यदि न्यूज चैनल्स की भाषा में कहूँ तो गुजरात में आजकल राजनीति ‘गरमाई’ हुई है। इसका कारण है राज्यसभा चुनाव। शुक्रवार को मोरबी से कॉन्ग्रेस विधायक बृजेश मेरजा ने इस्तीफा दे दिया। सात विधायक पहले ही पार्टी छोड़ चुके हैं।
करीब 36 साल से मैं गुजरात में हूॅं और लगातार राजनीतिक गतिविधि पर नजर बनाए रखता हूॅं। 2017 के राज्यसभा चुनाव को छोड़ दूॅं तो राज्य में संसद के उच्च सदन के सदस्य के चुनाव कभी इतने रोचक नहीं रहे।
क्यों गुजरात में पिछले तीन साल से राज्यसभा चुनाव इतने रोचक होते चले जा रहे हैं? इस सवाल का एक ही कारण है कि भाजपा राज्यसभा में अपना संख्या बल मजबूत करना चाह रही है। इसे ध्यान में रख अपने गढ़ में वह हर चुनाव में एक अतिरिक्त उम्मीदवार मैदान में उतार रही है।
गुजरात में राज्यसभा चुनाव तब पहली बार तब रसप्रद हुए जब भाजपा ने 2017 में अमित शाह और स्मृति ईरानी के अलावा कॉन्ग्रेस से ही पाला बदल कर आए बलवंत सिंह राजपूत को अपना तीसरा उम्मीदवार बनाया था।योजना थी सोनिया गाँधी के करीबी अहमद पटेल, जो उस समय लगातार छठे टर्म के लिए मैदान थे, उन्हें रोकना।
उस वक्त गुजरात कॉन्ग्रेस के विधायकों को बंगलुरु के एक रिसॉर्ट में कई दिन ठहराए जाने के बाद चुनाव हुआ था। चुनाव तो हो गया पर जब मतगणना हुई तो कॉन्ग्रेस के आधिकारिक पोलिंग एजेंट और गुजरात के वरिष्ठ नेताओं में से एक शक्ति सिंह गोहिल ने कुछ ऐसे तकनीकी मुद्दे उठाए कि मतगणना कई बार टालनी पड़ी और आखिरकार मध्यरात्रि के बाद अहमद पटेल को विजयी घोषित किया गया। ये मामला अभी भी गुजरात हाई कोर्ट में निलंबित है।
बस कुछ उसी तरह का चित्र गुजरात में इस बार के राज्यसभा चुनाव में भी उभर कर आया है। इस बार गुजरात से राज्यसभा के 4 सांसद जुने चाने हैं। गुजरात विधानसभा की संख्या के आधार पर भाजपा और कॉन्ग्रेस दोनों के दो-दो उम्मीदवारों का राज्यसभा जाना तय था। लेकिन, भाजपा ने अभय भारद्वाज और रमीला बेन बारा के अलावा पूर्व मंत्री नरहरी अमीन को तीसरा उम्मीदवार बनाया। कॉन्ग्रेस ने अपने दो दिग्गज नेता शक्ति सिंह गोहिल और भरत सिंह सोलंकी को मैदान में उतार रखा है।
यूँ तो यह चुनाव अप्रैल में हो जाने थे। लेकिन कोरोना के कारण उपजे हालात की वहज से चुनाव टालने पड़े। अब इस महीने की 19 तारीख को चुनाव होने हैं। वैसे अप्रैल में चुनाव टाले जाने से पहले ही गुजरात कॉन्ग्रेस के पॉंच विधायकों ने इस्तीफा दे दिया था।
ये पॉंच विधायक थे, प्रवीणभाई मारू (गढडा), जेवी काकड़िया (धारी), सोमाभाई गांडाभाई पटेल (लिंबडी), प्रद्युम्नसिंह जाडेजा (अबडासा) और मंगलभाई गावीत (डांग)। उस समय भी यह कहा जा रहा था कि राज्यसभा के चुनाव आते-आते और भी कॉन्ग्रेसी विधायक अपने इस्तीफे विधानसभा अध्यक्ष को सौंप देंगे। जैसे ही चुनाव की नई तारीखों का ऐलान हुआ, कॉन्ग्रेस विधायक अक्षय पटेल व जीतू चौधरी ने इस्तीफा सौंप गुजरात की राजनीति को गरम कर दिया है।
