भारत की स्वतंत्रता और उसके बाद के राष्ट्र निर्माण में कई संगठनों ने अपनी भूमिका निभाई, लेकिन जो संगठन निरंतरता और समर्पण के साथ पिछले सौ वर्षों से राष्ट्र की सेवा कर रहा है, वह है राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS)। संघ की यात्रा केवल संगठनात्मक नहीं है, बल्कि यह एक विचारधारा की यात्रा है, जो समाज के हर वर्ग को एकजुट कर भारत को सांस्कृतिक, सामाजिक और राजनीतिक रूप से एक सशक्त राष्ट्र बनाने की दिशा में कार्यरत है।
RSS की स्थापना: राष्ट्र की सेवा का एक महान विचार
सन 1925 का वर्ष भारतीय इतिहास में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर साबित हुआ। डॉक्टर केशव बलिराम हेडगेवार ने उस समय देश के सामने आ रही चुनौतियों को समझते हुए आरएसएस की स्थापना की। हेडगेवार का यह स्पष्ट विचार था कि केवल राजनीतिक स्वतंत्रता ही भारत को पूर्णरूपेण स्वतंत्र नहीं बना सकती, जब तक कि समाज का संगठनात्मक, सांस्कृतिक और नैतिक पुनरुत्थान न हो।
सन 1925 में विजयदशमी के दिन शुरू हुआ आरएसएस इस विजयदशमी पर अपने 99 वर्ष पूरे करके 100वे वर्ष में प्रवेश कर गया है। डॉक्टर हेडगेवार के अनुसार, समाज को संगठित और सशक्त करने के लिए एक दीर्घकालिक और अनुशासित आंदोलन की आवश्यकता थी, जिसे आरएसएस के माध्यम से साकार किया गया। भारतीय समाज में कई ऐसे तत्व थे, जो इसे भीतर से कमजोर कर रहे थे।
उनका मानना था कि जातिवाद, सांप्रदायिकता और बाहरी सांस्कृतिक प्रभावों ने भारत के सामाजिक ताने-बाने को कमजोर कर दिया था। इनका समाधान केवल संगठित और अनुशासित समाज से ही संभव था, जो देश के सांस्कृतिक और आध्यात्मिक मूल्यों पर आधारित हो। इसी विचार को ध्यान में रखते हुए RSS ने एक सशक्त, संगठित और अनुशासित समाज की नींव रखी, जो राष्ट्र के पुनर्निर्माण में सहायक हो।
संघ का प्रारंभिक स्वरूप और विचारधारा
आरएसएस की शुरुआत बहुत ही छोटे स्तर पर हुई थी। हेडगेवार ने कुछ युवा लोगों को संगठित किया और उन्हें राष्ट्र सेवा, अनुशासन और संगठन के सिद्धांतों से प्रेरित किया। प्रारंभिक शाखाओं में शारीरिक प्रशिक्षण, बौद्धिक चर्चाएँ और राष्ट्रभक्ति की शिक्षा दी जाती थी। संघ की शाखाएँ एक प्रकार से प्रशिक्षण केंद्र थीं, जहाँ हर स्वयंसेवक को राष्ट्रहित में अपनी भूमिका निभाने के लिए प्रेरित किया जाता था।
डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार का जीवन और नेतृत्व
डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार का जन्म 1889 में हुआ था। उन्होंने अपनी शिक्षा के दौरान भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय रूप से भाग लिया था। कॉन्ग्रेस से जुड़े होने के बावजूद, उन्होंने महसूस किया कि राजनीतिक आजादी से अधिक महत्वपूर्ण सामाजिक संगठन और सांस्कृतिक पुनरुत्थान है। यही विचार उनके जीवन के केंद्र में रहा और आरएसएस की स्थापना में भी इसे ही प्राथमिकता दी गई।
डॉक्टर हेडगेवार ने एक ऐसे संगठन का सपना देखा जो समाज को एकजुट कर सके और हर व्यक्ति को राष्ट्र सेवा के लिए प्रेरित कर सके। आखिरकार डॉक्टर हेडगेवार के नेतृत्व में आरएसएस का प्राथमिक लक्ष्य एक ऐसे समाज का निर्माण करना था, जो अपने अंदर किसी भी प्रकार की विभाजनकारी मानसिकता को जगह न दे।
उनके विचारों में स्पष्ट था कि भारत को एक सशक्त राष्ट्र बनने के लिए समाज के सभी वर्गों के बीच समरसता और एकता की आवश्यकता है। इसी विचार के तहत राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने कार्य करना शुरू किया और धीरे-धीरे यह संगठन पूरे भारत में अपनी शाखाओं के माध्यम से फैलने लगा।
RSS का विस्तार और विकास: गुरुजी का नेतृत्व (1940-1973)
माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर, जिन्हें गुरुजी के नाम से जाना जाता है, सन 1940 में डॉक्टर हेडगेवार के निधन के बाद संघ के दूसरे सरसंघचालक बने। गुरुजी का कार्यकाल संघ के लिए विस्तार और विचारधारा के सुदृढ़ बनाने का समय था। डॉक्टर हेडगेवार ने जिस नींव पर संघ की स्थापना की थी, गोलवलकर उर्फ गुरुजी ने उसे एक व्यापक रूप दिया।
उन्होंने संघ को न केवल संगठनात्मक रूप से बल्कि वैचारिक रूप से भी सशक्त बनाया। गुरुजी का मानना था कि भारत केवल एक भौगोलिक इकाई नहीं है, बल्कि यह एक सांस्कृतिक राष्ट्र है, जिसकी जड़ें उसकी प्राचीन सभ्यता और मूल्यों में हैं। उन्होंने भारत की सांस्कृतिक विरासत को पुनर्जीवित करने और उसे आधुनिक भारत की पहचान बनाने की दिशा में कार्य किया।
उनके नेतृत्व में संघ ने समाज के हर वर्ग तक पहुँचने और उन्हें राष्ट्र निर्माण की दिशा में प्रेरित किया। गुरुजी ने स्वयंसेवकों को यह सिखाया कि राष्ट्र सेवा का अर्थ केवल राजनीतिक गतिविधियों में भाग लेना नहीं है, बल्कि समाज के हर क्षेत्र में अपना योगदान देना है। चाहे वह शिक्षा हो, स्वास्थ्य हो, ग्रामीण विकास हो या सामाजिक सुधार – स्वयंसेवक हर क्षेत्र में पुनर्निर्माण के लिए कार्य करना है।
संघ पर पहला प्रतिबंध: गाँधी जी की हत्या और संघ का संघर्ष
सन 1948 में महात्मा गाँधी की हत्या के बाद संघ को पहली बार प्रतिबंध का सामना करना पड़ा। महात्मा गाँधी की हत्या के बाद तत्कालीन पंडित नेहरू की अगुवाई वाली सरकार ने आरोप लगाया कि इस घटना के पीछे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का हाथ है। इस आरोप के आधार पर आरएसएस पर प्रतिबंध लगा दिया गया और संघ के कई प्रमुख नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया।
हालाँकि, संघ का इस हत्या से कोई सीधा संबंध नहीं था, लेकिन उस समय की राजनीतिक परिस्थितियों में यह प्रतिबंध लगाया गया। संघ ने इस आरोप को न केवल नकारा, बल्कि अपनी निर्दोषता को साबित करने के लिए कानूनी लड़ाई भी लड़ी। जाँच आयोग की रिपोर्ट में स्पष्ट किया गया कि संघ का महात्मा गाँधी की हत्या में कोई हाथ नहीं था और इस आधार पर प्रतिबंध हटा लिया गया।
संघ का समाजिक सेवा कार्य और विस्तार
माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर उर्फ गुरुजी के नेतृत्व में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अपनी शाखाओं का विस्तार किया और पूरे भारत में अपने कार्यों को फैलाया। संघ के स्वयंसेवक देश के कोने-कोने में समाज सेवा के विभिन्न कार्यों में जुट गए। संघ के सेवा कार्य केवल आपातकालीन परिस्थितियों तक सीमित नहीं थे। संघ ने शिक्षा, स्वास्थ्य, ग्रामीण विकास और समाज कल्याण जैसे क्षेत्रों में भी अहम योगदान दिया।
संघ के स्वयंसेवकों ने आपदा प्रबंधन में भी अग्रणी भूमिका निभाई। विद्या भारती जैसी संस्थाओं के माध्यम से संघ ने शिक्षा के क्षेत्र में अपना योगदान दिया। विद्या भारती के तहत संचालित स्कूलों में न केवल शिक्षा दी जाती है, बल्कि भारतीय संस्कार और सांस्कृतिक मूल्यों का भी प्रचार-प्रसार किया जाता है। इसी प्रकार, सेवा भारती जैसे संगठनों के माध्यम से संघ ने ग्रामीण और वंचित क्षेत्रों में सेवा कार्यों को बढ़ावा दिया।
बाला साहेब देवरस: सामाजिक सुधार और दलित उत्थान (1973-1994)
गुरुजी के बाद बाला साहेब देवरस ने सन 1973 में संघ का नेतृत्व सँभाला। उनके कार्यकाल में संघ ने सामाजिक सुधारों की दिशा में बड़े कदम उठाए। बाला साहेब का मानना था कि समाज में जातिवाद और भेदभाव को समाप्त किए बिना सच्चे राष्ट्र निर्माण का सपना साकार नहीं हो सकता। उन्होंने समाज के पिछड़े और दलित वर्गों के उत्थान के लिए कई कार्यक्रम चलाए।
