजनीतिक रूप से जनता द्वारा ठुकराए लोगों का जुटान भर है, जिसका न कोई दृष्टिकोण है, न दिशा। ये ठीक वैसे ही है, जैसे सीता के स्वयंवर में शिव धनुष उठाने में असफल रहे लोगों का झुंड। याद कीजिए वो सीन, जब कोई भी शिव धनुष हिला तक नहीं पाया था तो आख़िर में सभी राजाओं ने मिलकर उसे उठाने का प्रयास किया। फिर भी वह धनुष टस से मस नहीं हुआ। सोचिए अगर उठ जाता तो क्या होता? सीता का विवाह किससे होता? क्या एक सीता के हज़ारों पति होते? आज महागठबंधन की स्थिति ऐसी ही है। सब जनता द्वारा ठुकराए लोग एक जगह इकट्ठा हैं। पर कौन उनका नेता है? विकास का मॉडल क्या है? गर गलती से महागठबंधन चुनाव जीत गया तो सब मिलकर प्रधानमंत्री और अपने पसंद के मंत्रालय के लिए टूट पड़ेंगे। फिर महा-घोटालों और लूट का ऐसा खेल चलेगा कि शायद ही यह देश पुनः कभी खड़ा हो पाएगा?
एक द्रौपदी और पाँच पाण्डव होने की गलती ही महाभारत जैसे महाविनाशक युद्ध का आधार थी। अपने इतिहास से सबक लेने वाला ये देश शायद ही अब इन नेताओं के छलावे में आए। सोशल मीडिया के दौर में आज के मतदाता की नज़र इनकी हर एक नाटक-नौटंकी पर है।
इस देश की बागडोर ऐसे हाथों में हो, जिसके अंदर अटूट धैर्य, दृढ़ता, एकाग्र-निष्ठा और पूर्ण शांति हो। जो देश की उन्नति और विकास के लिए हर पल जी-जान से कार्यरत होने का संकल्पी हो। न कि महज़ अपने कुटुम्ब का उत्थान ही उसका सपना हो, जिसे वो देश के माथे पर थोप देना चाहता हो।
ऐसे में आज जब ये महा-स्वार्थी नेतागण अपने निहित राजनीतिक स्वार्थों के वशीभूत हो कर आए दिन आंदोलन, अनशन, सत्याग्रह करने बैठते हैं और ऐसी जगह चुनते है जहाँ इन्हें भरपूर लोकप्रियता प्राप्त हो। तो क्या उनमें सचमुच उपरोक्त सारे गुण दिखाई देते हैं? हर धरनागत नेता अपने आप को गाँधी का अनुआई कहने लगता है! और तो और, कुछ लोगों को तो “प्रति गांधी” भी कहा जाता है, तो LoL वाली हँसी आने लगती है।
स्पष्ट है कि ये सभी नेता गाँधी जी की नकल करते हुए आज खुद इतने नकली हो चुके हैं कि इनके कथनी और करनी में आसमान-ज़मीन का अंतर आ गया है। अब ये कुछ भी कहें, वह प्रतीत महा-झूठ ही होता है। अफ़सोस पर सत्य यही है कि महा-झूठ के साथ महा-गठबंधन का बंधन दिन-प्रतिदिन अटूट ही होता जा रहा है।
आज के स्वार्थी नेताओं को यह याद दिलाना चाहूँगा कि नकल होती तो नकल ही है। गाँधी जी के प्रति कितने भी अलग-अलग विचार क्यों न हो, पर मुझे लगता है कि गाँधी जी जैसे महामानव धरती पर कभी-कभार ही आते हैं, बार-बार नहीं। इसलिए महागठबंधन के इन आडम्बरी नेताओं का रवैया मुझे तो बिल्कुल ही गलत लगता है। यह कुछ और नहीं, बल्कि जन-आंदोलनों की समस्त ऊर्जा का गला घोंट देने का कुत्सित कार्य भर करते हैं। गाँधी के अर्थों वाले आंदोलन, अनशन, सत्याग्रह की कसौटी पर शायद ही आज इनमें से कोई खरा उतर सकता है। क्योंकि आंदोलन, अनशन, सत्याग्रह के पीछे गाँधी जी की पूर्ण निष्ठा और देश के प्रति समर्पण की भावना थी। उन सब के पीछे देश और देशवासियों की तरक्की का विचार था। जबकि आजकल के इस महा-नाटक में घोर राजनीतिक स्वार्थ और संकीर्ण मानसिकता नज़र आती है। ये पूरा गिरोह एक बार फिर से देश को लूट लेने की साजिस का हिस्सा है, और यही इस महागठबंधन की वास्तविकता है।
गर आज गाँधी जी ज़िन्दा होते तो एक अनशन और करते… कि देश में कोई और अनशन न करे।