राजनीति में आरोप प्रत्यारोप चलते रहते हैं। लेकिन यहॉं सवाल यह है कि गुजरात कॉन्ग्रेस को अभी और कितना अपमानित होना है और वह भी अपने ही विधायकों के द्वारा? गुजराती की एक कहावत का भावानुवाद है कि “सेना कहाँ लड़ रही है वो सेनापति को ही पता नहीं है”। गुजरात कॉन्ग्रेस की स्थिति भी कुछ ऐसी है। जब सारे गुजराती न्यूज चैनल्स अक्षय पटेल के इस्तीफे की खबर ब्रेकिंग न्यूज के रूप में चमका रहे थे तभी गुजरात कॉन्ग्रेस के प्रमुख अमित चावड़ा अचानक से प्रगट हुए। उन्होंने अक्षय पटेल के इस्तीफे की बात को अफ़वाह करार दिया। लेकिन, चावड़ा के प्रगट होने के ठीक एक घंटे बाद गुजरात विधानसभा अध्यक्ष ने न केवल अक्षय पटेल, बल्कि उनके साथ जीतू चौधरी के इस्तीफे की भी पुष्टि कर दी। जाहिर है कि गुजरात कॉन्ग्रेस के सेनापति अमित चावड़ा को पता भी नहीं था की उनकी सेना कहाँ लड़ रही है।
यदि हम एक बार गुजरात कॉन्ग्रेस के इस आरोप को मान भी लें कि भाजपा खरीद-फरोख्त कर रही है तो भी सवाल उस पर ही उठते है। यदि माल खुद बिकने को तैयार हो तो उसे कोई क्यूँ नहीं खरीदेगा? गौर करने वाली बात यह भी है कि कॉन्ग्रेस से बीजेपी में विधायकों के जाने का यह सिलसिला 2017 से शुरू हुआ है। पार्टी छोड़ने वाले हर विधायक ने यह बात कही है कि उनकी कॉन्ग्रेस में नहीं सुनी जाती। यह बात कुंवरजी बावलिया और जवाहर चावड़ा जैसों ने भी कही जो पीढ़ियों से कॉन्ग्रेसी थे।
कॉन्ग्रेस छोड़ते वक्त यही बात ठाकोर नेता अल्पेश ठाकोर ने भी कही थी। हालॉंकि कॉन्ग्रेस और उनका साथ एक-डेढ़ साल से ज़्यादा नहीं रहा, फिर भी इससे यह तो पता चलता ही है कि गुजरात कॉन्ग्रेस में कुछ भी ठीक नहीं है। गुजरात कॉन्ग्रेस के अध्यक्ष का तो जनता से जुड़ाव उस कदर भी नहीं है जितना शायद शक्ति सिंह गोहिल, भरत सिंह सोलंकी या फिर विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष परेश धाणानी का है। शायद यही कारण है कि पार्टी विधायकों के इस्तीफे की भनक तक प्रदेश अध्यक्ष को नहीं थी।
अक्षय पटेल और जीतू चौधरी के इस्तीफे के बाद अल्पेश ठाकोर ने प्रतिक्रिया देते हुए कहा था कि गुजरात कॉन्ग्रेस का और भी बुरा हाल होने वाला है। उन्होंने गुजरात कॉन्ग्रेस की गुटबाजी का हवाला देते हुए यह बात कही। यदि ऐसा है तो राज्यसभा चुनाव के बाद भी कॉन्ग्रेस का यह संकट खत्म होने वाला नहीं दिखता।
