Monday, December 23, 2024
Homeविचारराजनैतिक मुद्देसिन्हा की हार का मुंबई कनेक्शन, समझिए कैसे अपने ही पैर पर कुल्हारी मार...

सिन्हा की हार का मुंबई कनेक्शन, समझिए कैसे अपने ही पैर पर कुल्हारी मार ख़ामोश हुए शत्रुघ्न

शत्रुघ्न सिन्हा कि सबसे बड़ी कमजोरी यह थी कि उन्होंने दो बार जीतने के बाद भी अपने संसदीय क्षेत्र की तरफ मुड़कर भी नहीं देखा। इससे जनता में यह संदेश गया कि वह अपने आप को किसी भी बड़े नेता से भी ऊपर समझते हैं।

कहते हैं, घमंड ले डूबता है। घमंड जब हद से पार हो जाए, तो न सिर्फ़ ले डूबता है बल्कि 10 बार डुबो-डुबो कर निकालता है और फिर गर्दन पकड़ के एक जोर का झटका लगाता है। घमंड की बात शुरू करने के लिए पहले चलते हैं 2009 की तरफ। उस वर्ष हुए लोकसभा चुनाव में पटना साहिब से भाजपा से चुनाव लड़ रहे अभिनेता शत्रुघ्न सिन्हा को 57% से भी अधिक वोट मिले थे। अर्थात यह, कि उन्हें आधे से भी अधिक लोगों द्वारा पसंद किया गया था, वो बहुमत के साथ जीते थे। 3 लाख से भी अधिक वोट पाने वाले शत्रुघ्न के प्रतिद्वंद्वी राजद के विजय कुमार के लिए 1.5 लाख वोट जुटाना भी आफत हो गया था। सिन्हा ने इसे ‘फॉर ग्रांटेड’ ले लिया। रिकॉर्ड जीत की बात करते-करते वह पागल हो उठे।

असल में देखा जाए तो शत्रुघ्न सिन्हा की यह जीत पटना साहिब के जातीय समीकरण के अनुरूप भी थी। उन्हें टक्कर देने के लिए उम्मीदवार तो ठीक-ठाक आए लेकिन शत्रुघ्न सिन्हा को भाजपा के कोर वोट के अलावा कायस्थ समाज का वोट बड़े स्तर पर मिला करता था। उन्होंने इसे भी ‘फॉर ग्रांटेड’ लिया। बिहार में कायस्थ समाज एक साथ थोक में वोट करने के लिए जाना जाता है। शत्रुघ्न सिन्हा को 2014 में मोदी लहर का अच्छा साथ मिला और उन्होंने इस बार फिर से 55% मत पाने में सफलता हासिल की। इससे उनके घमंड में और इजाफा हुआ। शत्रुघ्न सिन्हा ने ख़ुद को पार्टी से ऊपर माना और उन्होंने इस जीत को पार्टी से इतर देखा। यह शत्रुघ्न सिन्हा से ज्यादा भाजपा की जीत थी, इसे समझने में वह विफल रहे।

2014 में सिन्हा को पौने 5 लाख वोट मिले और उनके प्रतिद्वंदी कुणाल सिंह को सवा 2 लाख वोट भी नहीं आए। शत्रुघ्न सिन्हा के मन में हमेशा से यह बात चलती थी कि ये वोट उनके हैं और किसी भी हालत में उन्हें ही मिलेंगे। तभी तो उन्होंने कई मीडिया इंटरव्यू में ‘मैंने रिकॉर्ड बनाया’, ‘मैं इतने मतों से जीता’ जैसी बातें बोल कर ये जताने कि कोशिश की कि वह पार्टी से ऊपर हैं। खैर, उनकी हार के और भी कई कारण हैं, जिन्हें गिनाना ज़रूरी है। शत्रुघ्न सिन्हा अपने कायस्थ मतों को लेकर आश्वस्त थे और अभी भी अपने आप को सुपरस्टार समझते थे। जबकि, पंजाब में उनकी रैली में एक बार भीड़ नहीं जुटी, तभी उन्हें अंदाज़ा हो जाना चाहिए था कि जनता का रुख क्या है।

जीतने के बाद पटना की तरफ मुड़ कर भी नहीं देखा

शत्रुघ्न सिन्हा कि सबसे बड़ी कमजोरी यह थी कि उन्होंने दो बार जीतने के बाद भी अपने संसदीय क्षेत्र की तरफ मुड़कर भी नहीं देखा। इससे जनता में यह संदेश गया कि वह अपने आप को किसी भी बड़े नेता से भी ऊपर समझते हैं। वो भाजपा की बैठकों में शामिल नहीं होते थे, कार्यकर्ताओं से मिलते-जुलते नहीं थे और सिर्फ़ पार्टी की बड़ी रैलियों में ही हिस्सा लेते थे। सिन्हा द्वारा इस तरह के सौतेले व्यवहार से भाजपा के कार्यकर्ताओं के भीतर ही उन्हें लेकर असंतोष फ़ैल गया। जीत कर मुंबई और दिल्ली चले जाना और फिर संसद में 70% से भी कम उपस्थिति होना, उनके लिए नेगेटिव पॉइंट्स साबित हुए।

