भाजपा ने अमित शाह की अध्यक्षता में एक नया तरीका ईजाद किया है, या यूँ कहें कि एक ऐसा तरीका चुना है, जिससे बागी नेताओं से अच्छी तरह निपटा जा सकता है। पिछले कुछ वर्षों में नवजोत सिंह सिद्धू, शत्रुघ्न सिन्हा और उदित राज जैसे नेताओं ने पार्टी छोड़ी। अगर ध्यान से देखें तो ये तीनों ही बड़े नेता थे। जहाँ शत्रुघ्न वाजपेयी काल के सबसे वफादार नेताओं में से एक रहे थे, वहीं उदित राज को दलितों का बड़ा चेहरा बना कर पेश किया गया था। जबकि नवजोत सिंह सिद्धू पंजाब में पार्टी के कर्ताधर्ताओं में से एक थे। भाजपा ने धीमे-धीमे सोची-समझी रणनीति के तहत इन बाग़ी नेताओं को पार्टी छोड़ने को मज़बूर कर दिया और इन्हें सहानुभूति का पात्र भी नहीं बनने दिया। लेकिन ओम प्रकाश राजभर का मामला थोड़ा अलग है।
आगे बढ़ने से पहले जान लेते हैं कि ओपी राजभर हैं कौन? ओम प्रकाश राजभर अपने समुदाय के सबसे बड़े नेताओं में से एक माने जाते रहे हैं। क्योंकि पूर्वी उत्तर प्रदेश में 18% लोग राजभर समुदाय से आते हैं। राज्य के बाकी हिस्सों में भी इस समुदाय की अच्छी-ख़ासी जनसंख्या है। ओपी राजभर की पार्टी सुहलदेव भारतीय समाज पार्टी का मुख्यालय पीएम मोदी के संसदीय क्षेत्र वाराणसी के अंतर्गत ही आता है, इसीलिए उन्हें हैंडल करने के लिए भाजपा ने अतिरिक्त सावधानी बरती। उन्हें मार्च 2017 में उत्तर प्रदेश का कैबिनेट मंत्री बनाया गया। उत्तर प्रदेश जैसे महत्वपूर्ण राज्य में एक-एक समुदाय के वोट का अलग महत्व होता है, ऐसे में राजभर को भाजपा ने कैसे अप्रासंगिक बनाया?
ओपी राजभर का राजनीतिक कार्यक्षेत्र गाज़ीपुर रहा है। गाज़ीपुर और वाराणसी की दूरी ज्यादा नहीं है, ऐसे में इस मामले में थोड़ी सी भी गड़बड़ी का अर्थ था- पीएम मोदी के संसदीय क्षेत्र या आसपास के क्षेत्रों में चुनाव के दौरान भाजपा को नुकसान। ओपी राजभर मंत्री बनने के बाद कुछ दिनों तक तो शांत रहे लेकिन उसके बाद अचानक से उनकी बयानबाज़ी बढ़ गई। भाजपा ने उन्हें बोलने दिया, उदित राज और शत्रुघ्न सिन्हा की तरह। ऑपइंडिया से भी बात करते हुए राजभर ने कहा था कि वह मोदी को अपना नेता नहीं मानते हैं और वो अपने नेता ख़ुद हैं। ओपी राजभर को अप्रासंगिक बनाने के लिए तीन नए किरदारों की एंट्री होती है। इसके बारे में पहले समझना पड़ेगा।
इस कहानी के पहले किरदार हैं– सकलदीप राजभर। भाजपा ने सकलदीप राजभर को तब आगे बढ़ाया, जब पार्टी किसी भी बड़े नेता को राज्यसभा भेज सकती थी। मार्च 2018 में उत्तर प्रदेश से राज्यसभा में भेजने के लिए कई बड़े नेताओं का नाम दरकिनार कर सकलदीप को चुना गया। बलिया के रहने वाले और 2002 में विधानसभा चुनाव हार चुके सकलदीप राजभर को राज्यसभा सांसद बना कर भाजपा ने राजभर समुदाय के भीतर यह सन्देश दिया कि अकेले कोई पार्टी उसकी हितैषी नहीं है बल्कि भाजपा ही उनके बारे में सोचती है। चूँकि राजनीति में कई निर्णय जाति के आधार पर लिए जाते रहे हैं, इसलिए यहाँ हमारी विवशता है कि राजनीतिक दलों द्वारा लिए गए ऐसे निर्णयों में जाति का उल्लेख करें।
