मीडिया ने अपनी तरफ से कसर नहीं छोड़ी है कैम्पेनिंग में। लगातार नए झूठ बनाए गए, विचित्र तरह के सवाल उठाए गए, लेकिन हर तरफ से लगातार मुँह की खाने के बाद भी मीडिया ने मोदी को किसी भी तरह नीचे लाने के लिए अपनी रचनात्मकता, जिसे अंग्रेज़ी में क्रिएटिविटी कहते हैं, नहीं छोड़ी। हमने और आपने पिछले कुछ समय में ‘मोदी की जगह गडकरी’ वाली बात ज़रूर सुनी होगी।
ये वही मीडिया है, और ये वही लम्पटों का समूह है जो मोदी को घेरने के लिए एक हाथ पर यह कहता है कि विकास नहीं हुआ है, रोजगार कहाँ हैं, और दूसरे हाथ पर, फिर से मोदी को ही घेरने के लिए ही, यह कहता है कि गडकरी ने सही काम किया है, उसका काम दिखता है।
ये बात मैं भी मानता हूँ कि मैंने मोदी को किसी भी हाइवे पर बेलचा लेकर गिट्टी और कोलतार के मिक्सचर को उड़ेलते हुए नहीं देखा। न ही मैंने मोदी को किसी भी जगह कोलतार के ड्रम के नीचे आग लगाकर उसे गर्म करता देखा। मीडिया ने भी नहीं देखा, वरना कहते कि वो समुदाय विशेष वालों को जलाने के लिए ऐसा कर रहा है।
ख़ैर, जब मोदी ने न तो कोलतार खौलाया, न ही गिट्टी वाला मिक्सचर डाला, तो फिर इन्फ़्रास्ट्रक्चर बनाने का श्रेय मोदी को कैसे जाएगा?
तो बात यह है कि काम किया है गडकरी ने, इसलिए उसको प्रधानमंत्री बनाया जाना चाहिए, ऐसी बात स्टूडियो में गम्भीर चेहरा बनाकर, लोकतंत्र को हर रात मारने के बाद, माउथ टू माउथ देकर अगले दिन फिर से मारने के लिए ज़िंदा करने वाले एंकर लगातार करते दिख जाते हैं। एंकर न भी दिखे तो माओवंशी लम्पट पत्रकार गिरोह आँखों में चमक लिए, ऐसा कहता, लिखता, या बोलता नज़र आ ही जाता है।
इसका उद्देश्य कोई देश सेवा नहीं है। इसका उद्देश्य यह क़तई नहीं है कि उन्हें सच में लगता है कि मोदी की जगह गडकरी बेहतर होगा। नहीं, इसका उद्देश्य बस इतना है कि किसी तरह भाजपा भीतर से टूटने लगे। भला पीएम बनने की लालसा किसे नहीं होती? स्टूडियो में बैठा पत्रकार भी पद्मश्री पाने के बाद, अपने आप को राज्यसभा के माध्यम से पीएम की कुर्सी पर पहुँचने का सपना ज़रूर देख लेता है।
ऐसे में किसी नेता को यह बताना कि तुम्हारी क़ाबिलियत मोदी से ज्यादा है, और तुम्हें मीडिया का भी समर्थन हासिल है, यह एक ऐसा ऑफ़र है, जो वन कान्ट रिफ्यूज टाइप का है। आप जरा सोचिए इस बात को ठीक से कि इसके पीछे की मंशा क्या हो सकती है। नितिन गडकरी एक ऐसे मंत्री हैं जो भाजपा अध्यक्ष रह चुके हैं, मंत्रालय का काम हर शहर और गाँव में दिख रहा है, भाजपा के उन चुनिंदा मंत्रियों में हैं जिनके बारे में मीडिया और सोशल मीडिया ऑर्गेनिकली लिखता है।
ये एक तरीक़ा होता है एकता को तोड़ने का। लेकिन मीडिया यहाँ पर एक गलती कर रहा है। ‘दो सिगरेट हैं आपके पास और माचिस/लाइटर न हो, तो कैसे जलाएँगे’ वाले चुटकुले में आपको एक सिगरेट की बड़ाई करनी होती है और दूसरा ईर्ष्या से जल जाता है। मीडिया का लाइन यही है कि किसी तरह इस पार्टी के कोर ग्रुप में दरार पैदा करो, और महात्वाकांक्षा अपना काम कर देगी।
मीडिया यह भूल गई कि भाजपा उन मूल्यों से चलने वाली पार्टी नहीं है जिसमें इस तरह की बचकानी बातों से दरार आ जाए। जब मोदी राष्ट्रीय राजनीति में नहीं थे, तब उन्हें भाजपा ने नेतृत्व दिया था। अब तो उनके पास अनुभव है, हर तरह के काम हैं दिखाने के लिए, और जनता में स्वीकार्यता है, तब फिर भाजपा के भीतर कौन ऐसा मूर्ख होगा जो उससे अलग होकर अपनी सीट गँवाना चाहेगा?
