‘द प्रिंट’ में एक लेख आया है, जिसमें मुस्लिम समाज के ‘सबसे महत्वपूर्ण मानस’ नमाज की बात करते हुए कहा गया है कि हिंदुत्व की राजनीति ने नए दावों से तमाशा खड़ा कर दिया है, ताकि इसे निशाना बनाया जा सके। सपाट शब्दों में कहें तो इस लेख में सड़क पर नमाज का बचाव किया गया है। कल को आपने घर में घुस कर भी कोई नमाज पढ़ेगा तो ‘द प्रिंट’ लेख लेकर आएगा कि क्यों ‘मुस्लिम मानस’ के लिए आपको अपने घर को मस्जिद में तब्दील कर देना चाहिए।
लेकिन, इस बीच ‘हिन्दू मानस’ का क्या? सरेआम चौराहों पर गायों को काटने वाले, गौ तस्करी करने वाले और गाय की पूजा करने वालों की भावनाओं को ठेस पहुँचाने वाले सदियों से यही काम तो करते आ रहे हैं। तब कभी सोचा गया क्या कि इससे हिन्दुओं की भावनाओं का क्या होगा? हिन्दुओं ने तो न कभी सड़क के अतिक्रमण को बढ़ावा दिया है और न ही किसी के घर में जबरन घुस कर पूजा करने की चेष्टा की है। हमारे 30,000 मंदिरों को तोड़ डाले जाने के बावजूद कभी हमारे लिए तो लेख नहीं लिखे गए इस तरह?
अब बताया जा रहा है कि नमाज हिन्दू विरोधी कृत्य नहीं है और हर भारतीय को इसका बचाव करना चाहिए। ये वही लोग हैं, जो ‘मूर्तिपूजा’ को ‘बुतपरस्ती’ कहते हैं और प्रतिमाओं को खंडित करने में अपनी भलाई समझते हैं। इसका नमूना हमने हाल ही में बांग्लादेश में देखा, जहाँ सैकड़ों पूजा पंडालों पर मुस्लिम भीड़ का कहर बरपा और मंदिरों में आग लगाई गई। मुस्लिमों ने ही कुरान का अपमान किया और इसका इल्जाम हिन्दुओं पर मढ़ने के लिए झूठी अफवाह फैलाई और फिर हिंसा की।
इस लेख को ‘राजनीतिक इस्लाम’ के कथित विद्वान और प्रोफेसर हिलाल अहमद ने लिखा है। वो गुरुग्राम में नमाज में बाधा डालने से खुद को क्षुब्ध बताते हैं। लेकिन, वो ये नहीं बताते कि सार्वजनिक जगह पर नमाज पढ़ने की अनुमति क्यों दी जानी चाहिए और नमाज को ट्रैफिक में बाधा क्यों नहीं माननी चाहिए। विरोध नमाज का नहीं हो रहा है, सरकारी जमीन पर और ट्रैफिक जाम कर के सड़क ब्लॉक करने का हो रहा है। नमाज आप दिन भर पढ़िए घर में बैठ कर, कोई आपत्ति नहीं करेगा।
वो ‘सर्वधर्म समभाव’ पर विश्वास करने की बड़ी-बड़ी बातें करते तो करते हैं, लेकिन साथ ही अल्लाह को सर्वशक्तिमान बताते हुए इस बात का जवाब नहीं दे पाते कि हिन्दू हनुमान चालीसा पढ़ दे तो ये ‘बाधा’ और मुस्लिम भीड़ सड़क पर नमाज पढ़े तो ये ‘प्रार्थना’ कैसे हुई? उनका कहना है कि वो चलती हुई ट्रेन में, व्यस्त गलियों में, अस्पतालों में और यहाँ तक कि कई सक्रिय हिन्दू मंदिरों में भी नमाज पढ़ चुके हैं। उन्हें इस पर गर्व है। वो इसे अपनी उपलब्धि बताते हैं।
फिर मस्जिद किसलिए है? अगर नमाज मंदिरों में पढ़ना है तो फिर मस्जिद का औचित्य ही क्या है? अगर व्यस्ततम दिल्ली-कोलकाता राष्ट्रीय राजमार्ग 2 को रोक कर सड़क पर घंटों यज्ञ किया जाए और ट्रैफिक जाम रखा जाए, तो क्या ये मुस्लिम समुदाय को स्वीकार्य होगा? मंगलवार के मंगलवार हनुमान चालीसा हो और इसके लिए सभी सार्वजनिक जगहों पर कामकाज रुक जाए तो क्या मुस्लिम ‘विद्वान’ इसकी आलोचना नहीं करेंगे? क्या मस्जिदों में यज्ञ-हवन, आरती, हनुमान चालीसा पढ़ने और पूजा-पाठ की अनुमति दी जा सकती है?