सकलदीप राजभर संघ और भाजपा से काफ़ी समय से जुड़े रहे हैं लेकिन ग्राम प्रधान से ज्यादा उन्होंने किसी चुनाव में कोई ख़ास प्रदर्शन नहीं किया। यहाँ तक कि 2017 विधानसभा चुनाव में भी उन्हें टिकट नहीं दिया गया था। ओपी राजभर के बड़बोलेपन के बाद भाजपा ने उन्हें अचानक से राज्यसभा भेजकर बड़ा दाँव खेला।पार्टी 2017 विधानसभा चुनाव में राजभर समुदाय के वोटों को लेकर आश्वस्त थी क्योंकि ओपी राजभर गठबंधन साथी थे लेकिन भाजपा के शीर्ष नेतृत्व को पता चल गया था कि ओपी राजभर के बगावत के कारण लोकसभा चुनाव के दौरान दिक्कतों का सामना करना पड़ सकता है। इसीलिए, सकलदीप को आगे किया गया।
इस कहानी के दूसरे किरदार हैं– हरिनारायण राजभर। हरिनारायण ने 2014 लोकसभा चुनाव में घोसी सीट से जीत दर्ज की थी। पूर्वांचल में घोसी सीट के लिए इस बार भाजपा ने उम्मीदवार की घोषणा सबसे अंत में की। इससे पहले पूर्वांचल की सभी सीटों के लिए उम्मीदवारों के नामों की घोषणा की जा चुकी थी। चूँकि यह सीट सुहलदेव भारतीय समाज पार्टी को जानी थी, भाजपा ने अंत तक गठबंधन की उम्मीद बनाए रखी। लेकिन, ओपी राजभर की बढ़ती माँगों के आगे झुकने की बजाए भाजपा ने फिर से हरिनारायण राजभर पर दाँव खेला। दरअसल, ओपी राजभर बलिया या घोसी की सीट अपने बेटे अरुण राजभर के लिए चाहते थे, जिसमें उन्हें कामयाबी नहीं मिली।
लोकसभा चुनाव का अंतिम चरण आते-आते ओपी राजभर की हालत यह हो गई कि बौखलाहट में उन्होंने अपनी पार्टी के लोगों से भाजपा कार्यकर्ताओं को जूते से पीटने का आह्वान किया। दरअसल, भाजपा ने बड़ी चालाकी से ज़मीनी स्तर पर सुहलदेव समाज पार्टी से गठबंधन टूटने वाली न्यूज़ को फैलने नहीं दिया या फिर रोकने का प्रयास किया ताकि आम लोगों को ऐसा लगे कि भाजपा के विरोध में ओपी राजभर की पार्टी का कोई उम्मीदवार नहीं खड़ा है। जबकि, असल में ओपी राजभर ने यूपी की लगभग आधी सीटों पर उम्मीदवार उतार दिए थे। उनके उम्मीदवारों को लेकर ज़मीनी स्तर पर सूचनाएँ पहुँचनी ही नहीं दी गई (ज़ोर-ज़बरदस्ती से नहीं, रणनीति के तहत), इससे वह बौखला उठे थे।
“यूपी कैबिनेट के मंत्री ने खुले मंच से दी भाजपा वालों को गाली”
— आदित्य तिवारी (@adityatiwaree) May 17, 2019
मऊ- यूपी कैबिनेट मंत्री ओमप्रकाश राजभर ने बीजेपी को भरे मंच से गाली दी….मऊ में राजभर गाली-गलौज पर उतरे, कहा बीजेपी नेताओं को जूता मारो….एनडीए यूपी सहयोगी सुभासपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं ओपी राजभर। pic.twitter.com/WkX38YcsdB
एक कारण यह भी है कि भाजपा बीच चुनाव में ओपी राजभर पर कार्रवाई कर के उन्हें ख़बरों में लाना नहीं चाहती थी, परिणाम यह हुआ कि वो अधिकतर नेगेटिव कारणों से चर्चा में रहे। धीरे-धीरे भाजपा ने उनकी इमेज को नेगेटिव होने दिया और उनका पर कतर दिया। इस्तीफा पॉकेट में लेकर घूमने वाले राजभर की बातों पर कोई ध्यान ही नहीं दिया गया। घोसी से हरिनारायण राजभर को टिकट दिए जाने के बाद ओपी राजभर अपने ही घर में घिर गए। लोकसभा चुनाव ख़त्म होते ही मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ एक्शन में आए और उन्होंने ओपी राजभर, उनके बेटे सहित कई बाग़ी नेताओं को निकाल बाहर किया। ओपी राजभर से उनका मंत्रालय छीन लिया गया।
