इक्कीसवीं सदी में यदि कोई समाज लोकतंत्र की अपेक्षा राजतन्त्र पर अधिक विश्वास करे तो उस समाज के बारे में कैसी धारणा बनेगी? शायद उसे पिछड़ा कहा जाए या फिर यह कहा जाए कि उसे वर्तमान विश्व और वैश्विक राजनीतिक व्यवस्था की समझ नहीं है। पर ऐसा एक समाज है और विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत में है। यह समाज बस्तर के भूतपूर्व राजा प्रवीर चंद्र भंजदेव का समाज है जो अपने राजा को न केवल अपना भगवान मानता है, बल्कि उसे यह विश्वास भी है कि यदि 1966 में उनकी हत्या न हुई होती तो बस्तर की सामाजिक व्यवस्था, आर्थिक विकास और राजनीतिक इतिहास कुछ और होता। बस्तर तब नक्सली आंदोलन का शिकार न होता और न ही जिले के प्राकृतिक संसाधनों का निर्दयता के साथ दोहन होता।
फिल्मकार विवेक कुमार की शॉर्ट फिल्म ‘आइ प्रवीर द आदिवासी गॉड (I Pravir the Adivasi God)’ हमें बस्तर के भूतपूर्व राजा प्रवीर चंद्र भंजदेव के बारे में बताती है, जिनकी 1966 में पुलिस फायरिंग में मृत्यु हो गई थी। वे अपनी प्रजा के लिए तब की सरकार से लड़ रहे थे। यह राजा और उनकी प्रजा के बीच के रिश्तों के बारे में भी बताती है। प्रवीर चंद्र भंजदेव काकातिया राजघराने की ही एक शाखा के राजा थे, जिन्हें बस्तर के आदिवासी आज भी पूजते हैं और ऐसा मानते हैं कि बस्तर जो भी है उन्हीं के कारण है। फिल्म में आज के बस्तर के आदिवासी अपने राजा को याद करते हुए यहाँ तक कहते हैं कि आज भले ही देश में लोकतांत्रिक व्यवस्था है पर राजा अपने लोगों और उनकी आकांक्षाओं को अधिक समझते थे।
फिल्म बस्तर के ऐसे लोगों से मिलाती है जो यह मानते हैं कि भले ही लोकतांत्रिक व्यवस्था में विकास हुआ है पर उसका जितना फायदा आदिवासियों को होना चाहिए उतना नहीं हुआ। राजा आदिवासियों के हितों के बारे में अधिक सोचते और समझते थे। यही कारण है कि आदिवासियों के घरों में आज भी राजा प्रवीर चंद्र की फोटो पाई जाती है और ये आदिवासी उनकी पूजा करते हैं। पाँच दशक बीत जाने के बाद भी प्रजा के मन में अपने राजा के लिए जो आदर है वह राजा प्रवीर चंद्र के बारे में बहुत कुछ बताता है। इन स्थानीय आदिवासियों का तो यह मानना है कि यदि पुलिस फायरिंग में उनकी मृत्यु न हुई होती तो बस्तर में नक्सली संघर्ष की शुरुआत नहीं होती।
राजा प्रवीर चंद्र भंजदेव अविभाजित मध्य प्रदेश में जगदलपुर से विधायक भी थे। वे आदिवासियों के हितों को लेकर मुखर भी थे और उनका यह मानना था कि जिले के प्राकृतिक संसाधनों पर स्थानीय आदिवासियों का हक़ सबसे अधिक है। आदिवासियों के इन्हीं हितों के लिए वे तत्कालीन सरकार के विरुद्ध खड़े हुए थे। तत्कालीन सरकार के साथ अपनी लड़ाई के दौरान ही 25 मार्च 1966 की रात पुलिस फायरिंग में उनके ही महल में उनकी मृत्य हो गई थी। साथ ही उनके सात समर्थकों की मृत देह मिली थी। इस घटना की एक सदस्यीय जाँच में प्रशासन की आलोचना तो की गई पर घटना के लिए किसी को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सका था। अविभाजित मध्य प्रदेश में जब यह घटना हुई थी तब द्वारका प्रसाद मिश्र के नेतृत्व में कॉन्ग्रेस की सरकार चल रही थी।