जब मार्च में राज्यसभा चुनाव की घोषणा हुई थी और कॉन्ग्रेस के पॉंच विधायकों ने इस्तीफा दिया था तभी से यह माना जा रहा था कि कॉन्ग्रेस को एक ही सीट से संतोष करना पड़ेगा। उस समय शक्ति सिंह गोहिल और भरत सिंह सोलंकी में से किसी एक के मैदान छोड़ देने के विकल्प पर चर्चा भी हुई थी। परंतु दोनों पक्ष अपने आप को एक दूसरे से बेहतर लड़ाकू बताने पर तुला रहा और कोई भी पीछे हटने को तैयार नहीं था। वो तो भला हो कोरोना का कि गुजरात कॉन्ग्रेस की जो अंदरूनी लड़ाई अप्रैल में बेनकाब हो जानी थी वह जून तक टल गया।
पर अब जून भी आ गया है। 19 जून भी आने को है। फिलहाल परिस्थिति ऐसी है कि एक उम्मीदवार को जीत के लिए 35 वोट चाहिए। आठ विधायकों के इस्तीफे के बाद कॉन्ग्रेस के 65 विधायक रह गए हैं। अगर निर्दलीय जिग्नेश मेवानी के वोट भी उनके साथ गिन ले तो आँकड़ा 66 तक पहुॅंचता है। ट्राइबल पार्टी BTP के दो विधायक जोड़ने पर 68 और NCP के एकमात्र विधायक के साथ आने पर भी यह 69 ही होता है। यानी तब भी कॉन्ग्रेस के केवल एक ही उम्मीदवार की जीत पक्की है। वैसे कहा जा रहा है कि शरद पवार का चाहे जो निर्देश हो NCP विधायक कांधल जाडेजा भाजपा के उम्मीदवारों को ही अपना वोट देंगे। चुनाव तक BTP विधायकों के भी जाडेजा की ही राह पकड़ने की अटकलें हैं।
ऐसे में कॉन्ग्रेस के पास एक ही रास्ता है कि वह भाजपा विधायकों से इस्तीफ़ा दिलवाना शुरू करे और गेंद धीरे धीरे अपने पाले में लाने की कोशिश करे। लेकिन जिस कॉन्ग्रेस अध्यक्ष को अपने विधायकों के पार्टी छोड़ने की खबर न हो, वो भला भाजपा के विधायकों को कैसे पाला बदलने के लिए राजी कर सकते हैं और वह भी एक-दो नहीं, बल्कि तीन से चार विधायकों को। वैसे भी जो पार्टी तीन दशक से गुजरात की सत्ता में लगातार बनी हुई हो उसको छोड़कर कोई भी विधायक ऐसी पार्टी में क्यों जाना चाहेगा जिसका सेनापति दिशाहीन हो?
मोटी बात यह है कि गुजरात में भी कॉन्ग्रेस की स्थिति देश के अन्य हिस्सों से अलग नहीं है, बल्कि ज्यादा ही खराब दिखती है। जब हालात यह बन गए हैं कि शक्ति सिह गोहिल या भरत सिंह सोलंकी में से एक ही राज्यसभा में जा सकेंगे तो यह संकट और बढ़ेगा। जो उच्च सदन नहीं पहुॅंचेगा वह या तो अपनी गतिविधियों, अपनी ताकत को सीमित कर लेगा या फिर उसे पार्टी की अंदरुनी लड़ाई को तेज करने में लगाएगा।
गुजरात में इस साल के अंत तक 7 म्युनिसिपल कॉरपोरेशन के चुनाव होने हैं। 2022 में विधानसभा चुनाव है। क्या गुजरात कॉन्ग्रेस में तब तक इतनी ताकत बचेगी कि वह इन चुनावों में टक्कर दे पाए? या फिर उस के पास पाटीदार आंदोलन की तरह एक और वर्ग विग्रह का कटु शस्त्र ही बच जाएगा ताकि भाजपा को हराना सुनिश्चित न हो सके तो पिछली बार की तरह ही उसे प्रचंड बहुमत पाने से रोकने में सफलता मिल सके।
फिलहाल तो गुजरात कॉन्ग्रेस की हालत ‘खाया पिया कुछ नहीं पर गिलास तोड़ा बारह आना’ जैस’ है। न वह तीन दशक से सत्ता में आ सकी है और न अब अपने विधायकों को एकजुट रख पा रही है।