भारत में कृषि सुधारों पर केंद्र सरकार द्वारा उठाए गए कदम राजनैतिक गतिरोध एवं विवाद का मुद्दा बन गए है। संसद द्वारा पारित तीन कृषि कानूनों के खिलाफ विरोध जताने के लिए कॉन्ग्रेस शासित पंजाब राज्य के किसान दिल्ली में डेरा जमाए हुए हैं। दूसरी तरफ, कॉन्ग्रेस सहित वामपंथी एवं अन्य विपक्षी दल लगातार केंद्र सरकार पर इन कानूनों को वापस लेने का दवाब बना रहे हैं।
केंद्र में चाहे किसी की भी सरकार हो– जब कोई विधेयक संसद के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है, तो पहले उसे एक लम्बी संवैधानिक प्रक्रिया से होकर गुजरना पड़ता है। कृषि में सुधार के लिए लागू कानून कोई एक ही रात के ‘तुगलकी फरमान’ नहीं थे। बल्कि लोकतांत्रिक प्रक्रिया के तहत संसद द्वारा पारित किए गए थे। दरअसल, किसानों की आय में बढ़ोत्तरी, बिचौलियों से राहत, और अनावश्यक लालफीताशाही से उन्हें निकालने की माँग वर्षों पुरानी है। बस जरुरत एक ठोस निर्णय पर पहुँचने की थी, जिसे वर्तमान केंद्र सरकार ने साकार कर दिया।
भारतीय कृषि में बड़े पैमानें पर सुधारों की चर्चा को गति जुलाई 2004 में यूपीए (I) सरकार के दौरान मिलनी शुरू हुई। हालाँकि, मनमोहन सिंह सरकार को राष्ट्रहित के मामलों पर टालमटोल करने और उन्हें लंबित करने में महारत हासिल थी। धीरे-धीरे सरकार में भ्रष्टाचार व्याप्त हो गया और हर मुद्दे पर अलोकप्रिय होने का डर हावी होने लगा था। अतः इस सरकार ने कृषि सुधारों सहित रक्षा सौदे, आतंकवाद पर रोकथाम, आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था और विदेश नीति सम्बन्धी अनेक मामलों को लटकाए रखा। यूपीए (I) सरकार के गठन के एक महीने के अन्दर यानि 19 जुलाई, 2004 को लोकसभा में कृषि सुधारों पर एक सवाल कृषि मंत्री से पूछा गया था। इसपर तत्कालीन कृषि राज्य मंत्री कांतिलाल भूरिया ने मंडी शुल्क खत्म करने, निजी क्षेत्र द्वारा उच्च तकनीक प्रदान करना, प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थों के लिए यूनिफाइड फूड लॉ, विदेशी खरीददारों को चिन्हित करना, और निजी क्षेत्र को निवेश के लिए प्रोत्साहित करने वाला पॉंच स्तर वाला कृषि सुधारों का एक खाका पेश कर दिया।
एक साल बीत गया लेकिन जमीन पर कोई हालत में बदलाव नहीं आया। अतः कांतिलाल भूरिया ने लोकसभा के समक्ष 22 अगस्त, 2005 को एक प्रश्न का जवाब देते हुए कहा, “मौजूदा कृषि उपज विपणन समिति कानून किसान को सीधे उत्पादक से संपर्क करने में बाधा उत्पन्न करता है। उसे अपना माल लाइसेंसधारी व्यापारियों एवं मंडियों के माध्यम से ही बेचना पड़ता है। ऐसा ही फलों एवं सब्जियों के मामले में भी होता है। इस दौरान किसान से लेकर फुटकर विक्रेता के बीच इतने बिचौलिए होते है कि किसान को अंतिम उपभोक्ता मूल्य तक 30 प्रतिशत तक का नुकसान उठाना पड़ता है।” इन दो उदाहरणों से स्पष्ट है कि यूपीए (I) सरकार को किसानों की समस्याएँ और उनके उनके माल की उचित कीमत नहीं मिलने का अंदाजा था। इस संदर्भ में वे लोकसभा में लगातार बयान भी दे रहे थे। सरकार समस्या और उसका समाधान दोनों बता रही थी, लेकिन उसे किसानों तक पहुँचाने की प्रतिबद्धता एवं दृष्टिकोण उसके पास नहीं था।
साल 2005-06 में कृषि पर संसद की स्टैंडिंग कमेटी ने भी कृषि सुधार के दर्जनों सुझाव पेश किए। जैसे सरकार के पास फसल का उचित भंडारण एवं गोदाम नहीं थे इसलिए किसानों को अपनी फसल सस्ते दामों में बाहर बेचनी पड़ रही थी। अतः भंडारण की आधुनिक और वृहद व्यवस्था के लिए निजी निवेश को लाने की बात कही गई। साथ ही कमेटी ने स्वीकार किया कि कई बार किसानों को फसल का दाम एमएसपी (MSP) से अच्छा निजी खरीददारों से मिल जाता है। उसी साल गेहूँ का एमएसपी 650 रुपए प्रति क्विंटल तय किया गया और उसपर 50 रुपए का अतिरिक्त बोनस भी दिया गया था। हालाँकि, किसानों ने अपनी फसल निजी व्यापारियों को बेचीं क्योंकि वहाँ उन्हें 800 रुपए प्रति क्विंटल का दाम मिल रहा था।