बाला साहेब के नेतृत्व में संघ ने समाज के सभी वर्गों को एक साथ लाने की दिशा में प्रयास किए। उन्होंने समाज के हर व्यक्ति को समान अधिकार और सम्मान दिलाने के लिए संघ के कार्यों को गति दी। उनके नेतृत्व में संघ ने एक ऐसा समाज बनाने की दिशा में काम किया, जहाँ हर व्यक्ति को उसकी जाति, धर्म या सामाजिक स्थिति के आधार पर नहीं बल्कि उसके गुणों और कार्यों के आधार पर सम्मान मिले।
आपातकाल और दूसरा प्रतिबंध: लोकतंत्र की रक्षा के लिए संघ का संघर्ष (1975)
सन 1975 में प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी की नेतृत्व वाली कॉन्ग्रेस की सरकार ने आपातकाल की घोषणा की। इसमें संविधान के कई प्रावधानों को निलंबित कर दिया गया और विपक्षी दलों, संगठनों और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर प्रतिबंध लगा दिया गया। इस समय राष्ट्रीय स्वयंसवेक संघ ने लोकतंत्र की रक्षा के लिए गुप्त रूप से आंदोलन चलाया।
संघ के स्वयंसेवकों ने आपातकाल के दौरान लोकतंत्र की बहाली के लिए कठिन संघर्ष किया। इस समय संघ के कई नेताओं और कार्यकर्ताओं को जेल में डाल दिया गया, लेकिन उन्होंने अपने संघर्ष को जारी रखा। सन 1977 में जब आपातकाल समाप्त हुआ और लोकतंत्र की बहाली हुई, तब संघ की भूमिका को व्यापक स्तर पर सराहा गया।
प्रोफेसर राजेन्द्र सिंह उर्फ रज्जू भैया का नेतृत्व (1994-2000)
प्रोफेसर राजेन्द्र सिंह को रज्जू भैया के नाम से जाना जाता था। रज्जू भैया संघ के चौथे सरसंघचालक बने। रज्जू भैया एक महान शिक्षाविद् और विद्वान थे, जिन्होंने संघ के कार्यों को शिक्षा और बौद्धिक क्षेत्रों में विस्तार दिया। उनके नेतृत्व में संघ ने शिक्षा के क्षेत्र में नए प्रयास किए और युवाओं को संघ के विचारों से जोड़ने का कार्य किया।
रज्जू भैया का मानना था कि राष्ट्र का भविष्य उसकी युवा पीढ़ी में निहित होता है। उन्होंने संघ के कार्यों को युवाओं तक पहुँचाने और उन्हें राष्ट्र निर्माण की दिशा में प्रेरित करने के लिए अनेक कार्यक्रम चलाए। उनके नेतृत्व में संघ ने शैक्षिक सुधार, नैतिक शिक्षा और सांस्कृतिक पुनर्जागरण के लिए कई महत्वपूर्ण कदम उठाए।
बाबरी मस्जिद विध्वंस और तीसरा प्रतिबंध (1992)
सन 1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस की घटना के बाद संघ पर तीसरी बार प्रतिबंध लगाया गया। इस घटना ने पूरे देश को हिलाकर रख दिया था और संघ पर इस घटना के पीछे होने का आरोप लगा था। इस समय भी संघ ने संयमित रुख अपनाया और कानूनी प्रक्रिया के तहत अपनी निर्दोषता साबित की।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने हमेशा यह स्पष्ट किया कि उसका उद्देश्य समाज में शांति, समरसता और राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा देना है। इस घटना के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) ने समाज को जोड़ने और सांप्रदायिक सद्भावना को पुनः स्थापित करने के लिए कई कदम उठाए।
सुदर्शन जी का नेतृत्व (2000-2009): स्वदेशी और आत्मनिर्भरता की दिशा में
कुप्प. सी. सुदर्शन, जिन्हें सुदर्शन जी के नाम से जाना जाता है, ने सन 2000 से सन 2009 तक संघ का नेतृत्व किया। उनके नेतृत्व में संघ ने स्वदेशी, आत्मनिर्भरता और पर्यावरण संरक्षण की दिशा में कई महत्वपूर्ण कार्य किए। उनका मानना था कि भारत को सशक्त बनने के लिए स्थानीय संसाधनों और परंपराओं का उपयोग करना चाहिए। उन्होंने स्वदेशी एवं आत्मनिर्भरता के लिए कई कार्यक्रम चलाए।
सुदर्शन जी के कार्यकाल में संघ ने पर्यावरण संरक्षण, जैविक खेती और स्वदेशी उत्पादों के उपयोग की दिशा में जागरूकता फैलाने के लिए कई अभियान चलाए। उनका नेतृत्व संघ के लिए आधुनिकता और परंपरा के बीच संतुलन बनाने का समय था। उन्होंने भारतीय ज्ञान, विज्ञान, और परंपराओं को आधुनिक संदर्भ में पुनः स्थापित करने की दिशा में काम किया।