शत्रुघ्न सिन्हा ने अपना अधिकतर समय मुंबई स्थित आवास पर गुजारा। 2014 में ही उनकी हार के चर्चे थे लेकिन मोदी लहर और पटना में नरेन्द्र मोदी की बहुप्रतीक्षित विशाल रैली ने सारे गणित को पलट कर रख दिया। इस बार ऐसा नहीं हुआ। इस बार केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद उनके सामने थे, जिनका कार्यक्षेत्र पटना ही रहा है। भले ही प्रसाद राष्ट्रीय राजनीति में ज्यादा रहे लेकिन बिहार में जब भी ज़रूरत पड़ी, उन्होंने सक्रियता दिखाई। प्रसाद भी सिन्हा की तरह कायस्थ समाज से ही आते हैं लेकिन, प्रसाद की राह में भी एक रोड़ा था, और उसका नाम था आर के सिन्हा। आर के सिन्हा भाजपा के राज्यसभा सांसद हैं और विश्व के अरबपतियों की लिस्ट (डॉलर में अरबपति) में आते हैं। आर के सिन्हा का क़द बिहार में बड़ा है, ख़ासकर कायस्थ समाज के अन्दर।

जब रविशंकर प्रसाद पटना पहुँचे तब कुछ आर के सिन्हा समर्थकों ने एअरपोर्ट पर हंगामा किया। नौबत मारपीट तक पहुँची और लोगों को ऐसा लगा कि इस आतंरिक कलह और असंतोष के कारण प्रसाद की हार हो जाएगी और सिन्हा यह सीट निकाल ले जाएँगे। लेकिन, बाद में आर के सिन्हा ने इस बात का खंडन किया कि वह नाराज़ हैं और उन्होंने अपने समर्थकों को किसी भी प्रकार की अफवाह से बचने का सन्देश दिया। शत्रुघ्न आर के खेमे के वोट को अपना मान कर चल रहे थे लेकिन अब यह साबित हो गया है कि अपने बेटे के लिए पटना साहिब सीट चाह रहे आरके सिन्हा इतने भी नाराज़ नहीं थे कि भाजपा के ख़िलाफ़ चले जाएँ।

स्वयं को अभी भी सुपरस्टार समझना

शत्रुघ्न सिन्हा अभी भी ख़ुद को सुपरस्टार मान कर चल रहे थे। विलेन से सपोर्टिंग एक्टर और फिर नायक की भूमिका में दिखे सिन्हा ने भाजपा के ख़िलाफ़ देश भर में प्रचार किया, जैसे हर जगह उनका जनाधार और उनके लाखों फैन्स हों लेकिन उनको देखने के लिए अब भीड़ नहीं आती। बिहार में अभी भी वह भीड़ जुटाने की क्षमता रखते हैं लेकिन राज्य से बाहर उनकी राजनीतिक स्थिति दयनीय हो चली है। इसका असर ये हुए कि वो अरुण शौरी और यशवंत सिन्हा कि तरह ही अप्रासंगिक हो गए। कैसे हुए, यह आप यहाँ पढ़ सकते हैं।

बड़ी चीज यह भी है कि भाजपा ने बड़ी चालाकी से शत्रुघ्न सिन्हा को तीन साल खुल कर पार्टी व मोदी की आलोचना करने का मौका देकर उनके क़द को एकदम से घटा दिया। भाजपा को इस बात का एहसास था कि अगर वो सिन्हा पर निलंबन की अनुशासनात्मक कार्रवाई करती है तो उन्हें ख़ुद को विक्टिम के रूप में पेश करने का एक मौक़ा मिल जाएगा और इसी कारण वो जनता के एक हिस्से में सहानुभूति का पात्र बनने की कोशिश करेंगे। शत्रुघ्न सिन्हा द्वारा विपक्षी रैलियों का हिस्सा बनने पर भी उन्हें निलंबित नहीं किया गया।

