निखिल वागले की ट्विटर आईडी पर उनकी न जाने कबकी (आत्म?)मुग्ध सी फोटो लगी है, जबकि उनकी आज की सच्चाई से वह कतई मेल नहीं खाती- और सच्चाई के धरातल से यही विसंगति उनके प्रोपोगेंडाकार के तौर पर व्यवहार और कथन में भी झलकती है। वह पत्रकारिता के समुदाय विशेष का हिस्सा हैं जिसने अंदर से तो दीवार पर लिखी इबारत पढ़ ली थी कि अब मोदी का समय आ गया है (और हिन्दुओं को बिलावजह गरियाने और हर कदम पर ‘गिल्टी’ महसूस कराने का समय जा चुका है) लेकिन गरिया इतना ज्यादा चुके थे कि अब सुर बदल लेना (जो बहुत सारों ने किया भी; कुछ ने 2013-14 में कर लिया, बरखा दत्त जैसे कुछ और अब कर रहे हैं) सम्भव नहीं। तो, उन्होंने अपने आपको मोदी को दूसरा कार्यकाल न मिलने के प्रबंध में झोंक दिया- और उनकी ट्विटर वॉल इस मेहनत की गवाह है।
लेकिन मेहनत रंग नहीं लाई और मोदी वापिस आ गया छाती पर मूँग दलने 5 और साल। तो अब उनकी मानसिक हालत भी उनकी ट्विटर प्रोफाइल पिक्चर जैसी ही है। दुश्चिंताओं (फर्जी लिबरलों के लिए) से भरे वर्तमान की बजाय शायद वह ‘सुनहरे’ भूतकाल में रहना पसंद कर रहे हैं- जहाँ वह भी लिबरलों के आदर्श नेता राजीव गाँधी जैसे ‘डैशिंग युवा’ थे, बागों में बहार थी, और यह लोग जो कुछ कह देते थे, जनता सर-आँखों पर बिना सोचे-समझे रख लेती थी। और उसी मानसिक हालत में यह ट्वीट आया है कि मोदी को ‘केवल’ 38% वोट मिला है, राजग को ‘केवल’ 45%- यानि 55% लोगों ने मोदी को नकार दिया है (और मोदी को चाहिए कि ‘जनादेश का सम्मान करते हुए’ प्रधानमंत्री की कुर्सी पर न बैठें!)
NDA got 45% vote, BJP 38%. 55% voted against Modi and BJP. Will you respect this mandate, Modiji?
— nikhil wagle (@waglenikhil) May 27, 2019
‘धंधेबाज’ पत्रकारिता के ‘गोल्डन डेज़’ में उनके इस आकलन का सच में बड़ा महत्व होता- और पढ़कर शायद एक आम आदमी सही में सोचने लगता कि नहीं भाई, प्रधानमंत्री बहुत गलत कर रहा है, जब देश के 55% लोग उसे नहीं चाहते तो वो क्यों जबरदस्ती लोगों के सर पर सवार हो रहा है। पर वागले जी के दुर्भाग्य से वह (अ)सत्ययुग बीत चुका है- आज का आम आदमी उनकी अगर एक सुनता है, तो दिमाग में उसकी चार काट सोचता है, और ऑटो में बैठकर मेट्रो स्टेशन से ऑफिस जाते-जाते उन्हें आठ सुना भी देता है, और बेचारे वागले जी दोबारा अपनी ट्विटर प्रोफाइल पिक्चर वाले दिनों में लौट जाते हैं।
ट्वीट और सच्चाई- कोसों दूर
निखिल वागले का ट्वीट सही तथ्य की फेक न्यूज़ वाली पत्रकारिता के समुदाय विशेष की प्रवृत्ति का एक और उदाहरण है। यह सच है कि मोदी को 38% (ज्यादा-से-ज्यादा एनडीए का 45%) मत प्रतिशत मिला है, लेकिन उतना ही सच यह भी है कि इससे उनके शासन के अधिकार को कानूनी तो दूर, नैतिक चुनौती भी नहीं मिल सकती। क्यों? क्योंकि अगर इसी तर्क की कसौटी पर राहुल गाँधी (विपक्ष के अन्य किसी भी नेता) को कैसा जाए तो वह न केवल खरा नहीं उतरेगा, बल्कि उस बेचारे की तो कमर ही ध्वस्त हो जाएगी। राहुल गाँधी को मिले हैं 19.5% वोट, औरों के और भी कम हैं- तो प्रधानमंत्री किसे बनाया जाए, निखिल वागले के तर्क के अनुसार?
