Sunday, November 17, 2024
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सस्ते सौदे में कोरोना से जंग… लेकिन देर करेंगे तो समस्या विकराल होती जाएगी

हमारा अभी सँभल जाना बहुत ही सस्ता सौदा है। सस्ती कीमतों पर ही महँगा सुकून खरीद लें वर्ना बाद में जान को दाँव पर लगाकर भी कुछ हासिल नहीं हो पाएगा। आखिर अपनी गलती पर आहें भरने के लिए भी साँसों की ज़रूरत होती है और आप जानते हैं कोरोना इसकी इजाजत नहीं देता।

बच्चों की परीक्षाएँ स्थगित हो गईं क्योंकि हमें इससे भी बड़ी परीक्षा देने के लिए बाध्य होना पड़ा। पाठशालाएँ बंद हो गईं क्योंकि ज़िंदगी की पाठशाला कुछ ऐसा पाठ लेकर हमारे सम्मुख उपस्थित है, जिसे पढ़ना उनके लिए भी बाक़ी था, जो अब तक दूसरों को पढ़ाते या अनुशासित करते आए थे। ऐसा पहली बार हुआ है। हो सकता है कि ऐसी विकट स्थितियाँ तब भी आई हों जब दुनिया ने दो विश्वयुद्ध देखे, लेकिन तब विश्व दो खेमों में बँटा हुआ था और हर एक खेमे के अन्दर अपने-अपने फायदों को देखने वाले कुछ छोटे-छोटे समूह भी थे लेकिन इस बार सम्पूर्ण मानवता एक गुट का हिस्सा है और शत्रु है एक विश्वव्यापी महामारी, जिससे किसी की संधि तब तक संभव नहीं जब तक वो स्वयं उसका प्रवर्तक न हो। यानी जैविक हथियार की सुगबुगाहट के अलावा सम्पूर्ण मानवता इसके खिलाफ एकजुट है। सचमुच एक बड़ी परीक्षा है, जिसमें कुछ छोटे-छोटे सवाल पूछे गए हैं जैसे- अपने हाथों को अच्छी प्रकार कैसे धोएँ? कैसे किफायत से चीजों का प्रयोग करें? क्या मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है? खुश और संतुष्ट रहने के लिए हम खुद के अतिरिक्त और किन-किन चीजों पर निर्भर करते हैं? अच्छे विद्यार्थी सदा परीक्षा में उत्तीर्ण हो जाते हैं और कुछ असावधान विद्यार्थी असफल रह जाते हैं, लेकिन कई मामलों में ये परीक्षा आम परीक्षाओं से अलग है- यहाँ अपेक्षाकृत छोटे सवालों में ही हम मात खा जाते हैं और जो परीक्षार्थी अनुत्तीर्ण होने वाले हैं, उनकी असफलता आम परीक्षाओं की तरह मात्र उनका व्यक्तिगत नुकसान नहीं करेगी बल्कि उसका असर बाक़ी लोगों तक भी जाएगा।

हममें से प्रत्येक ने कितनी ही बार ये चाहा होगा कि काश हम फिर से बच्चे बन जाएँ। अब वो समय आ गया है कि हम बच्चों की तरह ही छोटी-छोटी बातें मानें, छोटी-छोटी चीजों में अपनी खुशियाँ ढूँढें, खुद को एंजॉय करें, परिवार के साथ समय बिताएँ। इस समय एक आज्ञाकारी बच्चा ही इस गंभीर समस्या का समझदारी भरा समाधान कर सकता है। अतिरिक्त होशियारी या तिकड़म जो बाल-मन के खिलाफ है, उससे काम नहीं चलने वाला बल्कि वो हम पर उलटा पड़ सकता है।

अपेक्षित चीजें करने में अक्सर कठिन होती हैं लेकिन जब वो आसान होती हैं, क्या तब हम उन्हें ठीक से करते हैं? नहीं। मतलब जागरूकता सबसे कठिन चीज़ है चाहे वो बिल्कुल छोटी-छोटी चीजों के बारे में ही क्यों न हो। मन के हिसाब से नहीं बल्कि ज़रूरत के हिसाब से काम या विश्राम करना कठिन है। और अगर हम इसे कठिन मान भी लें तो क्या कठिन कार्यों को करने की अनुमति सिर्फ सीमाओं-अस्पतालों में ही है? घर पर नहीं? सच बात तो ये है कि आसान या कठिन मानना इसे न करने का बहाना नहीं हो सकता। घर पर बने रहकर खुद को सुरक्षित रखना अगर आसान है तो करें, अगर कठिन है तो अवश्य करें क्योंकि इससे न केवल कोरोना से बचाव होगा बल्कि कठिन कार्यों को करने से उत्साह और खुशी भी मिलती है। इस समय सामाजिक दूरी बनाए रखना ही सामाजिक प्राणी मनुष्य का सबसे बड़ा कर्त्तव्य है। जब हमें तन से दूर रहने के लिए कहा गया तब हम मन से निकट आए, जनता कर्फ्यू के दिन शाम पाँच बजे हममें से न जाने कितने लोगों ने पहली बार अपने पड़ोसियों को उनकी बालकनी में देखा होगा। स्पष्ट है कि ये दूरी हमें समीप लाने के लिए है और ये निष्क्रियता हमें फिर से सबल बनाने के लिए ज़रूरी है। इसलिए खुद को घर पर ही बनाए रखें और अपने हाथों को स्वच्छ रखें। इस छोटी-सी बात को समझने में हम जीतनी देर लगाएँगे, ये समस्या उतनी ही विकराल होती जाएगी।