कभी नहीं। इसका सीधा अर्थ है कि मुस्लिम समुदाय के ये ‘विद्वान’ अभी भी अपने क्रूर शासन की मानसिकता से निकले नहीं हैं और हिन्दुओं को ‘धिम्मी’ समझते हैं। ‘धिम्मी’, अर्थात मुस्लिम साम्राज्य में रहने वाले गैर-मुस्लिम, जो अपने ‘तन पर सर को जुदा होने से बचाने’ के लिए जजिया कर और जकात देते हैं। मुस्लिमों के सामने सिर झुकाना जिसके लिए अनिवार्य है। यही तो वो सोच है, जो कहती है कि मंदिरों में नमाज होगी लेकिन मस्जिदों में यज्ञ-हवन नहीं हो सकता। सड़कें नमाज के लिए हैं, लेकिन हनुमा चालीसा वहाँ नहीं पढ़ा जा सकता।
उन्होंने अपने रिसर्चों का हवाला देते हुए कहा है कि हिन्दू आज भी बड़ी संख्या में नमाज को सम्मान देते हैं और दूसरे मजहब का आदर करने वाला हिन्दू नहीं हो सकता, ऐसी भावना है। फिर सार्वजनिक जगह मजहबी गतिविधियों के लिए नहीं हैं – ये भावना मुस्लिम क्यों नहीं विकसित करते? लेख में वो कहते हैं कि मुस्लिमों की जनसंख्या बढ़ी है और मस्जिदें कम पड़ रही हैं, इसीलिए सड़क पर नमाज होनी चाहिए। क्या अब ‘जनसंख्या जिहाद’ और धर्मांतरण का भार भी भारत ही वहन करे?
भारत में 3 लाख से भी अधिक मस्जिदें हैं। क्या ये संख्या कम है? अरब, जहाँ से इस्लाम का जन्म हुआ, वहाँ के सऊदी अरब में गाड़ी रोक कर किसी भी व्यक्ति के नमाज पढ़ने पर प्रतिबंध है। जब इस्लामी मुल्क ही ये नियम नहीं चला रहे तो फिर सनातनी भारत क्यों झूठा सेक्युलरिज्म का दिखावा करे, जिससे यहाँ के बहुसंख्यकों और अन्य अल्पसंख्यकों को परेशानी हो? इंडोनेशिया में मस्जिदों पर लगे लाउडस्पीकर की आवाज़ कम की गई है। भारत में ऐसा कानून बना तो फिर से लोग बताने आ जाएँगे कि इस्लाम में उसका क्या महत्व है।
बात ये है कि जब हिन्दुओं के 30,000 मंदिर तोड़ डाले जाते हैं और बाकियों पर सरकारें कब्ज़ा कर के उनका पैसा खाती है तो हमें ‘सेक्युलरिज्म’ याद दिलाया जाता है और कहा जाता है कि वेद-पुराण-उपनिषद और रामायण-महाभारत की बात मत करो, क्योंकि ये देश संविधान से चलता है। जब बात मुस्लिमों के सड़क जाम कर नमाज पढ़ने और दिन में 5 बार लाउंडस्पीकर से क्षेत्र में रहने वाले लोगों को परेशान करने के खिलाफ होती है, तब ‘सेक्युलरिज्म’ भूल कर इस्लाम के इतिहास, मानस और पुस्तकों में क्या लिखा है – ये समझाया जाने लगता है।
‘द प्रिंट’ के इस लेख में राम मंदिर का भी नाम लिया गया है और उसके निर्माण के बाद की एक अलग दुनिया की बात की गई है। बद्रीनाथ धाम में नमाज का समर्थन किया गया है और इसके विरोध को ‘छुआछूत’ से जोड़ कर ब्राह्मणों को गाली दी गई है। ये तो ट्रेंड है। जब इस्लाम का नियम इस्लाम के हिसाब से चलता है, फिर मंदिरों का नियम भी इस्लाम के हिसाब से ही चले? मंदिरों में नमाज हो, सड़क पर नमाज हो और मस्जिदों में नमाज हो तो फिर पूजा कहाँ करेंगे हिन्दू अपने ही देश में?
इस्लाम को इसमें ‘भारतीय मजहब’ बताया गया है। फिर अरब से यहाँ आक्रमण करने कौन लोग आए थे? कोरोना के दौरान जब देश के हजारों मंदिर गरीबों को भोजन देने और पीएम केयर में मदद करने में लगे हुए थे, मौलवियों ने मस्जिदों को बंद करने से इनकार कर दिया था और निजामुद्दीन मरकज ने कोरोना फैलाया। इस लेख का सीधा सा जवाब है – किसी भी मजहबी गतिविधि के लिए अन्य लोगों को तकलीफ पहुँचाया गया तो वो आवाज़ उठाएँगे ही। सैकड़ों वर्ष से बर्दाश्त किया तो अब भी करें – ऐसा नहीं होगा। अब हिन्दू ‘धिम्मी’ बन कर नहीं रहना चाहते। उनसे जजिया मत माँगो।