इसी दौरान, सरकार ने निश्चय कर लिया कि भंडारण के अतिरिक्त अगर किसान को उसकी फसल का दाम निजी व्यापारियों से अच्छा मिलता है तो वह वहाँ बेचने के लिए स्वतंत्र होगा। तत्कालीन कृषि मंत्री शरद पवार ने 24 अप्रैल, 2012 को लोकसभा में यह सूचना दे दी थी। किसानों मिलने वाली नयी राहतों और सुधारों की जमीन पर हकीकत बिलकुल नगण्य थी। दरअसल, केंद्र सरकार एकतरह से खानापूर्ति के लिए बयानबाजी कर रही थी। खेतों में फसल के उत्पादन से लेकर उसे मंडियों में उचित दामों में बेचना इतना भी आसान नहीं था। केंद्र-राज्य सरकारों के कानून, अध्यादेश अथवा मंडी समितियों के स्थानीय व्यवस्थाओं में ही किसान फंस कर रह जाता था। सिर्फ लोकसभा अथवा राज्यसभा में कहने भर से काम नहीं चल सकता था। इसलिए व्यवस्थित तौर पर कानूनों की आवश्यकता थी।
इस क्रम में साल 2017 में फिर से प्रयास शुरू हुए। भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार ‘मॉडल एपीएमसी एंड कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग एक्ट’ लेकर आई जिसके अंतर्गत किसानों की उपज का मुक्त व्यापार, विपणन चैनलों के माध्यम से प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा देना, और पूर्व-सहमत अनुबंध के तहत खेती को बढ़ावा देना शामिल था। साल 2018-19 में 31 लोकसभा और राज्यसभा सदस्यों वाली कृषि पर संसद की स्टैंडिंग कमेटी ने बताया कि ‘मॉडल एपीएमसी एंड कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग एक्ट’ को लेकर राज्यों में अधिक रूचि देखने को नहीं मिल रही है।
कमेटी के सुझाव पर जुलाई 2019 में सात राज्यों के मुख्यमंत्रियों की एक उच्चस्तरीय सीमिति बनाई गई। इसके संयोजक देवेन्द्र फडणवीस (महाराष्ट्र) और सदस्यों में एच.डी. कुमारस्वामी (कर्नाटक), मनोहरलाल खट्टर (हरियाणा), पेमा खांडू (अरुणाचल प्रदेश), विजय रूपानी (गुजरात), योगी आदित्यनाथ (उत्तर प्रदेश), कमल नाथ (मध्य प्रदेश), और नरेन्द्र सिंह तोमर (केंद्रीय कृषि मंत्री) और नीति आयोग के सदस्य रमेश चंद को सदस्य-सचिव बनाया गया। इस प्रक्रिया के तहत, सबके सुझावों को समाहित करते हुए 5 जून, 2020 को कृषि सुधार से सम्बंधित तीन अध्यादेश जारी कर दिए गए। जिन्हें संसद द्वारा इसी साल सितम्बर में पारित कर दिया गया। आखिरकार भारत के राष्ट्रपति ने भी उनपर अपनी मुहर लगा दी।
अब विडम्बना देखिए, लगभग 15 सालों के बाद कृषि सुधार के लिए कोई कानून बनाये गए, तो आम जन-जीवन को प्रभावित करने के लिए सड़कों को बाधित किया जाने लगा। विपक्षी दलों द्वारा अराजक तरीके से कानूनों की प्रतियाँ विधानसभाओं में फाड़ दी गई। सामाजिक वैमनस्य फैलाने के लिए उत्तेजक एवं भड़काऊ भाषण दिए गए। सोशल मीडिया के माध्यम से भ्रमित और झूठी खबरों को फैलाया गया। कॉन्ग्रेस शासित राज्य सरकारों ने विशेष विधानसभा सत्र बुलाकर कानूनों के बहिष्कार का निर्णय लिया।
जब कृषि सम्बन्धी तीन विधेयक संसद के समक्ष रखे गए तो सभापति के समक्ष नारेबाजी की गई, माइक तोड़े गए, और सदन का बहिष्कार भी किया गया। संसदीय समितियों की बैठकों में अनुपस्थित रहना एक सामान्य सी बात हो गयी है। जिसपर शायद ही किसी का ध्यान जाता होगा। इस तरह देश एक हित में नीतिगत फैसलों का विरोध एक सस्ती लोकप्रियता हासिल करने के लिए किया गया।
जब कॉन्ग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए (I) और (II) के पास सत्ता थी तो उसके पास किसानों को मजबूत और स्थाई तौर पर राहत देने के लिए पूरे 10 साल का समय था। जोकि उन्होंने एक के बाद एक बयानबाजी कर गँवा दिया। ऐसा नही था कि कॉन्ग्रेस के एजेंडे में किसान हित शामिल नही थे।
बस कृषि सुधार उनके प्राथमिक कार्यों में शामिल नही थे। अब वर्तमान केंद्र सरकार को मौका मिला तो उन्होंने किसान के हितों की रक्षा के लिए ठोस पहल कर दी। अब थोड़ा सब्र रखने की आवश्यकता है। इन कानूनों का धरातल पर उतरने के बाद ही उनका विश्लेषण किया जा सकता है। उससे पहले, केंद्र और राज्यों के संबंधों को कमजोर करना अथवा संसद द्वारा पारित कानूनों को फाड़ना कोई लोकतांत्रिक अधिकार नही बल्कि अराजकता है।