भाजपा की प्रचंड जीत के बाद अगर सबसे ज्यादा धक्का किसी को लगा है, तो उसका नाम है- योगेन्द्र यादव। ख़ुद को सेफोलोजिस्ट बताने वाले योगेन्द्र यादव ने प्रोपेगैंडा वेबसाइट ‘द प्रिंट’ में एक लेख लिखा है। ‘द प्रिंट’ के कई राजनीतिक विश्लेषण पूरी तरह से ग़लत साबित हुए हैं और योगेन्द्र यादव के अब तक के विश्लेषणों में शायद ही कोई सही साबित हुए हों। आप सोच सकते हैं कि इन दोनों का साथ आना किसी लेख को कितना बड़ा प्रोपेगैंडा बना सकता है। इस लेख में योगेन्द्र यादव मतदाताओं से परेशान नज़र आते हैं। जैसा कि अंदेशा था, मोदी, EVM, भाजपा और सरकार को गाली देने के बाद अब लिबरल गैंग भारत के मतदाताओं को ही गालियाँ देगा। अब ठीक वैसे ही हो रहा है। सवालों की शक्ल में जरा यादव की भाषा पर गौर फ़रमाइए –
“इस वक़्त मेरा कर्त्तव्य क्या करना बनता है? क्या मैं अपनी प्रतिबद्धताओं को भूल जाऊँ, पीएम मोदी और उनकी पार्टी के प्रति अपनी राय बदल दूँ? भारत को लेकर जो मेरी सच्ची धारणा है, उसे उनके नज़रिए के रूप में स्वीकार कर लूँ? अब जब जनमत आ चुका है, विजेता ट्रोल शायद मुझ से यही चाहते हैं। इसके अलावा, क्या मैं मतदाताओं को कॉलर पकड़कर बताऊँ कि वे कितने धर्मांध और कट्टर हो गए हैं? या फिर, मैं उनके निर्णय की निर्धनता को लेकर उनकी अनभिज्ञता पर तरस खाऊँ? या मैं अपनी विचारधारा के लोगों से सहानुभूति जताऊँ कि इस दुनिया को क्या हो गया है?”
किसी ट्रोल की भाषा में लेख लिख रहे योगेन्द्र यादव के शब्दों के चुनाव पर गौर फरमाइए। अगर वो लिखते कि “जनता कट्टर और धर्मांध हो गई है” तो उन पर उँगलियाँ उठतीं, लेकिन उन्होंने लिखा, “क्या मैं मतदाताओं को कॉलर पकड़कर बताऊँ कि वे कितने धर्मांध और कट्टर हो गए हैं?” योगेन्द्र यादव ने बड़ी चालाकी से अपनी दिमागी हालत और सोच को शब्दों में बयाँ करने के लिए उसे सवालों का रूप दे दिया, लेकिन उससे करोड़ों मतदाताओं को लेकर उनकी घटिया राय समझ में आ गई। जब टीवी डिबेट में महीन बातें करने वाला व्यक्ति कॉलर पकड़ने और धमकाने की बातें करे, तो समझा जा सकता है कि उसके मानसिक संतुलन की क्या स्थिति होगी।
इसे कुछ यूँ समझिए। अगर कोई व्यक्ति योगेंद्र यादव के बारे में अपने लेख में लिखता है, “योगेंद्र पागल हो गया है“, तो इसे ग़लत कहा जा सकता है। लेकिन वहीं कोई दूसरा व्यक्ति लिखता है, “मैं योगेंद्र को चाँटा मारकर नहीं पूछ सकता कि क्या तुम पागल हो गए हो?“, तो भाव यही रहेगा लेकिन, शब्दों के खेल में फँसकर उसके पीछे की सोच सही से उजागर नहीं हो पाएगी। इसमें योगेन्द्र यादव ने बड़ी चालाकी से अपने पिछले लेखों की बात की है और गर्वित होकर याद दिलाया है कि कैसे उन्होंने पीएम को सबसे बड़ा झूठा बताया था।
इसके बाद योगेन्द्र यादव आलोचना करने व आरोप लगाने के लिए अन्य माध्यम ढूँढने लगते हैं। उन्हें चुनाव आयोग के रूप में अगला शिकार मिला। चुनाव आयोग को पुर्णतः पक्षपाती बताते हुए उन्होंने लिखा कि भाजपा ने इस चुनाव में हद से ज्यादा पैसे ख़र्च किए। अप्रैल में एक ख़बर आई थी, जिसमें पता चला था कि मायावती की बसपा के पास भारतीय राजनीतिक दलों में सबसे ज्यादा बैंक बैलेंस है। इसके बाद सपा का स्थान आता है। बैंक बैलेंस के मामले में सपा-बसपा देश की दो सबसे अमीर पार्टियाँ साबित हुईं, लेकिन दोनों के गठबंधन को यूपी चुनाव में हार का सामना करना पड़ा। योगेन्द्र यादव को आँकड़ों में विश्वास नहीं है, बिना तथ्य अस्पष्ट किए लिख देना उनका पेशा है।
