इस महीने की चार घटनाएँ भारत की विदेश नीति के लिहाज से दूरगामी महत्व की हैं।
• पहली, रूस के विदेश मंत्री सर्गेई लावरोव की भारत यात्रा।
• दूसरी, भारत और चीन के सेना कमांडरों के बीच पूर्वी लद्दाख से सेना वापसी को लेकर 11वें दौर की बातचीत।
• तीसरी, अमेरिकी कॉन्ग्रेस की रिसर्च सर्विस रिपोर्ट का अचानक भारतीय मीडिया में आना
• चौथी, अमेरिकी नौसेना के सातवें बेड़े द्वारा लक्षद्वीप के पास भारत के विशिष्ट आर्थिक क्षेत्र जोन का खुल्लमखुल्ला अतिक्रमण।
ये चारों घटनाएँ सतही तौर पर विदेश नीति के मौजूदा दौर की सामान्य घटनाएँ सी लगती हैं। पर थोड़ा बारीकी से देखें तो ये घटनाएँ अलग-अलग होते हुए खूब घुली-मिली हैं। ये भारत के दूरगामी हितों पर गहरा असर करेंगीं।
9 अप्रैल को भारत में लक्षद्वीप के पास भारत के विशिष्ट आर्थिक क्षेत्र यानी ‘एक्सक्लूसिव इकोनॉमिक जोन’ में अमेरिका का सातवाँ बेड़ा घुस आया। घुसने से पहले ना तो इसने भारत को सूचना देना उचित समझा, ना ही दोनों देश के बीच इसको लेकर कोई अन्य संपर्क हुआ। अति तो तब हो गई, जब सातवें बेड़े की ओर से एक प्रेस विज्ञप्ति जारी की गई। इसमें कहा गया कि अमेरिका को यह हक है कि वह इन इलाकों में जब चाहे अपनी नौसेना को भेज सकता है।
प्रेस विज्ञप्ति में कहा गया कि अंतरराष्ट्रीय नियमों के अनुसार भारत को पहले सूचना देना जरूरी नहीं था। विज्ञप्ति में अमेरिकी बेड़े की इस गतिविधि को अमेरिका की “नौ परिवहन की आज़ादी” से जोड़ दिया गया। ध्यान देने की बात है कि अमेरिका के बेड़े पहले भी भारत की सीमा में आते-जाते रहे हैं। लेकिन एक दूसरे की संवेदनशीलता का ध्यान रखते हुए हमेशा इनकी सूचना पहले दी जाती थी। भारत-अमेरिका दोस्ती की ये कैसी अजीब मिसाल है?
भारत और अमेरिका के संबंध पिछले दो दशक में काफी गहरे हुए हैं। दोनों सेनाओं के बीच कई साझा युद्ध अभ्यास हुए हैं। पिछले नवंबर में ही मालाबार संयुक्त युद्धाभ्यास में अमेरिका, जापान, ऑस्ट्रेलिया और भारत की नौसेनाओं ने हिस्सा लिया था। इन चारों देशों का शिखर सम्मेलन ‘क्वाड’ यानी चौगुटे के नाम से पिछले महीने ही हुआ था।
दोनों देशों की तरफ से ये बात लगातार दोहराई जाती रही है कि लोकतान्त्रिक व्यवस्थाओं के कारण अमेरिका और भारत का रिश्ता प्राकृतिक और सहज है। अगर सचमुच में ऐसा है तो फिर अमेरिकी नौसेना की विज्ञप्ति में ऐंठन भरी भाषा का इस्तेमाल क्यों किया गया? यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है। इसकी विवेचना भी बेहद ज़रूरी है।
यहीं पर रूस के विदेश मंत्री सर्गेई लावरोव के भारत दौरे का जिक्र ज़रूरी है। वे पाँच और छह अप्रैल को भारत आए और फिर दो दिन के लिए पाकिस्तान गए। रूस और भारत के संबंध भी बहुत पुराने हैं। भारत रूस से बहुत हथियार मँगाता है। फिलहाल भारत एस-400 मिसाइल वायु सुरक्षा प्रणाली रूस से खरीदने का फैसला कर चुका है। इसे लेकर अमेरिका और भारत के बीच में थोड़ी तनातनी है। अमेरिका कहता रहा है कि भारत ने अगर इसे खरीदा तो उसके खिलाफ प्रतिबंध लग सकते हैं। विदेश मंत्री लावरोव से भारत की कई मुद्दों पर बातचीत हुई। भारत ने स्पष्ट किया कि वह रूस से हथियार मँगाता रहेगा।
ये संयोग नहीं है कि रूस के विदेश मंत्री के भारत दौरे के चार दिन के भीतर ही अमेरिकी नौसेना ने ये हरकत की। इसके कई मतलब निकाले जा सकते हैं। क्या अमेरिका ने भारत को इस जरिए एक परोक्ष धमकी दी है? अगर हाँ, तो क्यों? ये सोचने की बात है।