ओपी राजभर के पास कौन सा मंत्रालय था? इसमें भी बहुत कुछ राज़ छिपा है क्योंकि इसे जाने बिना आप ओपी राजभर को निकाले जाने के पीछे की रणनीति को नहीं समझ पाएँगे। उनके पास ‘पिछड़ा वर्ग कल्याण’ मंत्रालय था क्योंकि राजभर समुदाय भी पिछड़ा वर्ग में ही आता है। भाजपा के पास पहले से ही इस बात की रणनीति तैयार थी कि उन्हें हटाने के बाद यह मंत्रालय किसे दिया जाएगा? यहीं पर इस कहानी के तीसरे किरदार की एंट्री होती है– अनिल राजभर। अनिल राजभर का क़द भाजपा में पिछले कई महीनों से ही बढ़ना शुरू हो गया था और इसके पीछे एक सोची-समझी रणनीति थी।
अनिल राजभर के पिता भी भाजपा के विधायक रहे थे, ऐसे में पार्टी को उनके नाम के साथ राजभर समुदाय के बीच जाने में कोई परेशानी महसूस नहीं हुई। छात्र राजनीति में सक्रिय रहे अनिल को अपने पिता की मृत्यु के बाद पराजय का सामना करना पड़ा था लेकिन 2017 में उन्होंने जीत का परचम लहराया। ओपी राजभर के सभी विभाग उन्हें सौंप दिए गए ताकि राजभर समुदाय के भीतर कोई ग़लत सन्देश न जाए और ओपी राजभर को सहानुभूति पाने का कोई मौक़ा न मिले। इससे एक बात तो साफ़ हो गई – भाजपा ने एक से एक तीर चला कर ओपी राजभर को इस बात के लिए विवश कर दिया कि वो भाजपा पर राजभर समुदाय की उपेक्षा का आरोप न मढ़ सकें। दूसरे मामले में अगर इसका उलटा होता तो पार्टी को ख़ासा नुकसान उठाना पड़ सकता था।
ओपी राजभर को कड़ा जवाब देने के लिए ही अनिल अनिल राजभर को चुना गया। ओपी राजभर को मंत्री पद से हटाए जाने के बाद अनिल राजभर ने कहा, “यह एक बड़ा फ़ैसला है। राजभर समाज की भावनाओं का ख्याल करते हुए उनको बरख़ास्त किया है। इसका पूरा राजभर समाज स्वागत करता है। आप जिस सरकार में रहते हैं, उसी सरकार के ख़िलाफ़ बोलते हैं। अगर आप नाख़ुश हैं तो फिर सरकार में बने क्यों हैं? वह तो बहुत दिनों से पॉकेट में इस्तीफा लेकर घूम रहे थे, आज उनके मन की मुराद मुख्यमंत्री जी ने पूरी कर दी।” अनिल राजभर के बयान को गौर से पढ़ें और आपको पता चल जाएगा कि ओपी राजभर को किस तरीके से राजभर समुदाय के उल्लेख करते हुए जवाब दिया गया।
तो इस तरह से इन तीन किरदारों की मदद से भाजपा ने ओपी राजभर को अप्रासंगिक बना दिया, यूपी का जीतन राम माँझी बना दिया। उन्हें राष्ट्रीय मीडिया में मज़ाक का पात्र तो बनाया ही गया (जिसके ज़िम्मेदार वह ख़ुद हैं), साथ में उन्हें अपने समुदाय के बीच अपने पक्ष में सहानुभूति लहर पैदा करने का मौक़ा भी नहीं दिया गया। सीएम योगी के कड़े तेवर और अमित शाह की रणनीति से यह सब संभव हो पाया क्योंकि भाजपा अध्यक्ष के बारे में कहा जाता है कि वह बूथ स्तर तक पर पार्टी के मामलों की जानकारी रखते हैं, ख़ासकर यूपी में, जहाँ वो 2014 लोकसभा चुनाव में पार्टी के प्रभारी भी रह चुके हैं।
लेकिन, इसकी पटकथा लिखी जानी कब की शुरू हो गई थी। 29 दिसंबर 2018 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गाज़ीपुर की रैली में उन्हें बुलाया लेकिन वह नहीं आए। इसके बाद इसे सीधा प्रधानमंत्री से पंगा लेने के रूप में देखा गया। पीएम ने यहाँ सुहलदेव पर डाक टिकट जारी कर ओपी राजभर को चारों खाने चित कर दिया। लेकिन, भाजपा के अंदर तभी से इस बात को लेकर चर्चा चल रही थी कि पीएम की रैली स्किप करने का क्या परिणाम हो सकता है! यानी पूरी योजना बनाने और इसे धरातल पर उतारने में 6 महीनों का समय लगा। वहीं अनिल राजभर को पीएम की रैली के लिए राजभर समुदाय के लोगों की भीड़ जुटाने का इनाम मिला। उन्होंने राजभरों की टीम बना कर पीएम की रैली के लिए व्यवस्था की।