एमनेस्टी इंटरनेशनल एक अंग्रेजी एनजीओ है जो ‘मानवाधिकारों की रक्षा’ के लेबल के नीचे लगभग छः दशकों से छुपती रही है लेकिन इसके कुकर्मों की पोल गाहे-बगाहे खुलती रहती है। हम या आप इस तरह के नाम सुनते हैं तो पहले जर जाते हैं कि बाप रे! ऐसा सेक्सी नाम है, इस पर सवाल क्या करना, जो करता होगा सही ही करता होगा।
लेकिन इन तमाम नैतिकता से ओत-प्रोत ‘मिशन और विजन’ वाले एनजीओ की जमीन खोदने पर ऐसे कंकाल निकलते हैं जिसमें बच्चों की तस्करी से लेकर मजहबी कन्वर्जन, चर्चों से फंड लेकर दूसरे देशों में दंगे-फसाद करवाने, मीडिया और नेताओं को पैसा खिला कर मजहबी हिंसा भड़काने से लेकर आतंकियों के साथ खड़े होने की बातें सामने आती हैं।
इसलिए जब एमनेस्टी जैसी संस्थाओं पर कोई देश सवाल उठाता है तो ये अपने आप को ऐसे दिखाते हैं जैसे सारी नैतिकता का ठेका और उसकी दुकानदारी इन्हीं के बापों की मिल्कियत है और सरकारों के कानून तो उन्हें सताने के लिए बने हैं। जबकि, सत्य यह होता है कि एनजीओ के नाम पर पैसों के हेर-फेर में लिप्त रहने वाली ऐसी संस्थाएँ लगातार भारत को तोड़ने के लिए तमाम तरह के कुत्सित कार्यों में व्यस्त पाए जाते हैं।
कश्मीर पर संदर्भहीन बात
आज एमनेस्टी इंटरनेशल इंडिया ने ज्ञान बाँचते हुए लिखा कि वो अब कश्मीर में हो रहे मानवाधिकारों के हनन पर वैश्विक स्तर पर आवाज उठाएगी। अगर कश्मीर में वाकई मानवाधिकारों का हनन होता तो इस बात की सराहना की जाती लेकिन एमनेस्टी ने जिस बेहूदगी और धूर्तता के साथ आधी बात और संदर्भ को छुपा लिया है, उसके लिए उन्हें सड़कों पर नंगे करके बेंत मारने की सजा मिलनी चाहिए।
1/5 The draconian communication blackout is an outrageous protracted assault on the civil liberties of the people of Kashmir. Amnesty International India launches a global campaign today in a bid to highlight the human cost of the lockdown.#LetKashmirSpeak pic.twitter.com/F2WzlMQP2S
— Amnesty India (@AIIndia) September 5, 2019
कश्मीर का इतिहास हिंसक रहा है। वहाँ कुछ आतंकी तत्व अभी भी सक्रिय हैं। हालिया राजनैतिक फैसलों के कारण वहाँ की स्थिति को नियंत्रण में रखने के लिए सरकार ने आम नागरिकों की रक्षा के लिए उन पर कुछ प्रतिबंध लगाए हैं जिसमें इंटरनेट की सेवा प्रमुख है। अब एमनेस्टी यह भूल जाता है कि कश्मीर में होने वाली पत्थरबाजी की जड़ में, या सेना के आतंकी सफाई अभियान में वहाँ के पत्थरबाजों द्वारा रोक लगाने में व्हाट्सएप्प का सबसे बड़ा हाथ रहा है।
कई जगहों पर इंटरनेट सेवा बंद करने पर सरकार ने स्थिति को नियंत्रण में लाने में सफलता पाई है। कश्मीर में यही हो रहा है। ये बात ऐसे भी साबित हो जाती है कि इतने नियंत्रण के बावजूद कुछ आतंकियों ने ट्रक ड्राइवर नूर मोहम्मद से लेकर दुकानदार और कुछ और कश्मीरियों की हत्या कर दी है। ये आतंकी सरकार को अपना संदेश देने के लिए किसी भी हद तक गिर सकते हैं और ऐसे में इन्हें संचार की सुविधा देकर इकट्ठा होने, योजना बनाने और हिंसा फैलाने के लिए किसी भी हाल में छोड़ा नहीं जा सकता।