अंतरराष्ट्रीय राजनीति की भाषा में कई बार बातें सीधे-सीधे नहीं कही जातीं। क्या अमेरिका ने सातवें बेड़े के जरिए इस बार पीछे से भारत का कान उमेठने की कोशिश की है? अमेरिकी नौसेना का सातवाँ बेड़ा यों भी भारत को 1971 के बाँग्लादेश युद्ध के दौरान दी गई धमकी को लेकर कुख्यात है। लेकिन अमेरिका ने इस समय भारत के साथ ऐसा क्यों किया? इस गुत्थी को सुलझाना भारत के विदेश मंत्रालय के लिए नितांत आवश्यक है।
इसमें यह भी देखना होगा कि भारत-अमेरिका-जापान-ऑस्ट्रेलिया के चौगुटे को लेकर भारत और रूस के बीच में मतैक्य नहीं है। जहाँ अमेरिका और भारत, दक्षिणी चीन सागर के इलाकों को भारत-प्रशांत यानी ‘इंडो पेसिफिक’ कह कर बुलाते हैं, वहीं रूस अभी भी इसे एशिया-प्रशांत या ‘एशिया पेसिफिक’ कहता है।
रूस के विदेश मंत्री ने सीधे नहीं, लेकिन घुमाफिरा कर चौगुटे को चीन के खिलाफ एशियाई नाटो जैसी लामबंदी करार दिया। उन्होंने कहा कि इस इलाके के लिए और दुनिया के लिए ये लामबंदी ठीक नहीं है। लेकिन भारत ने स्पष्ट किया है कि ये चौगुटा चीन के खिलाफ नहीं है। और इसे एशियाई नाटो कहना सही नहीं होगा। चीन और रूस इस समय दोस्ती की पींगे बढ़ा रहे हैं। क्या लावरोव भारत को चीन का कोई सन्देश देने आए थे?
यहाँ अमेरिकी कॉन्ग्रेस की नवंबर 2020 की एक रिसर्च सर्विस रिपोर्ट का उल्लेख करना ठीक रहेगा। हालाँकि ये रिपोर्ट कोई 5 महीने पहले आई थी लेकिन भारत के कई अखबारों में इसे लेकर चर्चा अब हुई है। सवाल है इसे चर्चा में अभी ही क्यों लाया गया?
भारत पारंपरिक तौर से गुट निरपेक्ष विदेश नीति अपनाता रहा है। दूसरे विश्व युद्ध के बाद अमेरिका और रूस के बीच चले घनघोर शीत युद्ध के समय भारत जाहिर तौर पर किसी गुट का हिस्सा नहीं बना था। लेकिन जब अमेरिका और चीन शीतयुद्ध 2.0 में प्रवेश कर चुके हैं तो ऐसे में भारत के मौजूदा रुख की चर्चा जो इस रिपोर्ट में है, वो लाजिमी हो गई है। चौगुटे को लेकर, खासकर उसकी सैन्य धड़ेबंदी को लेकर भारत के संशय का जिक्र इस रिपोर्ट में है। अमेरिकी प्रतिष्ठान अब मानता है कि भारत को असमंजस छोड़ कर खुलकर अमेरिका के साथ आना चाहिए।
आपको याद दिलाना जरूरी है कि भारत चौगुटे को लेकर शुरू में बहुत उत्साहित नहीं था। चीन की हरकतों के कारण जो गलवान घाटी में हुआ, इसके परिणामस्वरूप जो सामरिक स्थितियाँ उभरीं, उसको देखते हुए भारत का अमेरिका से नज़दीकी एकदम स्वभाविक था। कई विशेषज्ञों का मानना है कि चीन के कम्युनिस्ट नेतृत्व ने जिस तरह से लद्दाख में सभी पुराने समझौतों का उल्लंघन किया, उसके बाद और आने वाले समय को देखते हुए चौगुटे को लेकर भारत ने अपनी राय बदली।
गलवान घाटी में चीन की सेना की धींगामुश्ती असल में चीन की बहुत बड़ी रणनीतिक भूल थी। क्योंकि इससे पहले भारत एक ओर चीन तो दूसरी ओर अमेरिका के बीच सामंजस्य और संतुलन बिठा कर चल रहा था। लेकिन राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने भारत को बाध्य कर दिया कि वह सामरिक दृष्टि और वैश्विक रणनीति को देखते हुए अमेरिका के साथ अपना सहयोग और ज्यादा मजबूत करे।
वहीं इसी हफ्ते भारत और चीन के कमांडरों के बीच पूर्वी लद्दाख में देपसांग, हॉट स्प्रिंग और घोगरा तथा अन्य इलाकों से सेना की वापसी को लेकर बातचीत का होना भी महत्वपूर्ण है। बातचीत का अभी तक कोई नतीजा नहीं आया है। असल मुद्दा है कि क्या चीन को अपनी गलती नज़र आएगी और भारत का खोया विश्वास पाने के लिए वह कोई कदम उठाएगा? या फिर उसकी भारत नीति पीपुल्स लिब्रेशन आर्मी के कठोरपंथियों के हाथ बंधक बनी रहेगी? एक बात तो चीन के नेतृत्व को समझ ही लेनी चाहिए कि वह दादागिरी के डंडे से भारत को नहीं हाँक सकता।
