Tuesday, November 5, 2024
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370 तो गियो लेकिन J&K में तिरंगा सुरक्षित हाथों में, आँखें फाड़ कर देखो महबूबा कंधे की ज़रूरत किसे है

महबूबा मुफ़्ती के बयान से अगर तिरंगे को निकाल कर जिहादी कर दें तो यह आज की वास्तविकता में फिट बैठ जाता है। कंधे की ज़रूरत आतंकियों को पड़ रही है। पिछले 3 वर्षों में 700 से भी अधिक आतंकियों को एक नहीं बल्कि चार-चार कंधों की ज़रूरत पड़ी है।

जम्मू-कश्मीर की पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ़्ती ने कहा था कि अगर अनुच्छेद 370 से छेड़छाड़ की गई तो राज्य में तिरंगे को कंधा देने वाला भी कोई नहीं बचेगा। पूर्व मुख्यमंत्री की यह धमकी ऐसे समय में आई थी, जब लोग अंदेशा लगा रहे थे कि कश्मीर में कुछ बड़ा होने वाला है। और हुआ भी। अनुच्छेद 370 के उन सारे प्रावधानों को निरस्त कर दिया गया, जिनके कारण जम्मू-कश्मीर को विशेषाधिकार मिले हुए थे। राज्य का पुनर्गठन कर के अब्दुल्ला व मुफ़्ती परिवारों के एकछत्र राज्य का भी अंत कर दिया गया। अब जम्मू-कश्मीर की सत्ता में जम्मू, कश्मीर और लद्दाख- तीनों क्षेत्रों का संतुलित प्रतिनिधित्व होगा।

महबूबा मुफ़्ती के बयानों को तूल देकर कुछ मिलने वाला नहीं लेकिन आज स्वतंत्रता दिवस के दिन चहुँओर लहराते तिरंगे को देख कर अचानक से उनके इस बयान का जेहन में आना लाजिमी है, जिसमें उन्होंने कहा था कि राज्य को मिले विशेषाधिकार के साथ छेड़छाड़ की गई तो जम्मू-कश्मीर में तिरंगे को कोई कन्धा देने वाला भी नहीं मिलेगा। अब अनुच्छेद 370 के कई प्रावधान तो नहीं रहे लेकिन तिरंगा आज भी लहरा रहा है। जम्मू- कश्मीर विशेष राज्य नहीं रहा लेकिन तिरंगे के प्रति प्यार मौजूद है। हाँ, जिहाद को (चार) कंधे की ज़रूरत पड़ गई है।

जरा नीचे संलग्न की गई इस तस्वीर को ध्यान से देखिए। ये कुपवाड़ा की छात्राएँ हैं। इन्होने अपने स्कूल की ड्रेस पहन रखी है और स्वतंत्रता दिवस पर आयोजित कार्यक्रम के लिए रिहर्सल कर रही हैं। ये तस्वीर स्वतंत्रता दिवस (15 अगस्त) से 2 दिन पहले की है। इस तस्वीर को देख कर हिमालय से निकलने वाली किशनगंगा नदी (नीलम नदी) भी ख़ुशी से मचल रही होगी और इन बच्चियों को आशीर्वाद दे रही होगी। कुपवाड़ा से गुजरती नीलम भारत की सीमाओं को पार करते हुए पाकिस्तान में पहुँचती है और झेलम में मिल जाती है। खैर, वह नदी है। उसके लिए आज भी भारत अखंड भारत ही है। आप तस्वीर देखिए:

तिरंगा झंडा ऊँचा लहरा रहा है। यह सुरक्षित है। देश के नौनिहालों को इसे कंधा देने की ज़रूरत नहीं है क्योंकि उन्होंने अपने दिल इस पर न्योछावर कर दिया है। आज इन्हें रोकने के लिए महबूबा मौजूद नहीं है। अपनी हरकतों के कारण महबूबा मुफ़्ती आज नजरबन्द हैं। अपने ही देश की सत्ता को धमका कर रखने वाला अब्दुल्ला गिरोह भी नजरबन्द है। अलगावादियों को न तो दिल्ली के सत्ताधीश पूछ रहे हैं और न ही जम्मू-कश्मीर की जनता। शाह फैसल तो भागने की फ़िराक़ में थे लेकिन पुलिस ने उन्हें भी शिकंजे में ले लिया है। ऐसे में डर लाजिमी है। डर जिहादियों में है क्योंकि आज वो न तो कश्मीर में सुरक्षित हैं और न ही सीमा पार।

महबूबा मुफ़्ती के बयान में अगर तिरंगे को निकाल कर जिहादी कर दें तो यह आज की वास्तविकता में फिट बैठ जाता है। कंधे की ज़रूरत आतंकियों को पड़ रही है। पिछले 3 वर्षों में 700 से भी अधिक आतंकियों को एक नहीं बल्कि चार-चार कंधों की ज़रूरत पड़ी है। यह आँकड़ा लगातार बढ़ता जा रहा है और कुछ दिनों बाद वह स्थिति भी आएगी जब इन्हें कोई कन्धा भी नहीं मिलेगा। पत्थरबाजों को उकसाने वाले सैकड़ों अलगाववादी आज जेल में बंद हैं। डॉक्टर मनमोहन सिंह की सरकार को ब्लैकमेल कर अपने आप को सत्ताधीशों का फेवरिट बना कर रखने वाला यासीन मलिक आज तिहाड़ जेल में सजा काट रहा है।

