हम भारतीय देश की जिन प्रमुख विशेषताओं पर गर्व करते हैं उनमें से एक है इस देश का लोकतंत्र। भारत का लोकतंत्र विश्व में सबसे बड़ा लोकतंत्र है। केवल इतना ही नहीं सत्ता का विकेंद्रीकरण, संघवाद, हमारी संसद, न्यायपालिका इत्यादि सभी गर्व करने लायक हैं। मगर इन गौरवशाली संस्थाओं और लोकतंत्र पर इतिहास में एक कलंक भी लगा है। दुनिया के सबसे विशाल लोकतंत्र पर लगा यह कलंक जब भी स्मरण किया जाएगा, उसे एक काले कालखंड के रूप में याद किया जाएगा, जब इस देश की व्यवस्था लोकतांत्रिक न होकर तानाशाही हो गयी थी।
जब सभी संस्थाएँ निरस्त हो चुकी थीं, और आम जनता अपने मूल अधिकार खो चुकी थी। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मारी जा चुकी थी और प्रधानमंत्री एक तानाशाह बन चुकी थीं। भारतीय लोकतंत्र का यह काला अध्याय ‘आपातकाल’ के नाम से जाना जाता है, और इस आपातकाल को काले अध्याय से नीचे की संज्ञा देना उस समय के संघर्षरत हुतात्माओं, महात्माओं के विरुद्ध होगा। यूँ तो इससे पहले दो बार देश में आपातकाल लगाया जा चुका था। एक, भारत-चीन युद्ध के समय 1962-1968 तक तथा दूसरी बार, भारत-पाक युद्ध के समय 1971 के दौरान भी इमरजेंसी लगाई गई थी।
इन दोनों ही परिस्थितियों में बाहरी विपदाओं के कारण आपातकाल लगाया गया था मगर इंदिरा गांधी ने 25 जून 1975 को लगाए गए आपातकाल पर आंतरिक सुरक्षा का हवाला दिया था, जो कि असल में मात्र इंदिरा गांधी के तानाशाही रवैये का विरोध था। कल ही संसद में लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष अधीर रंजन चौधरी ने इंदिरा गांधी को निर्मल गंगा समान कहा, लेकिन आपातकाल का अध्याय यह बताता है कि प्रतिशोध की भावना से काम करने वाली इंदिरा गांधी ने अपनी सत्ता बचाने के लिए देश की जनता को दांव पर लगा दिया था।
आपातकाल और प्रताड़ना:
25 जून 1975 की रात, तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी ने राष्ट्रपति श्री फखरुद्दीन अली अहमद से अनुरोध कर आपातकाल की घोषणा की। संविधान के अनुच्छेद 352 के अनुसार देश में आपातकाल की घोषणा राष्ट्रपति कैबिनेट की सलाह पर करते हैं, हालाँकि आपातकाल की जानकारी ख़ुद कैबिनेट को अगले दिन सुबह 6 बजे मिली। एक बार आपातकाल की घोषणा होते ही सभी संघीय शक्तियाँ निरस्त हो जाती हैं और देश में केवल एक केंद्रीय सत्ता रहती है। ऐसे क्षण में जनता के मूल अधिकार भी उनसे छीन लिए जाते हैं। यहाँ तक कि अपने अधिकारों के हनन के लिए कोई व्यक्ति न्यायालय भी नहीं जा सकता था। आपातकाल लागू होते ही इंदिरा गाँधी ने अपना तानाशाही रवैया लागू करना शुरू कर दिया। आपातकाल लागू होते ही कई विपक्षी नेताओं को हिरासत में ले लिया गया। इनमें राजनारायण, विजयराजे सिंधिया, जयप्रकाश नारायण, चौधरी चरण सिंह, मोरारजी देसाई, जीवनराम कृपलानी, अटल बिहारी वाजपेयी व लाल कृष्ण आडवाणी इत्यादि शामिल थे। ख़ुद कांग्रेस सरकार में मंत्री मोहन धारिया और चंद्रशेखर ने इस्तीफ़ा दे दिया। तमिलनाडु में एम करुणानिधि की सरकार को बर्खास्त कर दिया गया व उनके बेटे स्टालिन को मीसा के तहत गिरफ्तार कर लिया गया।
जेल में बंद नेताओं का थर्ड डिग्री का उत्पीड़न किया जाता था। कई नेताओं को पुलिस ने डंडे से पीटा, कई नेताओं के नाखून उखड़वा दिए। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ व जमात ए इस्लामी जैसे संगठनों पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। ऐसे नेता व संगठन अपनी गिरफ़्तारी व संगठन को निरस्त किये जाने का न तो विरोध कर सकते थे, न ही उसे न्यायालय में चुनौती दे सकते थे। हालाँकि इस आपातकाल को उखाड़ फेंकने में सबसे अहम किरदार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का ही था, इसे इंडियन रिव्यू के संपादक, पूर्व जस्टिस के टी थॉमस, शाह कमीशन भी मान चुका है।
