भारतीय संविधान, यानी की दुनिया का सबसे बड़ा संविधान। जब-जब संविधान की बात की जाती है, तब-तब चर्चा होती है बाबा साहेब डॉक्टर भीमराव अंबेडकर की। उन्हें संविधान निर्माता भी कहा जाता है, लेकिन महान दलित नेता भी रहे हैं। आज जन-जन के हृदय में बसने वाले डॉक्टर भीमराव अंबेडकर को भी उस दौरान राजनीति का शिकार होना पड़ा था।
डॉक्टर अंबेडकर के खिलाफ कुछ इस तरह की राजनीतिक साजिश की गई कि वह संविधान सभा के सदस्य ही ना बन पाएँ। जिस व्यक्ति को आज समाज भारत के संविधान निर्माता के तौर पर देखता है, उस व्यक्ति को पहले संविधान सभा उसके बाद लोकसभा में पहुँचने नहीं देने की साजिश रची गई। इसका आरोप तत्कालीन कॉन्ग्रेस सरकार और उसके मुखिया पंडित जवाहरलाल नेहरू के ऊपर लगाता रहा है।
इसकी शुरुआत होती है देश के बन रहे संविधान सभा में डॉक्टर अंबेडकर को नहीं पहुँचने देने से। कॉन्ग्रेस ने उस समय कुछ ऐसा किया कि डॉक्टर अंबेडकर अपने गृह प्रदेश महाराष्ट्र से संविधान सभा में ना पहुँच सके। हालाँकि, डॉक्टर अंबेडकर कहाँ हार मानने वाले थे। वो अपने सहयोगी और बंगाल के दलित नेता योगेन्द्र नाथ मंडल के सहयोग से संविधान सभा के सदस्य बन गए।
जी हाँ, डॉक्टर भीमराव अंबेडकर बंगाल के जिस क्षेत्र से संविधान सभा के सदस्य बने थे, उस क्षेत्र को हिंदू बहुल होने के बावजूद पंडित जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व वाली सरकार के द्वारा एक समझौते में पाकिस्तान में शामिल करा दिया गया था। अब अंबेडकर की सदस्यता पर खतरा मंडराने लगा। किसी तरह से डॉक्टर अंबेडकर ने अपनी संविधान की सदस्यता बचाई और महाराष्ट्र से सदन में पहुँचे।
बाबा साहेब संविधान सभा में प्रारूप समिति के अध्यक्ष बने। जगजीवन राम की पत्नी इंद्राणी जगजीवन राम ने अपने संस्मरण में लिखा है कि भीमराव अंबेडकर ने उनके पति यानी जगजीवन राम को स्वतंत्र भारत में पंडित नेहरू के मंत्रिमंडल में शामिल करने के लिए महात्मा गाँधी से पूछने के लिए राजी किया था। आगे चलकर बाबू जगजीवन राम देश में उप प्रधानमंत्री बने।
साल 1951 के अंत में पंडित जवाहरलाल नेहरू की सरकार में कानून मंत्री रहने के दौरान डॉक्टर अंबेडकर ने मुस्लिमों की अपेक्षा हिंदुओं को नजरअंदाज करने, हिंदू कोड बिल लाने और उनकी कश्मीर नीति पर प्रश्नवाचक चिन्ह लगाते हुए इस्तीफा दे दिया। बाबा साहेब आर्टिकल 370 के प्रबल विरोधी और समान नागरिक संहिता (UCC) के समर्थक थे ।
इसके बाद कॉन्ग्रेस पार्टी ने डॉक्टर भीमराव अंबेडकर को अपने निशाने पर ले लिया। साल 1952 में देश में पहला आम चुनाव हुआ। उस समय डॉक्टर अंबेडकर ने शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन पार्टी से उत्तरी मुंबई से चुनाव लड़ना चाहा। तब कॉन्ग्रेस ने उनके खिलाफ राजनीतिक साजिश रचते हुए उनके पीए रह चुके एनएस कजरोलकर को उम्मीदवार बनाया।
काजरोलकर दूध का कारोबार करने वाले एक नौसिखिए नेता थे। उस समय के मशहूर मराठी पत्रकार पीके अत्रे ने एक नारा गढ़ा था जो उस वक्त काफी मशहूर हुआ था…”कुथे तो घटनाकर अंबेडकर, आनी कुथे हा लोनिविक्या काजरोलकर”। इसका मतलब था: कहाँ संविधान के महान निर्माता अंबेडकर और कहाँ नौसिखिया दूध बेचने वाला काजरोलकर।