हाँ, यासीन की बीवी ज़रूर इस्लामाबाद की सभाओं में कविताएँ पढ़ने में व्यस्त हैं। ये वही मोहतरमा हैं, जिन्होंने टेरर फंडिंग के मामले में एनआईए द्वारा अपने शौहर को गिरफ़्तार किए जाने के बाद अपनी 7 वर्षीय बेटी को लाकर प्रेस कॉन्फ्रेंस में बैठा दिया था। रोना-धोना काम नहीं आया, ब्लैकमेलिंग का जमाना बीत गया और अब दिल्ली दलालों को नहीं पूछती और आतंकवाद के ख़िलाफ़ जीरो टॉलरेंस की नीति पर काम किया जा रहा है। अपने बच्चों को विदेश भेज कर कश्मीरी युवाओं को पत्थर थमाने वाले अलगाववादियों को आज कंधे की ज़रूरत है।

आज अलगाववादियों, आतंकियों और भारत विरोधी कश्मीरी नेताओं को कंधे की ज़रूरत है लेकिन कोई कन्धा देने को तैयार नहीं। ऐसा इसीलिए, क्योंकि इन्हें कन्धा देने की सोच रखने वाले लोगों को बखूबी पता है कि अगर उन्होंने ऐसा किया तो कल को उन्हें भी कन्धों की ज़रूरत पड़ सकती है। कन्धों के इस खेल में बाजुओं ने बाजी मारी है क्योंकि कश्मीर के बच्चे-बच्चियों ने अपने हाथों में तिरंगा थाम रखा है। हो सकता है कि इन विद्यार्थियों को देख कर गिरोह विशेष के कुछ सदस्य कहें कि अरे ये तो कश्मीरी नहीं हैं।

तो फिर कश्मीरी कौन होते हैं? क्या जो लड़कियाँ हिजाब में और जो महिलाएँ बुर्क़े में होंगी, उन्हें ही कश्मीरी माना जाएगा? क्या स्कूल ड्रेस में लड़कों से भी ज्यादा दमखम दिखाते हुए स्वतंत्रता दिवस के कार्यक्रम में अपना शानदार प्रदर्शन दिखने वाली छात्राएँ सिर्फ़ इसीलिए कश्मीरी नहीं मानी जाएँगी क्योंकि वे पत्थर नहीं फेक रहीं? क्या मॉडर्न कपड़े पहनने, स्वछन्द विचरण करने और फोटोशूट कराने का हक़ सिर्फ़ इर्तिजा इक़बाल और इर्तिका इक़बाल को ही है? इन दोनों का परिचय जानने के लिए आपको गूगल न करना पड़े, इसीलिए बताना ज़रूरी है कि ये दोनों ही महबूबा मुफ़्ती की बेटियाँ हैं।

2004 में इन्हीं महबूबा मुफ़्ती के पिता मुफ़्ती मोहम्मद सईद ने ‘परमानेंट रेसिडेंस डिसक्वालिफ़िकेशन बिल’ पास कराया था, जिसके अनुसार जम्मू-कश्मीर से बाहर के व्यक्ति से शादी करने वाली कश्मीरी महिलाओं का अपने पिता की सम्पत्ति में सारे अधिकार छीन लिए गए थे। उस समय कश्मीरी महिलाओं ने बुलंद आवाज़ में पूछा था, “मुफ़्ती कौन होते हैं यह निर्णय लेने वाले कि हमें किस से शादी करनी है और किस से नहीं?” इस बिल का सबसे ज्यादा खामियाजा कश्मीरी पंडित लड़कियों को उठाना पड़ा था क्योंकि सारे कश्मीरी पंडितों को घाटी से भगा दिया गया था।

महबूबा मुफ़्ती आज भी वही शासन चलाना चाहती है, अब्दुल्ला परिवार आज भी दिल्ली को वैसे ही ब्लैकमेल करना चाहता है जैसे शेख अब्दुल्ला नेहरू को किया करते थे। वे भूल गए हैं कि जनता ऐसा नहीं चाहती क्योंकि जनता ने ऐसे नेताओं को भारी बहुमत से चुना है, जो तिरंगे का अपमान करने वाले और भारत विरोधी गतिविधियों में संलिप्त रहने वालों पर कहर बन कर टूटे हैं। अंत में हम एक बार फिर कहना चाहेंगे, “देखो महबूबा, आज अनुच्छेद 370 के प्रावधान तो नहीं रहे लेकिन तिरंगा सुरक्षित है, कश्मीरी बच्चों के हाथों में। लेकिन, तुम्हें कन्धा देने वाले को भी ये डर है कि उसे कन्धा कौन देगा?

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अनुपम कुमार सिंह
अनुपम कुमार सिंहhttp://anupamkrsin.wordpress.com
भारत की सनातन परंपरा के पुनर्जागरण के अभियान में 'गिलहरी योगदान' दे रहा एक छोटा सा सिपाही, जिसे भारतीय इतिहास, संस्कृति, राजनीति और सिनेमा की समझ है। पढ़ाई कम्प्यूटर साइंस से हुई, लेकिन यात्रा मीडिया की चल रही है। अपने लेखों के जरिए समसामयिक विषयों के विश्लेषण के साथ-साथ वो चीजें आपके समक्ष लाने का प्रयास करता हूँ, जिन पर मुख्यधारा की मीडिया का एक बड़ा वर्ग पर्दा डालने की कोशिश में लगा रहता है।

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