विपक्ष की गलतियाँ, चुनाव आयोग का पक्षपात, ख़ुद के कथित किसान आन्दोलन का हाइजैक हो जाना सहित योगेन्द्र यादव ने भाजपा की जीत की कई कमियाँ गिनाई हैं। यहाँ तक तो सब ठीक है, लेकिन तभी उन्हें भाजपा की प्रचंड जीत नज़र आती है और वे फिर से मतदाताओं को गाली देने के लिए लौटते हैं। इस बार सवालों की जगह उन्होंने “ऐसा हो सकता है कि” का प्रयोग किया है ताकि सीधे कुछ लिखने की जगह इससे ही भाव स्पष्ट हो जाए। वो लिखते हैं:
“मतदाता अनभिज्ञ हो सकते हैं (अर्थात वो चीजों से अनजान हो सकते हैं), सम्मोहित किए गए हो सकते हैं, उनका ध्यान कहीं और भटका हुआ हो सकता है या फिर पूर्वग्रह से ग्रसित हो सकते हैं। ठीक उसी तरह, जैसा हम लोग शॉपिंग मॉल में खरीददारी करते समय महसूस करते हैं। मतदाताओं ने सजग निर्णय नहीं लिया, ध्यान देकर और समझ-बूझ से काम नहीं लिया।”
मतदान की तुलना शॉपिंग मॉल में खरीददारी से करने वाले योगेंद्र यादव को शायद यह पता नहीं कि देश की एक बड़ी आबादी ने कभी शॉपिंग मॉल को देखा भी नहीं है। इसका अर्थ ये नहीं कि इन्हें अपनी इच्छानुसार वोट देने का अधिकार नहीं है। उनके मत का भी उतना ही मान है, जितना यादव का और मुकेश अम्बानी का। यही तो लोकतंत्र है। योगेंद्र यादव के लिए भले ही पोलिंग बूथ एक मॉल हो, जनता के लिए वह अगली सरकार चुनने का एक माध्यम होता है। योगेंद्र यादव ने ये तो बता दिया कि वे मॉल में चीजें खरीदते समय कैसा महसूस करते हैं, लेकिन जनता भी वोट देते समय ऐसा ही महसूस करती है, इसके लिए कोई कारण नहीं बताया यानी, ब्रह्मवाक्य है, लिख दिया तो लिख दिया।
आधे लेख के बाद योगेन्द्र यादव को दिव्य ज्ञान की प्राप्ति होती है और देशहित को देखते हुए उन्हें लगता है कि मौजूदा विकल्प में नरेन्द्र मोदी ही बेहतर हैं। दिव्य ज्ञान की अवधि ख़त्म होते ही उन्हें मोदी मुस्लिमों को छाँट कर चलने वाले दिखने लगते हैं और उनकी ‘विभाजित करने वाली और नेगेटिव’ प्रचार अभियान चलाने से लेकर उनके द्वारा ‘अपने कार्यकाल के वास्तविक रिकॉर्ड को छिपाने’ का आरोप लगाते हैं। इसके बाद उनके पास विपक्षी दलों के लिए कुछ सलाह होती है। योगेन्द्र यादव को लगता है कि अब जातिवाद से काम नहीं चल रहा है, कुछ और आजमाना पड़ेगा।
ध्यान देने वाली बात यह है कि भाजपा और मोदी पर लगातार हिन्दू-मुस्लिम राजनीति करने का आरोप लगाने वाले योगेन्द्र यादव ने जातिवाद का जिक्र तो किया है, लेकिन कहीं भी इसकी निंदा नहीं की है। दिव्य ज्ञान वाले भाग में उन्हें मोदी ठीक नज़र आते हैं, लेकिन कई बिना तथ्यों के अंट-शंट आरोपों के साथ वो फिर अपनी कारगुजारी पर उतर आते हैं। यहाँ सोचने वाली बात यह है कि यादव जैसे लोगों को मतदाताओं से समस्या क्यों है? 2014 में गुड़गाँव लोकसभा से चुनाव लड़ने के बाद चौथे नम्बर पर आकर जमानत जब्त कराने वाले योगेंद्र यादव जैसे लोग जब करोड़ों मतदाताओं के बारे में एक आम राय बनाते हुए नेगेटिव ठहरा दें, तो इस पर सवाल उठाना लाजिमी है।
जनादेश के बाद चुने गए लोगों की आलोचना तो होती रही है, लेकिन शायद यह पहला मौका है, जब जनादेश देने वाली जनता को ही भला-बुरा कहा जा कहा जा रहा है क्योंकि उसनें ऐसा नहीं किया, जैसा मुट्ठी भर लिबरल चाहते थे। जनता को ही भटका हुआ, अनपढ़ और पागल साबित करने की कोशिश की जा रही है। कल को ये लोग कहने लगेंगे कि फलाँ पार्टी को वोट देने वाले आतंकवादी हैं, तब क्या? जनादेश को लगातार अपमानित करने वाले इन नेताओं को कुछ दलों द्वारा सदियों से वोटबैंक के लिए फैलाए जा रहे जातिवाद से कोई समस्या नहीं है। फिर बात वहीं आकर रुक जाती है, मैं ये नहीं कह सकता कि “योगेन्द्र यादव की सूजी है” लेकिन मैं ये कह सकता हूँ, “मैं योगेन्द्र यादव की दाढ़ी नोच कर कभी नहीं देखना चाहूँगा कि उनमें कितने तिनके हैं।“