केंद्र सरकार ने भारतीय जनता पार्टी के प्रवक्ता और अवकाश प्राप्त आईपीइस अफसर इक़बाल सिंह लालपुरा को राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग का अध्यक्ष नियुक्त किया है। राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के इतिहास में ऐसा केवल दूसरी बार हुआ है, जब एक गैर मुस्लिम को आयोग का अध्यक्ष नियुक्त किया गया है। इसके पहले 2003 में स्वर्गीय अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्रित्व काल में तत्कालीन एनडीए सरकार ने सरदार तरलोचन सिंह को आयोग का अध्यक्ष नियुक्त किया था। इस नियुक्ति के पहले आयोग के अध्यक्ष सैय्यद एसजीएच रिज़वी थे। आयोग के वर्तमान उपाध्यक्ष अतीफ रिज़वी हैं।
राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग का गठन 1978 में जनता पार्टी की सरकार के समय हुआ था और उसके पहले अध्यक्ष एमआर मसानी थे। हालाँकि तब आयोग संवैधानिक तौर पर स्वतंत्र नहीं था फिर भी उसके पास अल्पसंख्यकों से जुड़े मुद्दों पर सरकार को सलाह देने की एक भूमिका थी।
आयोग के पहले अध्यक्ष मसानी अधिक दिनों तक अध्यक्ष नहीं रहे और उन्होंने इस्तीफ़ा दे दिया। पर उसके बाद केंद्र सरकार द्वारा नियुक्त किए गए सारे अध्यक्ष मुस्लिम अल्पसंख्यक समाज, या कहें तो दूसरे सबसे बड़े समुदाय से रहे। आयोग के एक अध्यक्ष जस्टिस एमएच बेग तो दो अपने कार्यकाल के दौरान दो बार इसके अध्यक्ष नियुक्त किए गए।
लगता है जैसे राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष की नियुक्ति के समय तमाम सरकारों की यही सोच रही कि अल्पसंख्यक समुदाय में केवल एक ही समुदाय है और वह है मुस्लिम समुदाय। यदि यह सोच न होती तो अल्पसंख्यकों में शामिल बाकी समुदाय के लोगों में से किसी को आयोग का अध्यक्ष बनाया जाता।
पहली बार वर्ष 2003 में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने सरदार तरलोचन सिंह को आयोग का अध्यक्ष बनाया और अब दूसरी बार वर्तमान सरकार ने इक़बाल सिंह लालपुरा की नियुक्ति की है। वैसे यदि देखा जाए तो एक एक लोकतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्था में अल्पसंख्यक आयोग जैसी संस्था का रहना अपने आप में बड़ी विसंगति है पर यदि ऐसी कोई संस्था है भी तो क्या यह आवश्यक नहीं कि आयोग के पदों पर अन्य समुदाय के लोगों की भी नियुक्ति हो?
1992 में आयोग को संवैधानिक संस्था का दर्जा दिए जाने के बाद आयोग के पास अपना बजट, निर्णय लेने का अधिकार और अल्पसंख्यकों के कल्याण की योजनाएँ बनाने के अलावा कुछ मामलों में एक सिविल कोर्ट के जितना अधिकार है। ऐसे में क्या यह आवश्यक नहीं था कि पदों पर नियुक्तियों को लेकर सरकारें पारदर्शिता अपनाती?
इस आयोग के अध्यक्ष के रूप में डॉक्टर हामिद अंसारी और वजाहत हबीबुल्ला भी काम कर चुके हैं, जिन्हें हम वर्षों तक अन्य पदों पर देखते रहे हैं। ऐसे महानुभावों की नियुक्ति कुछ-कुछ वैसा ही आभास देती है जैसे आरक्षण का लाभ लेने वाला क्रीमी लेयर करता है। वर्षों से ऐसी नियुक्तियों का ही परिणाम है कि राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग द्वारा अल्पसंख्यक कल्याण के लिए किए गए काम पर सार्वजनिक चर्चाओं में केवल मुस्लिम समाज का जिक्र होता है।
यह विडंबना है कि राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग की उपस्थिति और उसे मिली संवैधानिक शक्तियों के बावजूद केवल मुस्लिमों की सामाजिक, शैक्षिक और आर्थिक स्थिति का पता लगाने के लिए जस्टिस सच्चर कमिटी का गठन तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉक्टर मनमोहन सिंह के कार्यालय द्वारा किया गया। ऐसे ही अल्पसंख्यकों के विरुद्ध हिंसा रोकने के लिए प्रिवेंशन ऑफ कम्युनल एंड टार्गेटेड वायलेंस बिल (2011), जिसे लेकर पूरे देश में सरकार की आलोचना हुई, को ड्राफ्ट करने का काम सोनिया गाँधी की अध्यक्षता वाली नेशनल एडवाइजरी कॉउंसिल ने किया था।
ऐसे में प्रश्न यह उठता है कि राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग का ऐसे राजनीतिक क़दमों के विरुद्ध क्या रवैया रहा? यह जानना दिलचस्प होगा कि संवैधानिक तौर पर मान्यता प्राप्त आयोग के गठन और उसे मिली शक्तियों के बावजूद ऐसे राजनीतिक फैसलों को लेकर राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग की क्या भूमिका रही?
इक़बाल सिंह लालपुरा की आयोग के अध्यक्ष पद पर नियुक्ति सरकार की नीयत और संविधान के प्रति उसकी आस्था, दोनों को दर्शाता है। राजनीतिक पंडित और विशेषज्ञ इसके बारे में अपने विचार रखेंगे पर यह प्रश्न अपनी जगह खड़ा रहेगा कि अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष के रूप में हमेशा एक समुदाय के लोगों को प्राथमिकता क्यों मिलती रही है? आशा है कि भविष्य में अल्पसंख्यक आयोग और उसमें नियुक्ति को लेकर सरकारें पारदर्शिता बरक़रार रखेंगी। यह संविधान और लोकतंत्र दोनों के लिए आवश्यक है।