बिहार की राजनीति में बड़े उलटफेर के कयास लगाए जा रहे हैं। मीडिया की खबरों में बताया जा रहा है कि जेडीयू एक बार फिर एनडीए से बाहर होने जा रही है। नई सरकार के गठन को लेकर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की कॉन्ग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गाँधी से बात होने के दावे हैं। लालू प्रसाद यादव की राजद, वामपंथी पार्टियों और अन्य छोटे दलों से भी उनकी बातचीत चलने की खबरें आ रही है। इन सबके बीच सत्ता की साझीदार बीजेपी के नेताओं ने रहस्यमयी चुप्पी बना रखी है। जब बिहार के कई हिस्सों में नदियाँ उफना रहीं हैं, कुछ हिस्सों में जमीन पानी को तरस रही है, सवाल है कि इस राजनीतिक उफान से राज्य और उसकी जनता को क्या हासिल होना है?
गोस्वामी तुलसीदास ने लिखा है;
करि कुरूप बिधि परबस कीन्हा। बवा सो लुनिअ लहिअ जो दीन्हा॥
कोउ नृप होउ हमहि का हानी। चेरि छाड़ि अब होब कि रानी॥
राम के राज्याभिषेक की घोषणा के बाद जब मंथरा के झाँसे में कैकेयी नहीं आती हैं, तो वह अपनी स्थिति का हवाला देते हुए कहती है कि राजा राम बने या भरत, उसके जीवन में कोई फर्क नहीं पड़ता। वह चाकर ही रहेगी। लेकिन बिहार ऐसा अभिशप्त है कि कोई भी राजा बने, हानि जनता को ही होनी है।
दरअसल, लोकतंत्र में जब चुनाव होते हैं तो अमूमन जनता उस पक्ष को चुनती है जो उसकी समझ में बेहतर होता है। लेकिन बिहार के लिए परिस्थिति इसके उलट है। यहाँ की जनता बेहतरी के लिए वोट नहीं करती। वह उसका चुनाव करने को मजबूर है, जिसका सत्ता में होना उसकी समझ से कम बदतर है। तुम्हारी कमीज से मेरी कमीज ज्यादा सफेद है, वाले राजनीतिक चलन जैसे। जबकि कमीज वाले और उन्हें देखने वाले, दोनों जानते हैं कि छींटे सबके कपड़ों पर हैं।
इसी विकल्पहीनता की स्थिति में बिहार ने 2020 के विधानसभा चुनावों में एनडीए को चुना था। ऐसा नहीं था कि नीतीश के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार के कामकाज से लोग खुश थे। खासकर, जेडीयू और नीतीश कुमार को लेकर पूरे राज्य में भारी नाराजगी थी। फिर भी जनता ने NDA को सत्ता सौंपी, क्योंकि दूसरी तरफ जो लोग खड़े थे उनके पीछे जंगलराज की विरासत थी। इसी जंगलराज से बचने के लिए बिहार की जनता ने 2005 में नीतीश कुमार को चुना था। 2010 में दोबारा उन्हें मौका दिया।
इन दो चुनावों के बाद ऐसा लग रहा था कि बिहार अब पटरी पर लौट रहा है। जो विश्वविद्यालय 5-6 साल में तीन साल की डिग्री देने को कुख्यात थे, वहाँ सत्र समय की परिधि में आ रहा था। जर्जर स्कूलों, अस्पतालों के भवन खड़े हो रहे थे। सड़कें बन रहीं थी। बिजली गाँव-गाँव पहुँचाने के प्रयास हो रहे थे। जिन बाहुबलियों पर जंगलराज के जमाने में पुलिस के हाथ डालने की भी कल्पना नहीं की जा सकती थी, वे जेल के भीतर में थे। फास्ट ट्रैक अदालतों में उनके मामलों की सुनवाई हो रही थी। अपहरण जैसे उद्योग बंद हो चुके थे। कुल मिलाकर बिहार उस स्थिति में आ गया था, जहाँ से वह विकास के स्वप्न देखने लगा था। ध्यान रहे कि उपर मैंने जिन कार्यों का जिक्र वे एक तरह से उन गड्ढों को भरने के प्रयास थे जो जंगलराज ने बिहार की छाती पर खोद दिए थे।
ऐसे हालात में 2013 में नीतीश कुमार अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं की वजह से एनडीए से अलग हो गए। यह एक तरह से बिहार के सपनों पर कुठाराघात जैसा था। 2005 से 2013 तक की जो कमाई थी वह धीरे-धीरे लुटने लगी। 2015 में नीतीश उस लालू यादव के साथ चुनाव में गए, जिनके जंगलराज के कारण उनका राजनीतिक उदय हुआ था। उनको जीत मिली और फिर गिरावट तेज हुई। अचानक से बाहुबलियों और गुंडों के वही तेवर दिखने लगे। विकास के काम ठप हो गए। शिक्षा, स्वास्थ्य, कानून व्यवस्था फिर गर्त की ओर बढ़ चले। 2017 में नीतीश लौट आए। बीजेपी के साथ सरकार बनाई। लेकिन हालात नहीं बदले। बीते 5 साल में भी बिहार उस स्थिति में नहीं पहुँच पाया है, जहाँ वह 2005 से शुरू हुए सफर के कारण 2013 में था। यही कारण है कि 2020 के विधानसभा चुनावों में नीतीश से हर तबका नाराज था। सरकार बचाने के लिए उन्हें अपना अंतिम चुनाव होने की दुहाई तक देनी पड़ी थी।
लेकिन हालिया राजनीतिक घटनाक्रमों से पहले बिहार को यह सुकून था कि वह कम से काम जंगलराज की छाया से दूर है। आँकड़े बताते हैं कि राज्य में लगातार अपराध बढ़ रहा। हाल में जब अग्निपथ विरोधी हिंसा हुई थी तो सरकार में शामिल बीजेपी के बड़े नेताओं के घर तक निशाना बने थे। इन सबके बावजूद ऐसी स्थिति नहीं थी जिसमें सीवान में कोई गुंडा किसी चंदा बाबू के बेटों को तेजाब से नहलाकर मार दे। यदि नीतीश फिर से पाला बदलते हैं तो बिहार कई शहाबुद्दीन देखेगा। कई चंदा बाबू के बेटे तेजाब से नहलाकर मार दिए जाएँगे। वैसे भी नीतीश कुमार पिछले कुछ सालों से बिहार के लिए उसी तरह बोझ बने हुए हैं, जैसा करीब डेढ़ दशक पहले लालू-राबड़ी थे।