अंग्रेजी में कहते हैं कि हर काले बादल में एक उजली रेखा उम्मीद की होती ही है- एव्री क्लाउड हैज़ अ सिल्वर लाइनिंग। पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी, जिनका आज जन्मदिन है, के शासनकाल के सबसे स्याह धब्बे इमरजेंसी में भी कुछ उजले छींटे थे- जिनमें से एक था आज अव्यवस्था ही नहीं, कुव्यवस्था के हिमायती बन चुके कम्युनिस्टों के गढ़ जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की स्टूडेंट्स यूनियन पर तालाबंदी।
इंदिरा गाँधी ने इमरजेंसी में JNU के कम्युनिस्ट गुंडों पर नकेल कसने का वह साहस (या दुस्साहस) दिखाया जो न तो 1999 में दो सैनिकों के साथ यूनिवर्सिटी के भीतर छात्रों द्वारा हाथापाई करने पर ‘लौह पुरुष’ आडवाणी और न ही 2010 में 76 CRPF जवानों की नृशंस हत्या का जश्न मनाए जाने पर डॉ. मनमोहन सिंह ने दिखाया। इंदिरा गाँधी ने जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय स्टूडेंट्स यूनियन (JUNSU) को ही ताला लगा दिया- उसकी मान्यता ही समाप्त कर डाली।
पिकेटिंग करना अधिकार भी, इमरजेंसी में कर्त्तव्य भी, लेकिन आपसे जो असहमत हो, उसका क्या?
फ़िलहाल राष्ट्रवादी कॉन्ग्रेस पार्टी के महासचिव देवी प्रसाद त्रिपाठी अपने छात्र और छात्र राजनीति के दिनों में जेएनयू के छात्रसंघ अध्यक्ष और माकपा से जुड़े छात्र संगठन स्टूडेंट्स यूनियन ऑफ़ इंडिया के सदस्य हुआ करते थे। जब इमरजेंसी लगी तो वे पुलिस से बचते-बचाते इमरजेंसी के खिलाफ, इंदिरा गाँधी के खिलाफ विरोध प्रदर्शनों का आयोजन करते फिर रहे थे। फिर सितंबर में एक दिन उन्होंने यूनिवर्सिटी में तीन दिन की हड़ताल का आयोजन किया।
यहाँ तक तो बात सही जा रही थी। हड़ताल, पिकेटिंग, विरोध-प्रदर्शन आदि का आयोजन हर लोकतंत्र में अधिकार होता है- इंदिरा गाँधी के सस्पेंडेड लोकतंत्र में भी होना चाहिए था। लेकिन इसके बाद डीपी त्रिपाठी ने जो किया, वह ‘टिपिकल’ माओवंशी, लेनिनवादी, स्टालिनवादी मानसिकता थी- कि हमारे सामूहिक भले की माँग के लिए दूसरों की व्यक्तिगत स्वतंत्रता का हनन किया जाए, उनके व्यक्तिगत निर्णय लेने के अधिकार को सम्मान न दिया जाए।
उनकी हड़ताल में जर्मन कोर्स की एक छात्रा शामिल नहीं होना चाहती थी, इसलिए वह क्लास करने के लिए जर्मन फैकल्टी की ओर बढ़ी। उसका नाम था मेनका गाँधी- संजय गाँधी की पत्नी और इंदिरा गाँधी की बहू। डीपी त्रिपाठी ने खुद अपने शब्दों में बताया है कि उन्होंने कैसे 19 साल की उस युवती का रास्ता रोक लिया।
ऊपरी तौर पर देखने पर तो मामला सीधा-सीधा लगता है। इंदिरा गाँधी ने इमरजेंसी लगा रखी थी, जो ज़ाहिर तौर पर गलत थी, और उसके विरोध के लिए एकता होनी ज़रूरी थी। इसलिए डीपी त्रिपाठी ने मेनका गाँधी से ‘प्रार्थना’ की कि वे ‘छात्र एकता’ का सम्मान करें और वापिस लौट जाएँ। लेकिन ज़रा खुद सोचिए- एक पुरुष छात्र नेता जब 19 साल की एक लड़की को क्लास जाने से रोकने के लिए एक झुण्ड लेकर उसके मुँह पर खड़ा हो जाए, तो यह याचना है या कि धमकी? जवाब हम में से हर किसी का दिल दे सकता है क्योंकि आज भले ही इमरजेंसी न हो (मोदी से अंधी नफरत करने वालों के लिए तो 2014 से ही लगी है), लेकिन ठीक यही तरीका हम में से अधिकांश ने ‘मास बंक’ के लिए अपनाया है; और जिन्होंने नहीं अपनाया, वो इसके भुक्तभोगी रहे हैं।
आप विरोध प्रदर्शन कर क्यों रहे थे? क्योंकि इंदिरा गाँधी ने आपकी स्वतंत्रता, बोलने का अधिकार, अपने निर्णय खुद लेने का अधिकार छीन लिया। कथित तौर पर नहीं, बल्कि पूरी तरह। गलत किया- और इसके खिलाफ आपको क्लास न जाने, नारे लगाने वगैरह का भी अधिकार बिलकुल था। लेकिन जो आपके विरोध से इत्तिफ़ाक़ न रखे, विरोध का विरोध करे, उसका क्या? कहाँ तक सही है आपके विरोध का हिस्सा बनने से इंकार करने वाले एक इंसान को घेर कर खड़े हो जाना? उस पर मनोवैज्ञानिक और सामाजिक दबाव बनाना? कि नहीं, हम तो सही ही हैं, और हमारा विरोध तो हो ही नहीं सकता?