जब मैं सीट गँवाने की बात करता हूँ तो मैं बहुत गम्भीर हूँ। सीट गँवाने से मतलब यह है कि जनता के लिए मोदी और भाजपा एक हैं, सरकार ‘मोदी सरकार’ के रूप में ज़्यादा प्रसिद्ध है, न कि राजग सरकार के रूप में। इसमें बहुत लोग तानाशाही खोज निकालेंगे, उनके लिए आयुष्मान योजना का प्रावधान है। मोदी सरकार का मतलब यह है कि सरकार और उसके मंत्रियों ने मिलकर ऐसा काम किया है कि कैबिनेट पार्टी के नाम से ऊपर, अपनी नेतृत्व क्षमता के बल पर उभर का सामने आ रहा है।
तो, इस भ्रम में रहना कि गडकरी का नाम दस बार फेंककर वो गडकरी को मोदी के विरोध में खड़ा कर लेंगे, या मजबूर कर देंगे कि NDA के बाकी नेता मोदी से अलग जाकर, गडकरी के साथ हो जाएँ, ऐसा कहना या सोचना मानसिक कमजोरी है। इसका मतलब है कि आपको राजनीति और मानवीय भावों को परखना नहीं आता।
जब बाकी दलों के नेता मोदी-शाह के कारण भाजपा में आना चाह रहे हैं, तो यह सोचना कि चुनावों के बाद कम सीट पड़ जाने पर कोई इन दोनों को मजबूर कर देगा, ये सस्ते नशे से उपजा हुआ विचार है। मोदी और शाह मजबूर नहीं होते, उनके जलवे से बाकी लोग मजबूर होकर भाजपा में आ रहे हैं। आप उन दो व्यक्तियों की संगठन क्षमता पर सवाल उठा रहे हैं जिन्होंने अल्पमत के बावजूद सरकारें बना रखी हों!
अब बात आती है कि क्या भाजपा को वाक़ई में बहुमत नहीं मिल पाएगा? संभव है कि ऐसा हो जाए। संभव है कि कर्नाटक की तरह केन्द्र में भी यूपीए की सरकार बनकर आ जाए जिसमें हर पार्टी की साझेदारी हो। और संभव है कि भाजपा को तीन सौ से ज़्यादा सीटें मिल जाएँ। संभव कुछ भी है, लेकिन मीडिया संभव की संभावना को प्रभावित करने में कोई कसर नहीं छोड़ रही।
बाद में 220 सीट मिले, यह एक संभावना है, लेकिन अभी से ही यह तय कर दिया जाए कि बाद में 220 सीट ही मिले, इसे सधा हुआ कैलकुलेशन कहते हैं। यहाँ आप विचारों से संभावना को निश्चितता की तरफ ढकेलते नज़र आते हैं। यहाँ आप डेस्पेरेशन में एक दाँव खेलते हैं कि लेट्स थ्रो सम शिट् ऑन द वाल एंड सी व्हाट स्टिक्स!