मोहन भागवत: वर्तमान में संघ का नेतृत्व (2009-वर्तमान)
वर्तमान में संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत हैं, जिन्होंने साल 2009 में यह पदभार सँभाला। उनके नेतृत्व में संघ ने समाज के हर वर्ग तक पहुँचने के लिए कई नई पहल की। मोहन भागवत का मानना है कि समाज में समरसता, महिला सशक्तिकरण और पर्यावरण संरक्षण जैसे मुद्दों पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है। उनके नेतृत्व में संघ ने समाज के हर वर्ग को एक साथ लाने का प्रयास किया।
उनके नेतृत्व में संघ ने समाज में व्याप्त जातिवाद एवं भेदभाव को समाप्त करने के लिए कई कार्यक्रम चलाए। इस वर्तमान दौर में महिला सशक्तिकरण, पर्यावरण संरक्षण और सामाजिक समरसता प्रमुख मुद्दे हैं, जिन पर संघ विशेष ध्यान दे रहा है। मोहन भागवत के नेतृत्व में संघ का यह प्रयास है कि भारत एक ऐसे राष्ट्र के रूप में उभरे, जहाँ हर व्यक्ति को समान अवसर और सम्मान मिले।
संघ का सामाजिक, सांस्कृतिक एवं राजनीतिक योगदान
आरएसएस ने अपने सेवा कार्यों के माध्यम से समाज के हर वर्ग तक पहुँचने का प्रयास किया है। संघ के सेवा कार्य केवल किसी आपदा या संकट के समय तक सीमित नहीं रहे, बल्कि यह समाज के हर क्षेत्र में सक्रिय रूप से कार्यरत है। संघ ने शिक्षा, स्वास्थ्य, ग्रामीण विकास और सामाजिक सुधारों के क्षेत्रों में अद्वितीय योगदान दिया है।
विद्या भारती जैसे संगठन के माध्यम से संघ ने शिक्षा के क्षेत्र में क्रांति की है। विद्या भारती के तहत संचालित विद्यालयों में लाखों छात्रों को न केवल शिक्षित किया जाता है, बल्कि उन्हें नैतिक शिक्षा और भारतीय संस्कृति से भी जोड़ा जाता है। इसी प्रकार, सेवा भारती के माध्यम से संघ ने ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य और शिक्षा के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया है।
संघ ने भारतीय संस्कृति और परंपराओं के संरक्षण के लिए भी अद्वितीय कार्य किए हैं। संघ ने योग, आयुर्वेद और सांस्कृतिक कार्यक्रमों के माध्यम से भारतीय ज्ञान और विज्ञान की प्राचीन विधाओं को पुनर्जीवित किया है। संघ के विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भारतीय संगीत, नृत्य, और कला के माध्यम से भारतीय संस्कृति का प्रचार-प्रसार किया जाता है।
संघ एक गैर-राजनीतिक संगठन है, लेकिन इसका प्रभाव भारतीय राजनीति पर दिखता है। संघ ने राजनीति में नैतिकता, सेवा, और राष्ट्रप्रेम के मूल्यों को आगे बढ़ाने का कार्य किया है। संघ से जुड़े कई राजनेता और सामाजिक कार्यकर्ता भारतीय राजनीति में सक्रिय हैं और राष्ट्र हित में कार्य कर रहे हैं। भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) जैसी राजनीतिक पार्टियों के निर्माण और विकास में संघ का महत्वपूर्ण योगदान रहा है।
संघ की वैश्विक पहचान और राष्ट्र निर्माण में बढ़ते कदम
आज राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) केवल भारत तक ही सीमित नहीं है, बल्कि इसकी पहचान विश्व स्तर पर स्थापित हो चुकी है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से प्रेरित होकर कई संगठन विदेशों में भी भारतीय संस्कृति, योग और सामाजिक सेवाओं का प्रचार-प्रसार कर रहे हैं।
संघ 100 वर्षों की यात्रा पूरी करने के बाद भी अपने लक्ष्य और उद्देश्यों के प्रति उतना ही समर्पित है, जितना कि अपने प्रारंभिक दिनों में था। संघ का उद्देश्य समाज के हर व्यक्ति को राष्ट्र सेवा की दिशा में प्रेरित करना और भारत को एक सशक्त, संगठित और आत्मनिर्भर राष्ट्र बनाना है।