भारत सरकार के पास कश्मीर की स्थिति को समझने के लिए सेना है, इंटेलिजेंस एजेंसियाँ हैं, स्थानीय पुलिस है और प्रशासन है जिन्हें विश्वास में लेने के बाद ही आम नागरिकों पर कुछ रोक लगे हैं। ये ज़रूरी हैं क्योंकि कुछ कश्मीरियों के क्रोध के कारण दूसरे निर्दोषों को सड़कों पर मरने के लिए नहीं छोड़ा जा सकता। लेकिन एमनेस्टी को इससे मतलब नहीं है।
एमनेस्टी कश्मीर पर लम्बे समय से ज्ञान देता रहा है। एक साधारण सा गूगल सर्च करने पर इस संस्था के दोगलेपन का पता चल जाता है जब कश्मीर के मुद्दे पर इनके पास दसियों लेख और रिपोर्ट हैं लेकिन पाकिस्तान अधिकृत जम्मू-कश्मीर, या गिलगिट-बल्तिस्तान, के साथ आप सर्च करें तो आपकी आँखें तरस जाएँगी। पाकिस्तान वाले हिस्से में लोग गायब कर दिए जाते हैं, सेना हर तरह के अत्याचार कर रही है, लेकिन एमनेस्टी वहाँ आर्टिकल नहीं लिखती, कैम्पेन नहीं चलाती। जबकि, वो इलाका पाकिस्तान द्वारा गैरकानूनी रूप से कब्जे में है।
दूसरे देशों की बातों में नाक घुसाने की पुरानी आदत
एमनेस्टी जैसी संस्थाओं ने हमेशा स्वयं को ‘गॉड’ टाइप का समझा है। वो सोचते हैं कि उनकी दोगली नीतियाँ, पक्षपाती रवैया और पश्चिमी देशों से चिपकने की बातें किसी को मालूम नहीं। कश्मीर भारत का मुद्दा है और वहाँ सेना गश्त दे रही है, गोली नहीं चला रही कहीं। वहाँ की गलियों को शांत रखना उनकी प्राथमिकता है। फिर एमनेस्टी का मानवाधिकार उसमें कहाँ से घुस गया?
ऐसे ही, 2007 में क्रिकेट विश्वकप में इन्होंने कैरेबियाई मैदानों पर श्रीलंका की सरकार के ऊपर सीधा आरोप लगाते हुए कैम्पेन चलाया था कि ‘श्रीलंका, प्ले बाय द रूल्स’। जबकि क्रिकेट वर्ल्डकप में न तो सरकारें हिस्सा लेती हैं, न ही खिलाड़ियों में से कोई भी श्रीलंका सरकार द्वारा आतंकरोधी अभियान का हिस्सा रहा था।
एमनेस्टी के एशिया-पैसिफिक डेप्यूटी डायरेक्टर ने इस पर सफाई देते हुए कहा था कि श्रीलंका में यह अत्यावश्यक है कि वहाँ कोई स्वतंत्र मानवाधिकार संस्था जा कर सरकार, तमिल टाइगर्स और बाकी हथियारबंद समूहों को बताए कि उनके झगड़े में आम नागरिक न उलझें। आप यह देखिए कि एमनेस्टी के लिए सरकार और तमिल टाइगर्स जैसे आतंकी समूह बिलकुल समान हैं। उन्हें यह नहीं दिखता सरकार को अगर वो रूल्स याद दिला रहे हैं, तो ये सुनिश्चित कौन करेगा कि लिट्टे के आतंकी भी रूल्स से खेलें?
ये किस तरह की बात है कि एक संप्रभु राष्ट्र को उस देश के सरकार द्वारा फंड की जा रही संस्था मानवाधिकारों पर ज्ञान दे रही है जिसने दो सौ सालों तक मानवाधिकारों की बत्ती बना न सिर्फ जला दी बल्कि अपने घरों को रौशन भी किया। अब ब्रिटेन के विदेश मंत्रालय से फंड पाने वाली संस्था यह बताएगी कि श्रीलंका दुनिया के सबसे खतरनाक आतंकी गुट से ‘आओ मैं तुम्हें गेम के रूल्स बता दूँ’ कहने के बाद कार्रवाई करे?