लेकिन, जब दीवार पर आपने फेंकी ही टट्टी है, तो चिपककर कुछ रह ही गया, तो उसका क्या हो पाएगा! अब उम्मीद का क्या करें, आशा पर ही जीवन चलता है। मीडिया यही आशा कर रहा है। मठाधीश लगे हुए हैं कि किसी तरह एक काल्पनिक बात को मेनस्ट्रीम किया जाए, और लोगों के बीच इस पर चर्चा चलाई जाए।
इसके केन्द्र में एक और ढकोसला है कि मोदी की छवि हार्ड कोर हिन्दुत्व नेता की तरह है, और कुछ लोग थोड़ा माइल्ड नेतृत्व चाहते हैं। पहली बात तो यह है कि मोदी हार्ड कोर हिन्दू ही नहीं बन पाया, और उसके कारण गाली भी खूब सुन रहा है। दूसरी बात यह है कि माइल्ड और अल्ट्रामाइल्ड सिगरेट होता है, सत्ता के नेतृत्व का एक ही ध्येय होता है: सत्ता पाना, सत्ता में होना, सत्ता को पास रखना, और हर बार सत्ता में आना।
मोदी के समर्थक तो चाहते हैं कि वो थोड़ा हार्डकोर हो। वो तो इस बात से नाराज हो जाते हैं कि वो ‘सबका साथ, सबका विकास’ की बात मोदी क्यों करता है जबकि समुदाय विशेष तो उसे वोट देने से रहा। कुछ समर्थकों ने इस पर कई बार सोशल मीडिया के ज़रिए अपनी बात रखी है कि मोदी को हिन्दुओं की बात करनी चाहिए क्योंकि हिन्दुओं ने उसे जिताया है।
इसलिए हार्ड और सॉफ़्ट वाला लॉजिक एकेडेमिक डिबेट और डीटैच्ड लॉजिक वाले पैनल डिस्कशन में खूब चलता है। इन लोगों ने जानबूझकर यह सोच रखा है कि जनता यही सोचती है। लेकिन, जनता क्या सोचती है, उसके लिए बाहर निकलना पड़ता है।
खैर, नितिन गडकरी को सच्चाई पता है, और उन्हें अपनी सीमाओं का भी भान है। इसलिए वो ऐसी अफ़वाहों को सिरे से ख़ारिज कर देते हैं कि भाजपा में एक ऐसा ग्रुप है जो चाहता है कि मोदी को 220 सीटें मिलें ताकि गडकरी को पीएम बनाया जाए। इसके भीतर का एक अनकहा लॉजिक यह बताया जाता है कि मोदी किसी को पैसा बनाने नहीं दे रहा, इसलिए मंत्री सत्ता तो चाहते हैं लेकिन प्रधानमंत्री की जगह मोदी को छोड़कर किसी और को चाहते हैं।
ये लॉजिक नहीं है, ये लम्पटों के भीतर बैठा चोर है जो सही चलती व्यवस्था पर विश्वास ही नहीं कर पा रहा कि कॉन्ग्रेस काल की डकैती क्यों नहीं हो पा रही। अब उनके पास कोसने के लिए रवीश जैसे लोगों के पास जो सवाल बचे हैं उनमें से प्रमुख यह हैं कि ‘आप मोदी से सवाल पूछिए कि कितने कपड़े पहने थे, रैलियों के डिज़ायनर कपड़े कहाँ से आते हैं।’ मैं मजाक नहीं कर रहा, द वायर के एक कार्यक्रम में सरकार से सवाल पूछने को उकसाते हुए रवीश ने यही सवाल पूछने को कहा था।
इसलिए चिल मारिए। टीवी खूब देखा कीजिए, सोशल मीडिया पर खूब लिखिए। जो मन में आता है लिखिए। ये समय चुप रहने का नहीं है। लिखना नहीं आता, तो बोलिए।अगर आपके कारण पाँच आदमी प्रभावित हो रहा है, तो कीजिए। चाहे आप जिस विचारधारा से चलते हों, तर्क का दामन मत छोड़िए। थोड़ा दिमाग लगाइएगा तो पता चल जाएगा कि मीडिया आपको कैसे प्रभावित करने की कोशिश में है।
जब मीडिया नितिन गडकरी को, इंटरव्यू के लिए समय लेने के बाद, इस तरह से भटकाने की कोशिश करता है, तो आप तो फिर भी आम जनता कहलाते हैं।