एक और बात, निखिल वागले यह भी नहीं बताते कि उनका तर्क निर्वाचन प्रक्रिया पर लागू ही नहीं होता। यह तर्क जनमत संग्रह के लिए होता है, जहाँ केवल दो विकल्प होते हैं- हाँ या न। जैसे ब्रिटेन में तीन साल पहले ‘ब्रेग्ज़िट’ जनमत संग्रह हुआ था- उसमें दो ही विकल्प थे, “हाँ” यानि ब्रिटेन को यूरोपियन संघ छोड़ देना चाहिए या फिर “ना” यानि ब्रिटेन को यूरोपीय संघ में बने रहना चाहिए। इसके उलट हमारे देश की सामान्य लोकतान्त्रिक निर्वाचन प्रक्रिया में विकल्पों का अभाव नहीं होता- लोग जिसे मर्जी आए वोट दे देते हैं, और जिस पार्टी को लोकसभा क्षेत्रवार सर्वाधिक मतदान मिलता है, उसके प्रतिनिधि संसद पहुँचते हैं और अपने में से किसी एक को प्रधानमंत्री चुन लेते हैं। यहाँ सकारात्मक वोटिंग गिनी जाती है, नकारात्मक नहीं, और वह भी लोकसभा क्षेत्रवार तरीके से, देश का कुल जोड़ एक साथ लेकर नहीं।
अगर किसी नए ‘रंगरूट’ ने यही तर्क दिया होता तो एक बारगी यह सोचकर नज़रअंदाज़ किया जा सकता था कि वह नया है, जानकारी नहीं है। लेकिन इसी ‘धंधे’ में पक कर पक्के हुए निखिल वागले के द्वारा यह अनभिज्ञता नहीं, कुटिलता है, क्योंकि अगर इतने साल बाद भी वह ‘अनभिज्ञ’ हैं निर्वाचन और जनमत-संग्रह के अंतर से, तो वह इतने साल से कर क्या रहे थे?
सोशल मीडिया पर भी फजीहत
इस वाहियात किस्म के प्रपोगंडे को लेकर सोशल मीडिया पर भी निखिल वागले की खूब फजीहत हो रही है। थिंक टैंक आब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन के अध्यक्ष अध्यक्ष समीर शरण और स्तंभकार प्रदीप सिंह ने उन्हें देश का राजनीतिक इतिहास और निर्वाचन प्रणाली सीखने की सलाह दी।
@waglenikhil जरा चुनाव आयोग की साइट देखिए और 1952, 1957 और 1962 में नेहरू के पक्ष में और खिलाफ पड़े वोट देख लीजिए। कभी पचास फीसदी वोट नहीं मिले। आज तक केवल मोरारजी देसाई की जनता पार्टी को पचास फीसदी से ज्यादा वोट मिले थे। थोडी मेहनत किया कीजिए। क्यों अपना मजाक उड़वा रहे हैं।
— Pradeep Singh (@23pradeepsingh) May 28, 2019
MyNation के स्तंभकार और बंगलुरु स्थित भारतीय विज्ञान संस्थान (आईआईएससी) के प्राध्यापक अभिषेक बनर्जी ने उनके नवनिर्वाचित भाजपा सांसद से बात करते-करते आपा खो देने पर भी उन्हें आड़े हाथों लिया। इस बहस में जब उन्होंने भाजपाईयों को गुंडा और नफरत फ़ैलाने वाला बताने की कोशिश की थी तो भाजपा सांसद ने उन्हें आईना दिखाते हुए पहले अपना ज्ञान पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी को देने की सलाह दी थी। साथ ही तेजस्वी सूर्या ने उन्हें यह भी याद दिलाया था कि ट्विटर पर कैसे निखिल वागले अक्सर भाजपाईयों के खिलाफ होने वाली हिंसा के पक्ष में बहाने बनाते दिख जाते हैं। इस पर भी निखिल वागले जवाब देने की जगह खुद से पलट कर सवाल पूछे जाने को लेकर ही किंकर्तव्यविमूढ़ दिखे।
For a while now, Nikhil Wagle had been blabbering incoherently.
— Abhishek (@AbhishBanerj) May 28, 2019
But that verbal thrashing from Tejaswi Surya has sent him over the edge.
BJP has found a very articulate young face in @Tejasvi_Surya https://t.co/qPDpEtt7hp
प्रोपोगेंडा बंद कर ढंग की पत्रकारिता की दुकान खोलें वागले, मार्केट में बड़ा स्कोप है
वागले को अपने ही ट्वीट के नीचे आई प्रतिक्रिया का ‘सम्मान’ करते हुए ट्विटर से संन्यास ले लेना चाहिए क्योंकि वहाँ उनको इस ज्ञान के लिए गालियाँ ज़्यादा पड़ रही हैं। मेजोरिटी और संख्या से जब इतना प्रेम है तो अपने ही कुतर्कों के अनुसार उन्हें जल्द ही ट्विटर छोड़कर अपना प्रलाप करने के लिए नई जगह ढूँढनी चाहिए।
खुद से सोचने-समझने की क्षमता रखने वाली जनता को बरगलाया नहीं जा सकता, उसके साथ प्रपोगंडा नहीं चल सकता। वह वागले के दुराग्रहों को तथ्य मानकर आँख बंद कर नहीं स्वीकार लेगी। लेकिन इसी मार्केट में असल पत्रकारिता का बहुत ‘स्कोप’ है- लेकिन पुरानी प्रोफाइल पिक्चर वाले, पुरानी पत्रकारिता वाले ‘वो भी क्या दिन थे!’ से बाहर आना पड़ेगा। निखिल वागले एन्ड फ्रेंड्स ध्यान देंगे?