तानाशाही का रवैया ऐसा था कि सरकार के विरोध में उठने वाले हर प्रयास को नाकाम कर, उन व्यक्तियों को जेल भेज दिया जाता था अथवा यदि वे किसी संगठन से जुड़े हैं तो उसे प्रतिबंधित किया जाता था। सरकार ने अनेक विरोध व हड़तालों को रोक दिया। कई सारे राजनेता, सरकार द्वारा गिरफ्तारी से बचने और अपना विरोध जारी रखने के लिए भूमिगत हो गए। सरकार के विरुद्ध लिखी जाने वाली हर ख़बर को सेंसर अर्थात निंदा मान छापने से रोक दिया जाता था, और छापने पर गिरफ़्तार किया जाता था। अखबारों ने विरोध के तौर पर अपने सम्पादकीय पृष्ठ को ख़ाली छोड़ना शुरू किया।
इसी बीच आपातकाल का विरोध करने के लिए कई पत्रकारों को भी गिरफ्तार कर लिया गया। तानाशाह होने का सबसे बड़ा रूप इंदिरा गाँधी ने अपने एक फ़ैसले में दिखाया, जिसे वह संविधान में संशोधन के रूप में लेकर आईं। इस फ़ैसले के द्वारा राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति व प्रधानमंत्री के कार्यालय के फैसलों को न्यायलय में चुनौती दिया जाना असंभव कर दिया गया। संविधान में 42वें संशोधन द्वारा अनैतिक व काले कानून जोड़े गए। इसके माध्यम से आम चुनाव की अवधि 5 वर्ष से बढ़ाकर 6 वर्ष कर दी गयी थी, और ऐसे भी नियम बनाए गए थे कि आपातकाल में चुनाव की अवधि एक वर्ष अधिक बढ़ा दी जाए।
इंदिरा गांधी का यह प्रयास ऐसा था मानो वह कभी चाहती ही नहीं थी कि चुनाव कराए जाएं। 1 मार्च 1976 को केरल में पुलिस ने राजन नाम के एक व्यक्ति को बिना कारण गिरफ्तार कर लिया था। पुलिस हिरासत में उसे पीटा गया व उसकी मौत हो गयी। ऐसे ही अनेक मामले कभी जनता के सामने नहीं आ सके। इंदिरा व उनके सिरफिरे बेटे संजय गाँधी के नेतृत्व में देशभर में जबरन नसबंदी के कार्यक्रम चलाए गए। संजय गाँधी अपने सपने, कम जनसंख्या वाले भारत को देखने के लिए जबरन नसबंदी कराने पर उतारू हो गए थे। इसके कारण देशभर के अनेक लोग उत्पीड़ित किये गए, जिनमें से कई ने अपनी जान तक गंवाई।
कई लोगों की जबरन दो बार नसबंदी कराई गयी और कई आजीवन विकलांग बन गए। केवल इतना ही नहीं नसबंदी के लिए पुलिस ने कई जगह दंगों जैसे हालात बना दिए और कई जगह पर तो उन्हें आँसू गैस के गोले तक छोड़ने पड़े थे। उत्पीड़न की सीमा यहीं नहीं समाप्त हो जाती, प्रसिद्ध गायक किशोर कुमार को जब सरकार के लिए एक कार्यक्रम में गाने को कहा गया तो उन्होंने मना कर दिया, जिसके बाद से गैर आधिकारिक रूप से रेडियो पर उनके गाने चलाने बन्द कर दिए गए।
दूरदर्शन और रेडियो का प्रयोग सरकार के एजेंडे को चलाने के लिए किया गया। कई फिल्मों पर प्रतिबंध लगा दिया व उन्हें रिलीज़ होने से रोक दिया। पुरानी दिल्ली में तुर्कमान गेट और जमा मस्ज़िद के पास के झोपड़ियों को ध्वस्त कर दिया गया।
विरोध, संघर्ष व विजय:
आपातकाल का सबसे पहला विरोध समाचार पत्रों व पत्रिकाओं ने किया। उनमें लेख लिखकर, संपादकीय खाली छोड़ कर, सेंसरशिप के सामने झुकने के बजाए बन्द हो जाने के रास्ते को चुनकर पत्रिकाओं ने आपातकाल का सबसे पहला विरोध किया। अवार्ड वापसी का दौर उस समय भी चला था हालाँकि उस समय इंदिरा गांधी के डर के कारण अवार्ड वापस करने के लिए बहुत अधिक नाम सामने नहीं आ सके थे ऐसे में हिंदी के साहित्यकार फणीश्वरनाथ रेणु ने अपना पद्मश्री सम्मान व कर्नाटक से कन्नड़ साहित्यकार शिवर्म करनाथ ने अपना पद्म भूषण लौटा दिया था।