ये तो हुई परीक्षा की बात, लेकिन ये परिस्थितियाँ न केवल हमारी परीक्षा ले रही हैं बल्कि हमें बहुत कुछ सिखा भी रही हैं। अक्सर यही होता है कि जब हम किसी चीज़ को औपचारिक तरीकों से नहीं सीखते तो फिर लगती है परिस्थिति मैडम की आपातकालीन क्लास। परिस्थिति मैडम बड़ी सख्त हैं, जो उनकी बात नहीं मानता वो नुकसान भी उठाता है। तो हमें बस इतना करना है कि परिस्थितियाँ हमें जो कुछ सिखा रही हैं, उन शिक्षाओं को हमें जाया नहीं होने देना है। बाक़ी पाठशालाओं की तरह ही जीवन की पाठशाला में भी हमें सभी विषयों में चयन की सुविधा उपलब्ध नहीं है। कुछ विषय अनिवार्य होते हैं चाहे आप उन्हें पढ़ना चाहें या नहीं लेकिन ज़िंदगी अपना पाठ पढ़ाती है। आम भाषा में इसे सबक कहते हैं। यद्यपि अधिकतर लोग लॉकडाउन का पालन कर रहे हैं लेकिन इसका सबके द्वारा एक साथ पालन न किया जाना इसे कहीं नहीं पहुँचाएगा और निश्चित रूप से इसकी अवधि को बढ़ाएगा। अगर ये स्थिति लम्बी खिंची तो समस्या हो जाएगी। इस बात को ध्यान में रखते हुए अब हमें किफायत बरतना भी सीखना होगा, चाहे आर्थिक दृष्टि से हम कितने ही सबल क्यों न हों। लाखों की संख्या में मजदूरों का संक्रमित क्षेत्रों से असंक्रमित क्षेत्रों की ओर पलायन और इसके संभावित परिणाम इसे कितना भयावह बनाने वाले हैं ये देखना अभी बाक़ी है। ऐसी हालत में यथास्थिति स्थायी नहीं है। बर्फ के पिघलने के दौरान यानी उसकी अवस्था परिवर्तन के समय तो तापमान स्थिर ही रहता है जबकि ऊष्मा लगातार दी जाती है, लेकिन ऐसा सिर्फ उसके गलनांक तक पहुँचने से पहले तक ही संभव है। इसलिए हमें लगातार बदलती परिस्थितियों की गुप्त ऊष्मा को पहचानना होगा।

इंसानों की जान के अलावा दुनिया भर के समृद्धिशाली देशों की अर्थव्यवस्था को करारा झटका मारने वाली यह परिस्थिति, हमें कुछ अन्य शाश्वत नियमों की सीख भी देती है जैसे कि शक्तिशाली देश जब संसाधनहीनता की स्थिति में पहुँचते हैं तो दूसरों के लिए खतरा बन जाते हैं, क्योंकि अंतत: भैंस तो लाठी वाला ही हाँक कर ले जाता है। जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं के आगे वैश्विक हित, अन्तरराष्ट्रीय सद्भाव-सामंजस्य और यहाँ तक कि शक्ति संतुलन की कवायदें भी धराशाई हो जाती हैं क्योंकि भूखे पेट का एकमात्र तर्क रोटी ही है, येन केनापि प्रकारेण। आज भले ही हमें ये बातें दूर लगती हों लेकिन कुछ महीनों का लॉकडाउन (अगर हमारी लापरवाही इसे इतना लंबा खींच दे तो) सब कुछ स्पष्ट दिखा देगा। इसलिए ज़रूरी है कि हम कम से कम समय में सोशल डिस्टेंसिंग की ज़रूरी अवधि को पूर्ण सफल बनाएँ क्योंकि आगे की कठिनाइयाँ दोनों दृष्टियों से बहुत खराब हैं- एक तो ये कि जिन लोगों को वर्त्तमान के शिथिल कर्फ्यू का पालन करना भी भारी पड़ रहा है, क्या उन्हें भविष्य में आपातकाल जैसा प्रतिबन्ध झेलना आसान लगेगा? और दूसरा कोरोना का जंगल की आग की तरह फ़ैलने का रिकॉर्ड। इन दोनों स्थितियों में से किसी का भी सामना करने की बजाय हमारा अभी सँभल जाना बहुत ही सस्ता सौदा है। सस्ती कीमतों पर ही महँगा सुकून खरीद लें वर्ना बाद में जान को दाँव पर लगाकर भी कुछ हासिल नहीं हो पाएगा। आखिर अपनी गलती पर आहें भरने के लिए भी साँसों की ज़रूरत होती है और आप जानते हैं कोरोना इसकी इजाजत नहीं देता। इसलिए हमें एक सनकी इंसान की तरह सभी दिशा-निर्देशों का पालन करते हुए खुद को, अपने परिवार को और देश-दुनिया को सुरक्षित रखना होगा।

संभलिए, मान जाइए, घर पर रह कर जंग लड़ने के इस आसान से अवसर को गँवा कर बड़ी जंग मत हारिए। सारा विश्व इस साझी समस्या का शिकार है और इस रूप में ही सही, सम्पूर्ण मानवता अब एक परिवार की तरह नज़र आ रही है। यानी मजबूरियाँ हमें ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ तक ले आई हैं, अब हमें अपने प्रयासों से इसे ‘सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया:’ की ओर ले जाना है।

लेखिका: डॉ. अमिता

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Dr. Amita
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डॉ. अमिता गुरुकुल महाविद्यालय चोटीपुरा, अमरोहा (उ.प्र.) में संस्कृत की सहायक आचार्या हैं.

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