ये बातें तो इस शॉर्ट फिल्म का हिस्सा हैं जिसमें प्रमुख रूप से एक राजा और उसकी प्रजा, समर्थकों और समाज के बीच के संबंधों को देखने का प्रयास किया गया है पर यदि इस फिल्म से हटकर भी देखा जाए तो पुलिस फायरिंग में राजा प्रवीर चंद्र भंजदेव की मृत्यु के पाँच दशक पश्चात आज जब बात होती है तो यही कहा जाता है कि यदि ऐसा न हुआ होता तो नक्सलवाद शायद बस्तर में इस तरह से न पनपता। इस धारणा को अनुमान बताकर भले नकारा जा सकता है पर ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखें तो बात गलत नहीं लगती।
बस्तर में हुई इस घटना की एक पृष्ठभूमि है। 1961 में भी जब प्रवीर चंद्र भंजदेव आदिवासियों और समर्थकों की अगुवाई में स्थानीय हितों को लेकर सरकार का विरोध कर रहे थे तब भी तत्कालीन सरकार ने उसे रोकने के लिए पुलिस फायरिंग का सहारा लिया था और उसमें उनके 12 समर्थकों की मृत्यु हो गई थी। इसके साथ ही राजा प्रवीर चंद्र भंजदेव को गिरफ्तार कर लिया गया था। तत्कालीन मुख्यमंत्री कैलाश काटजू (जगप्रसिद्ध जस्टिस मार्कंडेय काटजू के दादा जी ) ने जाँच की माँग ठुकरा दी थी। बस्तर में हुई इस पुलिस फायरिंग का जिक्र कई जगह मिलता है, क्योंकि घटना को लेकर तब के पत्रकार ही नहीं बल्कि साहित्यकारों ने भी लिखा है।
हाँ, उस प्रशासनिक कार्रवाई या पुलिस फायरिंग के बारे में बहुत अधिक चर्चा नहीं होती जिसमें राजा प्रवीर चंद्र भंजदेव की मृत्यु हुई थी। तत्कालीन सरकार या प्रशासन को जिम्मेदार ठहराने की बात पर बहुत कुछ कहा या लिखा हुआ नहीं मिलता। तत्कालीन विपक्ष द्वारा तीव्र विरोध की बात अवश्य मिलती है। घटना के बाद संसद में विपक्ष के नेता अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा दिए गए भाषण में पुलिस को जिम्मेदार ठहराने की बात सामने आती है। उसके साथ ही ऐतिहासिक तथ्य यह बताते हैं कि राजा प्रवीर चंद्र भंजदेव का अंतिम संस्कार बिना उनके परिवार की उपस्थिति के ही कर दिया गया और परिवार को केवल उनके कपड़े थमा दिए गए थे। प्रशासन ने दिल्ली से उनकी धर्मपत्नी की वापसी तक भी इंतज़ार करना उचित नहीं समझा था। यह एक ऐसी बात है जिसका मलाल आज भी वहाँ के आदिवासियों में पाया जाता है।
यह अनुमान का विषय रहेगा कि पुलिस फायरिंग में राजा प्रवीर चंद्र भंजदेव की मृत्यु न हुई होती तो बस्तर कैसा होता। पर यह ऐतिहासिक घटना बताती है कि केंद्र या राज्य स्तर पर तत्कालीन कॉन्ग्रेस पार्टी का नेतृत्व कैसा था तथा शासन, प्रशासन और समस्याओं को लेकर पार्टी का दृष्टिकोण क्या रहा होगा। लोकतान्त्रिक प्रक्रियाओं को आगे रखकर राजनीति करने वाले पार्टी का लोकतंत्र में विश्वास किस स्तर का था या आज है, वह काफी हद तक देश के सामने है। इसलिए आवश्यकता है कि समय -समय पर ऐसी ऐतिहासिक तथ्यों और घटनाओं पर बात हो जिनके बारे में चर्चा की कमी दिखाई देती रही है।