ख्याल रहे कि चौगुटे के देशों में से भारत ही इकलौता ऐसा देश है, जिसकी सीमाएँ चीन से मिलती हैं। उसी का चीन के साथ लंबा सीमा विवाद है। इसलिए सिर्फ वह चौगुटे के अन्य सदस्यों यानी जापान, ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका के हितों के लिए ही नहीं खेलेगा।
यह भी निर्विवाद है कि चीन और भारत पड़ोसी हैं। दोनों ही प्राचीन विरासत रखने वाली महान सभ्यताएँ हैं। ये महान सभ्यताएँ हमेशा के लिए चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व के झगड़ालू धड़े के ढीठपने की बंधक बनी नहीं रह सकतीं। ये तत्व अपनी जोर जबरदस्ती की मानसिकता के कारण इतिहास के साथ-साथ भारत और चीन की जनता के साथ भी ज्यादती कर रहे हैं। लेकिन चीन ने अगर मौजूदा रुख नहीं बदला तो भारत और अमेरिकी संबंध को लेकर वो सवाल भी नहीं उठा सकता है। यानी गेंद अब चीन के पाले में है। उसे सीमा को लेकर अपनी विस्तारवादी सोच को छोड़ कर भारत जैसे पड़ोसी का भरोसा जीतने के लिए सार्थक कदम उठाने ही होंगे।
भारत आज अंतरराष्ट्रीय जगत में ऐतिहासिक चुनौतियों के मोड़ पर खड़ा है। एक तरफ अमेरिका उसको पूरी तरह अपने पाले में लेने के लिए आतुर है; दूसरी तरफ सीमा पर चीन की जोर जबरदस्ती है; वहीं तीसरी ओर भारत और चीन के बीच का गहरा व्यापार भी है; और चौथी ओर रूस से उसकी पुरानी दोस्ती है। भारत को इन सबकी आवश्यकता है, सिर्फ ऐसा नहीं है। इन सबको भी भारत की जरूरत है।
भारत के लिए अगले कम से कम 2 दशक आम हिंदुस्तानी की बेहतर ज़िन्दगी के लिए विकास की अप्रतिम संभावनाओं के हैं। ये सही है कि इस समय देश चीन के साथ किसी पचड़े में नहीं पड़ना चाहेगा। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि वह अपने आत्मसम्मान या अपने सामरिक हितों से कोई समझौता करेगा।
वैश्विक कूटनीति, सामरिक महत्व, देश का विकास और विश्व पटल पर विकसित अर्थव्यवस्था… सबको देखते हुए भारत को बहुत फूँक-फूँक कर कदम रखने हैं। न तो वह अमेरिका की परोक्ष धमकी को सहन कर सकता है और ना ही वह चीन की जोर जबरदस्ती के आगे झुक सकता है। उसे रूस के साथ भी अपने पुराने संबंधों को कायम रखना है। कुल मिलाकर भारत के लिए अगर यह मुश्किलों का दौर है तो तेजी से बदलता अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य उसके लिए अनंत मौके भी लेकर आया है। देश का नेतृत्व इसे एक चुनौती के तौर पर स्वीकार करके स्वर्णिम अवसर में बदल सकता है।
इसके लिए ज़रूरी है कि भारतीय नेतृत्व भगवान गौतम बुद्ध के रास्ते पर चलते हुए अपना संतुलन नहीं खोए। सम्यक सिद्धांत के भाव के साथ देश एक ऐसा माहौल बना सकता है, जिसमें उसके सामरिक, आर्थिक, भू-राजनीतिक और विरासत संबंधी उद्देश्य पूरे हो सकें। उम्मीद है कि विदेश मंत्री डॉक्टर जयशंकर और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ऐसा संतुलन कायम कर पाएँगे। किसी का पिछलग्गू नहीं बल्कि एक संपन्न भारत ही विश्व को शीतयुद्ध 2.0 की त्रासदी से बचा सकता है। तेजी से बदलती इस दुनिया को एक ऐसी महाशक्ति की जरूरत है, जो ताकत के नशे में चूर होकर दुनिया को बाँटे नहीं बल्कि संतुलित और संयमित हो। इस भूमिका के लिए भारत को अपने को तैयार करना है।