ब्रिटिश इंटेलिजेंस का हिस्सा, दूसरे देशों की छवि खराब करना मुख्य लक्ष्य
एमनेस्टी पर ब्रिटिश इंटेलीजेन्स MI5 का हिस्सा होने के आरोप भी लगे हैं। इनकी फंडिंग की जाँच करने पर पता चलता है कि कई बार इन्होंने जो फंड ब्रिटिश सरकार से पाए हैं वो ऐसे मौकों पर पाए हैं जब ये संस्था मोअज्जम बेग जैसे आतंकियों के साथ साँठ-गाँठ में थी। इस पर विस्तृत रिपोर्ट आपको हमारी अंग्रेजी साइट पर यहाँ मिल जाएगी।
1960 के दशक में अंग्रेज पूरी दुनिया से लूटपाट और हत्या का दौर खत्म करने के बाद धीरे-धीरे बाहर आ रहे थे तभी एमनेस्टी के लिए यहाँ के विदेश मंत्रालय ने अपने तमाम दूतावासों को लिखा था कि एमनेस्टी को बिना पब्लिक में बताए मदद मिलती रहनी चाहिए। साथ ही यह भी कहा था कि सरकार का एमनेस्टी के क्रियाकलापों में हस्तक्षेप नही होगा, जिसका सीधा मतलब था कि एमनेस्टी के घटिया कामों की परछाई सरकार पर न पड़े।
एमनेस्टी इंटरनेशनल एक संदिग्ध संस्था रही है
जिस मोअज्जम बेग की बात ऊपर हुई है उस पर एमनेस्टी के जेंडर यूनिट की मुखिया गीता सहगल ने कहा कि एमनेस्टी को ऐसे तालिबानी आतंकी के साथ नहीं दिखना चाहिए था। आप यह सोचिए कि मानवाधिकारों की बात करने वाली संस्था आखिर एक आतंकी के साथ संबंध में कैसे रह सकती है? बाद में जब बहुत भद्द पिटी तो कई सालों के बाद एमनेस्टी ने स्वयं को इससे अलग किया।
इसके अलावा कई मौकों पर एमनेस्टी के कार्यालयों में नस्लभेद, लिंगभेद, और अभद्र व्यवहार करने के आरोप लगते रहे हैं। इस पर कई बार रिपोर्ट्स आए हैं। साथ ही, एमनेस्टी ने जहाँ दुनिया में समान सैलरी की बात की है, वहीं इसने स्वयं एक महिला से इसी मुद्दे पर कोर्ट से बाहर सेटलमेंट किया और उससे इस पर कुछ भी न बोलने का अनुबंध भी कराया।
एनजीओ मॉनीटर नामक संस्था ने एमनेस्टी के पक्षपाती रवैये पर एक शोधपत्र जारी किया जहाँ पता चलता है कि इस संस्था द्वारा बनाए गए रिपोर्ट, जिसकी कसमें तमाम सेलिब्रिटी और नेता खाते हुए अपनी बात रखते हैं, उनमें न तो शोध का तरीका सही होता है, न ही थोड़ी सी जाँच करने पर कोई तथ्य मिलते हैं। इन्हीं शोधों को आधार मान कर यही संस्था कैम्पेन चलाती है, सरकारों और व्यक्तियों से धन का दान लेती है।
इसी संस्था ने लिखा है कि एमनेस्टी की शिराओं और धमनियों तक में भ्रष्टाचार फैला हुआ है। इसी की बात करते हुए उन्होंने नौ ऐसे मामले गिनाए जहाँ इनकी संल्पितता थी। इन्होंने जिहाद को सेल्फ डिफेंस तक कहा है और अलकायदा से लेकर तालिबान तक से इनके संबंध बताए जाते हैं। इन्होंने कभी भी मिडिल इस्ट में महिलाओं के अधिकारों पर एक शब्द नहीं बोला है। इनके करतूतों की फेहरिस्त काफी लम्बी है।
भारत में इनकी नौटंकी
इस संस्था की गतिविधियों पर कई देशों ने सवाल उठाए हैं। पिछले साल ही, एमनेस्टी इंडिया ने उत्तर प्रदेश की पुलिस पर 900 लोगों को एनकाउंटर में मार देने का आरोप लगाया। जब पुलिस ने कहा कि वो इन पर कानूनी कार्रवाई करेगी तब ये कहने लगे कि उनका मतलब तो मारे गए और घायल, दोनों तरह के, लोगों से था। भला हो ट्विटर जैसे माध्यमों का जहाँ तुरंत सरकार बयान जारी कर देती है वरना यही संस्था इसी पर रिपोर्ट बना कर यूएन मानवाधिकार आयोग से लेकर तमाम राष्ट्रों को यह बताती कि भारत के सबसे बड़े राज्य में एक हिन्दूवादी सरकार की पुलिस ने 900 लोगों की जान ले ली!
आप यह देखिए कि यह संस्था भारत में किसके बचाव में उतर रही है? और ऐसा क्यों कर रही है? पिछले साल मार्च में इनके बंगलोर कार्यालय पर प्रवर्तन निदेशालय ने छापे मारे थे क्योंकि इनके ऊपर विदेशों से आने वाली फंडिंग पर भारतीय कानूनों को बायपास करने के आरोप लगे थे। जब ऐसा हुआ तो इन्होंने भारत सरकार पर ही आरोप लगा दिया कि चूँकि ये भारत में मानवाधिकारों के बारे में बोलते हैं तो सरकार बदला ले रही है।
जबकि अगर इनकी करतूतों देखी जाएँ तो ये भारत को तोड़ने वाली शक्तियों के साथी रहे हैं। इसी साल जनवरी में इन्होंने नसीरुद्दीन शाह को लेकर एक विडियो बना कर भारतीय आम चुनावों को प्रभावित करने की कोशिश की थी जहाँ भारत की स्थिति ऐसी दिखाई गई कि यहाँ बोलने की आजादी खत्म हो चुकी है और मानवाधिकारों को तो हर गली-मुहल्ले में खुलेआम धता बता कर तबाही मचाई जा रही है। आप तो जानते ही हैं कि नसीरुद्दीन शाह जब गंभीर आवाज में बोलते हैं तो कैसे लगते हैं!