वो पार्टी से निलंबन चाहते भी थे ताकि ये मीडिया में चर्चा का विषय बने और वो दूसरी पार्टी में पूरे धूम-धड़ाके से शामिल हों लेकिन उनका ये स्वप्न धरा का धरा रह गया। परिणाम यह हुआ कि समय के साथ सिन्हा अप्रासंगिक होते चले गए। उनकी बातों की गंभीरता ख़त्म हो गई और उन्हें मीडिया कवरेज भी अपेक्षाकृत कम मिलने लगा। इसके उलट अगर भाजपा उन्हें निलंबित करती तो ये बात मीडिया में छा जाती और उन्हें फिर से उनकी खोई हुई लोकप्रियता का कुछ हिस्सा वापस मिल जाता। भाजपा ने जिस रणनीति से काम लिया, उस कारण उन्हें मजबूरन कॉन्ग्रेसी होना पड़ा, बिना किसी ख़ास मीडिया कवरेज के।

लखनऊ में सपा प्रत्याशी की पत्नी का प्रचार

शत्रुघ्न सिन्हा इतने आत्मविश्वासी हो गए कि उन्होंने कॉन्ग्रेस में रहते हुए लखनऊ जाकर अपनी पत्नी के पक्ष में प्रचार किया। वह डिंपल यादव के साथ प्रचार करते दिखे और अपनी पत्नी पूनम सिन्हा के लिए कई दिनों तक वहाँ कैम्प किया। अति आत्मविश्वासी सिन्हा ने अपने आप को एक बार फिर पार्टी से ऊपर समझा और लखनऊ से कॉन्ग्रेस प्रत्याशी प्रमोद कृष्णन उनसे नाराज़ नज़र आए। कुल मिलाकर देखा जाए तो अब शायद उन्हें अगले पाँच सालों के लिए कोई मीडिया कवरेज ही ना मिले। उन्हें जो भी मीडिया कवरेज मिल रही थी, इस हार के बाद उसके भी ख़त्म हो जाने के आसार हैं।

शत्रुघ्न सिन्हा की पटना में बुरी हार हुई और लखनऊ में उनकी पत्नी पूनम सिन्हा की और भी बुरी हार हुई। सिन्हा दम्पति के लिए सोशल मीडिया के माध्यम से उनकी बेटी अभिनेत्री सोनाक्षी सिन्हा ने भी प्रचार किया था। तमाम विपक्षी दलों का लाडला होने के बावजूद सिन्हा की हार के पीछे उनकी व्यक्तिगत विफलता छिपी है। भले ही पूरे देश में यह कॉन्ग्रेस की हार हो लेकिन पटना साहिब में शत्रुघ्न सिन्हा को यह बहुत बड़ा व्यक्तिगत झटका है। ऊपर से रविशंकर प्रसाद की स्पष्ट और अविवादित छवि ने भी सिन्हा के विरोध में काम किया। अब वह वोटरों द्वारा नकारे जा चुके हैं।

Join OpIndia's official WhatsApp channel

  सहयोग करें  

एनडीटीवी हो या 'द वायर', इन्हें कभी पैसों की कमी नहीं होती। देश-विदेश से क्रांति के नाम पर ख़ूब फ़ंडिग मिलती है इन्हें। इनसे लड़ने के लिए हमारे हाथ मज़बूत करें। जितना बन सके, सहयोग करें

अनुपम कुमार सिंह
अनुपम कुमार सिंहhttp://anupamkrsin.wordpress.com
भारत की सनातन परंपरा के पुनर्जागरण के अभियान में 'गिलहरी योगदान' दे रहा एक छोटा सा सिपाही, जिसे भारतीय इतिहास, संस्कृति, राजनीति और सिनेमा की समझ है। पढ़ाई कम्प्यूटर साइंस से हुई, लेकिन यात्रा मीडिया की चल रही है। अपने लेखों के जरिए समसामयिक विषयों के विश्लेषण के साथ-साथ वो चीजें आपके समक्ष लाने का प्रयास करता हूँ, जिन पर मुख्यधारा की मीडिया का एक बड़ा वर्ग पर्दा डालने की कोशिश में लगा रहता है।

संबंधित ख़बरें

ख़ास ख़बरें

किसी का पूरा शरीर खाक, किसी की हड्डियों से हुई पहचान: जयपुर LPG टैंकर ब्लास्ट देख चश्मदीदों की रूह काँपी, जली चमड़ी के साथ...

संजेश यादव के अंतिम संस्कार के लिए उनके भाई को पोटली में बँधी कुछ हड्डियाँ मिल पाईं। उनके शरीर की चमड़ी पूरी तरह जलकर खाक हो गई थी।

PM मोदी को मिला कुवैत का सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘द ऑर्डर ऑफ मुबारक अल कबीर’ : जानें अब तक और कितने देश प्रधानमंत्री को...

'ऑर्डर ऑफ मुबारक अल कबीर' कुवैत का प्रतिष्ठित नाइटहुड पुरस्कार है, जो राष्ट्राध्यक्षों और विदेशी शाही परिवारों के सदस्यों को दिया जाता है।
- विज्ञापन -