जो लोग इंदिरा की बहू और इमरजेंसी के विलेन संजय गाँधी की पत्नी होने को मेनका के इन अधिकारों को छीने जाने का स्वीकार्य जस्टिफिकेशन मान लेते हैं, वे यह भूल जाते हैं कि मेनका केवल इंदिरा की बहू और संजय गाँधी की पत्नी नहीं थीं- वे एक युवा लड़की थीं उस समय, जो पढ़ना चाहती थी; शादी के बाद भी पढ़ाई जारी रखना चाहती थी, और राजनीति को अपनी पढ़ाई के आड़े नहीं आने देना चाहती थी।
क्या इंदिरा की बहू और संजय गाँधी की पत्नी होने से मेनका की एक छात्रा के तौर पर पहचान खत्म हो गई? या उस पहचान से संबद्ध अधिकार, राजनीति में न पढ़ अपना कोर्स पूरा करने की इच्छा की अभिव्यक्ति गलत हो गई?
यहाँ मैं इंदिरा गाँधी की इमरजेंसी का बचाव नहीं कर रहा- यह लोकतंत्र के लिए, गणतंत्र के लिए, संविधान से चलने वाले देश के लिए, संविधान लिखने वाली पार्टी के लिए बेशक धब्बे हैं। कॉन्ग्रेस को अगले 4 चुनाव केवल इनके लिए हरा दिया जाए तो भी कोई गलत बात नहीं। लेकिन इससे उस एक ब्याहता लड़की, जो शादी और ससुराल की ज़िम्मेदारियों के बावजूद शिक्षा से चिपटी हुई थी, को क्लास जाने से रोकना नैतिक रूप से सही नहीं हो जाता।
इंदिरा का ‘बदला’
मेनका गाँधी लौटीं- दिल्ली पुलिस के डीएसपी पीएस भिंडर के साथ। डीपी त्रिपाठी होने के धोखे में प्रबीर पुरकायस्थ (जिन्होंने आगे जाकर दिल्ली साइंस फ़ोरम की स्थापना की, और न्यूज़क्लिक डॉट इन के सम्पादक रहे) को गिरफ्तार कर लिया गया, और गलतफहमी दूर होने के बाद भी कथित तौर पर उन्हें टॉर्चर किया गया। इमरजेंसी में गलत पहचान में गिरफ़्तार होने का इकलौता मामला कहा जाता है। लेकिन इन चीज़ों को डिफ़ेंड नहीं किया जा सकता।
लेकिन उनकी बहू को सार्वजनिक तौर पर अपमानित करना, अपने खिलाफ़ हुए विरोध प्रदर्शन का जबरन हिस्सा बनाया जाना इंदिरा गाँधी को न बर्दाश्त हो सकता था, न ही उन्होंने किया। सितंबर, 1975 की इस घटना के बाद उसी साल 7 नवंबर को न केवल अकादमिक काउंसिल की मीटिंग में उन्हें घुसने से रोक कर 6 महीने के लिए विश्वविद्यालय से निष्कासित कर दिया गया, बल्कि जिस स्टूडेंट्स यूनियन के वह अध्यक्ष थे (और जिसके कन्हैया कुमार भी अध्यक्ष रहे हैं, और जिसे कई लोगों ने, कई मौकों पर जेनएयू के सारे कम्युनिस्ट ज़हर की जड़ बताया है) उसकी ही मान्यता खत्म कर दी गई। यही नहीं, 11 नवंबर, 1975 को इमरजेंसी में लोकतान्त्रिक ही नहीं मानवाधिकारों तक के हनन के लिए बदनाम मीसा एक्ट के तहत उन्हें गिरफ्तार कर जेल भी भेज दिया गया।
JNUSU का पलटवार
