हाल के दौर में जिन्होंने फर्नीचर खरीदने की सोची होगी, उसे शायद कीमतों का अंदाजा होगा। मामूली प्लाईवुड का बना पाँच बाई तीन का टेबल भी चार-पाँच हज़ार का आता है। ऐसे में प्लाईवुड के बने चालीस-पचास हज़ार के पलंग/सोफे को अगर लकड़ी से बनवाया जाए तो कितनी कीमत आएगी? लाख में? ये लकड़ी अगर साधारण आम-जामुन के पेड़ के बदले शीशम की हो तब कितनी कीमत होगी? शीशम से भी महंगे सागवान का इस्तेमाल कर रहे हों तब?
शायद समझ में आ गया होगा कि चालीस हज़ार का पलंग दो लाख का हो चला है। अब सोचिए कि आपके पास ही जंगल हो, और ढेरों लकड़ी की तस्करी करने का मौका मिले तो स्थानीय माफिया क्या ऐसा मौका जाने देगा? हरगिज़ नहीं, जंगलों से लकड़ी चुराने के लिए पेड़ तो काटे ही जाएँगे।
करीब पचास साल पहले जम्मू-कश्मीर में भी ऐसा ही होता था। जंगलों की अवैध कटाई से पर्यावरण को तो नुकसान होता ही था ऊपर से तस्करों को पकड़ने वालों के लिए दूसरी समस्या भी थी। ये बिलकुल गौ-तस्करी या चोरी जैसा मामला था। एक बार गाय का अगर कीमा बना दिया, तो किसकी गाय थी, या गाय ही थी भैंस नहीं, ये कैसे सिद्ध होगा? लकड़ी का भी एक बार फर्नीचर बना डाला तो चोरी का पेड़, तस्करी की लकड़ी ये सब सिद्ध करना करीब नामुमकिन होता था।
अभी भी वैष्णो देवी जाने वाले कई युवा लौटते समय कटरा इत्यादि से क्रिकेट-बेसबॉल बैट या हॉकी स्टिक जैसी चीज़ें खरीदते आते हैं। पुराने दौर में तस्कर अगर पकड़े भी जाते थे, तो उनपर मामूली धाराएँ लगती और वो जल्दी ही छूटकर फिर से तस्करी के धंधे में जुट जाते। शायद उनकी अम्मा सिखाती होगी कि कोई भी धंधा छोटा नहीं होता और धंधे से बड़ा धर्म नहीं होता।
खैर 1970 के ऐसे ही दौर में जम्मू-कश्मीर में पब्लिक सेफ्टी एक्ट बना। पीएसए (1970) नाम से जाने जाने वाले इस एक्ट को भूतपूर्व मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्ला के अब्बू यानी शेख अब्दुल्ला ने लागू किया था। ये मुख्य रूप से लकड़ी के तस्करों के खिलाफ चला। शुरुआत में इसमें 16 साल से ऊपर के किसी भी व्यक्ति को दो साल तक के कारावास की सजा बिना मुकदमा चलाए ही दी जा सकती थी। बाद में (2011 में) न्यूनतम उम्र को 16 से बढ़ाकर 18 साल किया गया।
बाद में जब इलाके में कश्मीरियत (कश्मीर + शरियत) का बोलबाला हुआ तबसे ये एक्ट अलगाववादी, आतंकी, दहशतगर्द जेहादी, कश्मीरियत दिखाने वाले (यानि पत्थरबाज) सभी पर लगने लगा। हिजबुल मुजाहिद्दीन (इस्लाम की राह में लड़ने वाले पाक योद्धाओं का दल) के बुरहान वानी (जिसे एक कुख्यात पक्षकार हेडमास्टर का बेटा बता रही थी) के मारे जाने के बाद इसी कानून से पाँच सौ से ज्यादा अलगाववादी कैद किए गए थे।
पीएसए के तहत किसे कैद रखा जाए किसे नहीं, इसे बीच-बीच में एक समिति जाँचती रहती है। इसे हाई कोर्ट में चैलेंज भी किया जा सकता है। इस धारा में किसी को कैद करने के लिए स्थानीय डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट या डिवीज़नल कमिश्नर का आदेश काफी है। हाल में फारुख अब्दुल्ला के 83 की उम्र में कैद होने पर कई लोगों ने छाती कूट कुहर्रम मचाना शुरू किया है। तेरासी साल के व्यक्ति को रिटायर होने लायक, लाचार, बूढ़ा मानने वाले ये वही लोग हैं जो उससे ज्यादा उम्र के अडवानी के रिटायर होने की तरफ बढ़ने पर छाती कूटते इसे मोदी की साजिश बता रहे थे।
शोर यहाँ तक फैला कि बिहार में “हंसुए की शादी में खुरपी के गीत गाते” अपने छोटे मोदी (सुमो) ने आईएफएस अफसरों की मीडिया से संपर्क बढ़ाने के तरीकों पर चर्चा की गोष्ठी में भी मीडिया के बदले कश्मीर और फारुक अब्दुल्ला का जिक्र कर डाला।
बाकी जम्मू में एएफ(एसपी)ए लागू होने से करीब दो दशक पहले के कानून की तुलना नए ट्रैफिक जुर्मानों से करना भी हंसुए की शादी में खुरपी के गीत कहा भी जा सकता है। हाँ, बाप के बनाए काले कानून से बेटे के कैद होने में जो कर्मफल का सिद्धांत है, सो तो हइये है!