दो बैलों के जोड़ी चुनाव चिह्न वाली कॉन्ग्रेस के मुखिया पंडित जवाहरलाल नेहरू चुनाव के दौरान दो बार अंबेडकर के खिलाफ प्रचार करने गए। इसका परिणाम ये हुआ कि जिस व्यक्ति को इस देश में संविधान निर्माता की उपमा दी जाती है, वह संविधान के तहत होने वाले देश के पहले आम चुनाव में वह व्यक्ति न सिर्फ चुनाव हार गया, बल्कि चौथे नंबर पर रहा।
यह भी देश के लोकतंत्र का एक दुखद सत्य है। ऐसा लगता है कि बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर की विद्वता और अस्मिता को उस समय के कॉन्ग्रेसी नेता नीचा दिखाना चाहते थे। कॉन्ग्रेस नहीं चाहती थी कि बाबा साहेब दलितों के नेता के रूप में स्थापित हों। इसीलिए उन्होंने सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग करके बाबा साहेब अंबेडकर को हरा दिया।
इसके बावजूद डॉक्टर अंबेडकर ने हार नहीं मानी। वहीं, कॉन्ग्रेस उनके पीछे लगातार पड़ी रही। 2 साल के बाद साल 1954 में महाराष्ट्र के ही भंडारा में जब उपचुनाव हुए तो डॉक्टर अंबेडकर ने एक बार फिर से चुनाव में नामांकन किया, ताकि वे लोकसभा पहुँच सकें। दूसरी तरफ़ पंडित नेहरू और उनकी कॉन्ग्रेस ने डॉक्टर अंबेडकर को हराने में अपनी पूरी ऊर्जा लगा दी।
इसका ये परिणाम हुआ कि डॉक्टर भीमराव आंबेडकर तीसरे नंबर पर रहे। इस तरह उनके राजनीतिक जीवन को बर्बाद करने के लिए कॉन्ग्रेस ने कोई कसर नहीं छोड़ी। दुखद ये है कि डॉक्टर अंबेडकर के यह जीवन का अंतिम चुनाव था। साल 1957 में होने वाले देश के दूसरे लोकसभा चुनाव से पहले यानी साल 1956 में डॉक्टर अंबेडकर इस दुनिया को अलविदा कह दिए।
आज देश के लगभग समस्त राजनीतिक दल डॉक्टर अंबेडकर की महिमा का गान कर रहे हैं। ऐसे समय में यह भी जानना अति आवश्यक है कि पंडित जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गाँधी ने अपने कार्यकाल के दौरान ही खुद को भारत रत्न से नवाज दिया। वहीं, डॉक्टर भीमराव अंबेडकर को भारत रत्न तब मिला, जब इस देश में भाजपा के समर्थन से जनता दल की सरकार बनी।
इस सरकार के दौरान ही उनकी मृत्यु के लगभग 44 वर्षों के बाद संविधान के निर्माता और दलितों के मसीहा कहे जाने वाले डॉक्टर भीमराव अंबेडकर को संसद के सेंट्रल हॉल में स्थान मिला। वहाँ उनकी एक फोटो स्थापित हो पाई। इसके बाद जब नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा की सरकार बनी तो उनके जीवन काल के पाँच महत्वपूर्ण स्थलों को पंचमहा तीर्थ के रूप में विकसित किया गया।
ये पाँच जगह हैं- जन्म भूमि, शिक्षा भूमि, दीक्षा भूमि, महापरिनिर्वाण भूमि (जहाँ उनका निधन हुआ) और चैत्य भूमि (श्मशान स्थल)। अब देश में होने वाले चुनाव के दौरान यह भी देखना दिलचस्प होगा कि देश के संविधान के निर्माता और दलितों के मसीहा डॉक्टर भीमराव अंबेडकर के नाम पर कौन कितने वोट पाता है और कौन उनके आदर्शों पर चल पाता है।