उसके बाद एमनेस्टी ने शहरी नक्सलियों को डिफेंड करते हुए कहा था कि भारत में मानवाधिकारों की बात करने वालों को सरकार गिरफ्तार कर रही है। पहली बात तो यह है कि नक्सलियों के मुँह से मानवाधिकारों की बात बदबू ही देती है, दूसरी यह कि जिस अर्बन नक्सल को लेकर ये चिंतित थे वो अरुण फरेरा भीमा कोरेगाँव हिंसा को भड़काने और भारत के प्रधानमंत्री की हत्या की योजना बनाने में आरोपित था।
और तो और, इनके कर्मचारी तो ऐसे-ऐसे हैं कि खुले में ब्राह्मणों पर हिंसा भड़काने के लिए लोगों को उकसाते हुए कहते हैं कि आरएसएस को तब डर लगता है जब ब्राह्मणों पर हमले होते हैं, यही उनकी असली कमजोरी है।
जब इस तरह के कर्मचारी हों, मानवाधिकारों की ऐसी मजबूत ढाल हो जहाँ पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर के समुदाय विशेष की हालत या मिडिल ईस्ट में महिलाओं की हालत, या अमेरिका के नेटिव महिलाओं पर होते सेक्सुअल क्राइम्स पर इनकी चुप्पी या सहमति रहती हो, तो जाहिर है कि कश्मीरी जिहादियों के लिए इनकी छाती तो फटेगी ही।
इन्होंने सेल्फ डिफेंस के लिए जिहाद को सही ठहराया है। सारे कश्मीरी आतंकी तो सेल्फ डिफेंस ही करते हैं, उसी में हजारों सैनिक और निर्दोष कश्मीरी मर जाते हैं तो इन आतंकियों का क्या दोष! वो तो पत्थर फेंक रहे थे, गोली चला रहे थे, बम फोड़ रहे थे, अब उसकी रेंज में कुछ लोग मर गए तो उनकी क्या गलती! बेचारे आत्मरक्षा में लगे हुए थे!
इनकी भाषा तो देखिए आप कि ये अपने बयानों में सरकारों को आदेश देते दिखते हैं कि ये तो अब और दिन तक जारी नहीं रह सकता! उसके बाद बार-बार सिर्फ झूठ लिख कर बरगलाने में लीन रहते हैं कि कश्मीरियों के जीवन पर भयंकर प्रभाव पड़ा है। चूँकि कुछ चीजें कोई प्रूव नहीं कर सकता तो आराम से कह दो कि उसको मानसिक और भावनात्मक तौर पर भयानक पीड़ा पहुँची है। फिर एक झूठ लिखो कि उनकी बुनियादी जरूरतें पूरी नहीं हो रही, मेडिकल केयर नहीं मिल रहा।
जबकि ये सारी बातें बेकार हैं, झूठ हैं, प्रपंच और प्रलाप हैं। बार-बार कश्मीर के अधिकारियों ने अस्पताल और दवाइयों की बातों पर मीडिया को सच लिखने को कहा है। आप इनकी साइट पर जा कर देख लीजिए कि इन्होंने आतंकियों को कितनी बार इन्हीं कश्मीरियों की सिविल लिबर्टी पर हमला करने वाला कहा है। आप जा कर देखिए कि जब पत्थरबाज इन्हीं गरीब सैनिकों या कश्मीरियों की जान ले लेते हैं तब एमनेस्टी को मानवाधिकारों की कितनी याद आती है।
एमनेस्टी के लोगो में लगा कैंडल जल रहा है। उसका मोम ब्रिटेन से आता है। इसकी आग में मानवाधिकारों की हत्या ही होती है। अगर एक अंतरराष्ट्रीय संस्था के लिए श्रीलंका की सरकार और लिट्टे समान हैं, इस्लामी देशों में महिलाओं को दोयम दर्जे के अधिकारों का मिलना सही लगता है, नेटिव अमेरिकन महिलाओं का रेप स्वैच्छिक सेक्स लगता है, भारत की चुनी हुई सरकार और जिहादी आतंकियों में जिहादी आतंकियों का पलड़ा भारी है, तो भारत को तोड़ने के लिए आतुर इस एमनेस्टी इंटरनेशनल को उसी मोमबत्ती का दूसरा उपयोग बहुत सारे लोग बता सकते हैं। उसका दुर्भाग्य कि उसकी मोमबत्ती के साथ कँटीला तार भी है।