इंदिरा गाँधी मार्च 1977 में चुनाव हार गईं- लेकिन JNU के चांसलर के पद पर डटी रहीं। सीताराम येचुरी और अन्य छात्र नेता 500 छात्रों का हुजूम लेकर JNU कैम्पस से 5 सितंबर, 1977 को उनके घर के सामने जा पहुँचे। 10-15 मिनट उनके गला फाड़ने के बाद इंदिरा गाँधी अपने आपातकाल के गृह मंत्री रहे ओम मेहता के साथ बाहर निकलीं और प्रदर्शनकारियों के बीच मुस्कुराते हुए जा पहुंचीं।
येचुरी ऊपर की तस्वीर में जो भाषण पढ़ रहे हैं, कहा जाता है कि उसमें आपातकाल की यातनाओं का ज़िक्र इतने भयावह तरीके से था कि ‘आयरन लेडी’ इंदिरा की मुस्कुराहट मिनटों में काफ़ूर हो गई। पत्थरदिल कही जाने वाली इंदु प्रियदर्शिनी पाषाण-भाव चेहरे पर लिए लौट पड़ीं- पूरा मेमोरेंडम सुना भी नहीं। और अगले ही दिन खबर आई कि उन्होंने इस्तीफ़ा दे दिया है। JNU वालों ने उनके नायब, वीसी डॉ. बीडी नागचौधरी को पहले ही इस्तीफ़े के लिए मजबूर कर दिया था।
आज
आज जो जेएनयू में बैठे हैं, और कम्युनिस्ट ब्रेनवॉशिंग का शिकार नहीं हैं, वे लगभग समवेत स्वर में यह कहते हैं कि इन दो बुरी चीज़ों- इंदिरा गाँधी की तानाशाही, और जेएनयू स्टूडेंट्स यूनियन की गुंडागर्दी- में वे इंदिरा गाँधी का पक्ष लेंगे। अच्छा होता अगर मोरारजी देसाई सरकार बनने पर इंदिरा के इस एक फैसले को अलोकतांत्रिक होने के बाद भी वैसे ही छोड़ देते, न पलटते। कम-से-कम ये कम्युनिस्ट कैंसर गले न पड़ा होता।
जिन्हें जेएनयू का कम्युनिस्ट ज़हर नहीं पीना होता है, उनके लिए इंदिरा गाँधी अधिक गलत थीं- और जेएनयू के झोलबाज खाली ‘भटके हुए नौजवान’, जो काम तो सही कर रहे थे, लेकिन कुछ ज़्यादा आगे बढ़ गए और सही काम करने में एक छोटी गलती (मेनका गाँधी को ज़बरदस्ती अपनी लड़ाई में शामिल करने का प्रयास) कर गए, जिसके लिए उन्हें सजा ज़रूरत से ज़्यादा मिली। इन विचार वाले लोगों के लिए उस घटना के आगे जाकर आज JNUSU जो कुछ चरस समाज में बो रही है, उसके आधार पर भूतकाल में उनके साथ किए गए अत्याचार को जस्टिफाई नहीं किया जा सकता।
पता नहीं, इस घटना विशेष में नैतिकता का पलड़ा असल में किसकी ओर भारी है- अपनी व्यक्तिगत स्वतंत्रता ऐसे ‘कॉज’ के लिए न कुर्बान करने की इच्छा रखने वाली मेनका के व्यक्तिगत निर्णय का, या अपनी (और दूसरों की) व्यक्तिगत स्वतंत्रता छीने जाने के विरोध प्रदर्शन में अपने विरोध का विरोध कर रही आवाज़ को दबाने को स्वीकार्य मानने वाले कम्युनिस्ट विचार का। शायद इतिहास के कुछ पन्नों पर सही-गलत का ठप्पा भले न लगाया जा सके, लेकिन उन्हें समय-समय पर पढ़ा जाते रहना ज़रूरी होता है।
लेकिन इस अनिश्चितता के बाद भी इंदिरा गाँधी के जन्मदिन और JNUSU की हालिया हरकतों (शिक्षकों का अपहरण, पूरे कॉलेज में दीवारों पर नफ़रती बातें लिखना, स्वामी विवेकानंद की मूर्ति को बदरंग करना) के आलोक में ज़रूरी है कि इसे पढ़कर हम में से हर कोई खुद से पूछे कि इंदिरा गाँधी ने जो किया, वह सही था या गलत।