विरोध का सिलसिला यहीं नहीं थमा, देश के 9 उच्च न्यायालयों ने सर्वोच्च न्यायालय में गुहार लगाई कि आपातकाल होने के बावजूद देश की जनता को अपनी गिरफ्तारी के ख़िलाफ़ न्यायालय जा कर उसे चुनौती देने का अधिकार मिलना ही चाहिए, जिसे इंदिरा गाँधी द्वारा नियुक्त किये गए न्यायाधीश ए एन राय ने खारिज कर दिया। आपातकाल का अगर किसी संगठन ने मुखर रूप से विरोध किया और उसे समाप्त किया तो वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संगठन था। प्रतिबंधित होने के बावजूद संघ के भूमिगत कार्यकर्ताओं (जिनमें आज के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी भी थे) ने योजना बनाकर, जेल में बंद नेताओं से मुलाक़ात करते हुए आपातकाल का विरोध जारी रखा। एमनेस्टी इंटरनेशनल के मुताबिक आपातकाल में हिरासत में लिए गए कार्यकर्ताओं व नेताओं की संख्या 1 लाख 40 हज़ार से भी अधिक थी और उनमें 1 लाख से भी अधिक कार्यकर्ता व नेता आरएसएस से जुड़े थे।
उन दिनों ‘द इकोनॉमिस्ट’ ने संघ को ‘विश्व का एकमात्र ग़ैर वामपंथी क्रांतिकारी संघठन’ घोषित किया था। कुछ दिनों पहले ही सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश जस्टिस के टी थॉमस आरएसएस को आपातकाल से मुक्त कराने वाला बता चुके हैं। संघ के तृतीय वर्ष शिविर में उन्होंने कहा- “अगर किसी संगठन को आपातकाल से देश को मुक्त कराने के लिए क्रेडिट दिया जाना चाहिए, तो मैं आरएसएस को दूंगा।” आपातकाल के दौरान संघ ने देशभर में सत्याग्रह का आयोजन किया जिसमें तकरीबन 1 लाख 30 हज़ार लोग जुड़े और उनमें से भी 1 लाख से अधिक लोग संघ के ही कार्यकर्ता थे। इतना ही नहीं, जो साहित्य आपातकाल के दौरान प्रतिबंधित किए जाते थे, संघ के भूमिगत कार्यकर्ताओं ने पूँजी लगाकर उन्हें प्रकाशित कराया और उनका वितरण भी किया।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के 100 कार्यकर्ता अधिकांश बंदी गृह और कुछ बाहर आपातकाल के दौरान बलिदान हो गए। उनमे संघ के अखिल भारतीय व्यवस्था प्रमुख श्री पांडुरंग क्षीरसागर भी थे। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ व उसके आनुषंगिक संगठनों ने इस आपातकाल के दौरान अहिंसा व सत्याग्रह जैसे रास्तों का सहारा लेकर इंदिरा गांधी को महात्मा गांधी जी का वह मार्ग दिखाया, जिससे वह भटक चुकी थीं। इस आंदोलन में हिस्सा लेते हुए सिख बंधुओं ने भी आपातकाल का विरोध किया था। अकाली दल के माध्यम से ‘लोकतंत्र बचाओ अभियान’ चलाया गया। शिरोमणि अकाली दल, शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमिटी के सदस्यों को भी हिरासत में लिया गया था।
करीबन 19 महीने आपातकाल चलने के बाद इंदिरा गाँधी को यह एहसास हुआ कि अब शायद देश में उनका विरोध समाप्त हो गया है और फिर उन्होंने चुनाव कराने का फैसला किया। जनवरी 1977 में चुनावों की घोषणा हुई, हालाँकि आपातकाल मार्च 1977 में चुनावों के साथ समाप्त हुआ। इस तरह 21 महीने इंदिरा गांधी के तानाशाही शासन में भारतीय लोकतंत्र को बंदी बनकर रहना पड़ा। चुनाव के दौरान अधिकांश विपक्षी दल एकजुट होकर जनता पार्टी के रूप में आए, उन्होंने लोकतंत्र को जीवित रखने की ख़ातिर इंदिरा गांधी को हटाने का आह्वान किया। जनता मन बना चुकी थी, और 1977 में तानाशाही की हार हुई। जनता पार्टी 298 सीटें लेकर बहुमत में आई और पहली ग़ैर कांग्रेसी सरकार बनी जिसमें मोरारजी देसाई देश के पहले ग़ैर कांग्रेसी प्रधानमंत्री बने। कांग्रेस 92 सीटों पर सिमट कर रह गयी, जिनमें से अधिकांश सीटें उसे दक्षिण भारत में मिली। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का सूपड़ा साफ हो गया। इंदिरा व उनके बेटे संजय गाँधी स्वयं चुनाव हार गए। आने वाले समय में जनता पार्टी ने इंदिरा गाँधी को जेल भी भेजा, संविधान में हुए बदलावों को ठीक किया और दो सालों तक देश को इंदिरा गाँधी से मुक्त रखा।
हालांकि 5 साल का कार्यकाल पूरा किये बिना ही जनता पार्टी की सरकार गिर गयी, लेकिन आपातकाल के दौरान के संघर्ष ने इंदिरा गाँधी को वह सबक सिखा दिया, जिसकी उन्हें आवश्यकता थी। इंदिरा गाँधी और आने वाली कोई भी पीढ़ी अब आपातकाल लगाने का स्वप्न भी नहीं देख सकती थी।