Monday, November 18, 2024
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मीडिया के बेकार मुद्दों पर चर्चा से बेहतर है कि नई शिक्षा नीति पर अपनी बात सरकार तक पहुँचाइये

अब जब सरकार बन चुकी है तो ये नजर आता है कि शिक्षा नीतियों पर पहले दिन से ही बात शुरू हो चुकी है। एमएचआरडी ने एक ड्राफ्ट पालिसी तैयार कर रखी है। और इस पर जनता से राय भी मांगी गयी है। अपनी आने वाली पीढ़ियों के बेहतर भविष्य के लिए जरूरी है कि हम मीडिया के उठाये टीआरपी बटोरू मुद्दों के बदले अपनी जरूरतों पर ध्यान केन्द्रित करना सीखें।

ऐसे मुद्दों को छोड़ दें तो बीस साल पुराने दौर में एक चीज़ और भी बदली हुई होती थी। किताबें अधिकांश खरीदी नहीं जाती थीं। आगे की कक्षा में पढ़ने वाले कक्षा पास करने पर अपने से छोटों को अपनी किताबें दे देते थे। हर साल नई किताबें खरीदने का बोझ शायद ही कभी, या बहुत कम छात्रों पर आता था। आज क्या किताबें इतनी बदल रही हैं कि हर साल हजारों रुपये की किताबें खरीदने की जरूरत पड़े?

सरकारी स्कूल जो मुफ्त में किताबें बांटते हैं, वो नई किताबें ही क्यों बाँट रहे हैं? बच्चों को अपने अग्रजों से किताबें मिल जाएँ तो एक तो उन्हें समय पर किताबें मिल जाएँगी, ऊपर से उनके खरीदने का खर्च, स्कूलों तक पहुँचाने की व्यवस्था में लगने वाला खर्च और समय सब बचाया जा सकता है। सरकारी प्रकाशन से आने वाली किताबों में शायद ही कोई अक्षर एक साल में बदल पाता है, इसलिए नई किताबें छापना जरूरी तो नहीं हो सकता।

दशकों पहले कभी यशपाल कमिटी ने शिक्षा सुधारों से सम्बंधित एक रिपोर्ट दी थी। उस समय शायद कोई अर्जुन सिंह मंत्री थे। इंट्रोडक्शन से लेकर अपेंडिक्स तक ये रिपोर्ट कुल 26 पन्ने की है। आमतौर पर समितियों की सिफारिश (अभी वाली नेशनल एजुकेशन पालिसी ड्राफ्ट भी) करीब पाँच सौ पन्ने का मोटा सा बंडल होता है जिसे कौन पढ़ता है, या नहीं पढ़ता, हमें मालूम नहीं। ऐसी सभी सिफारिशों से मेरी एक और आपत्ति ये भी होती है कि ये किस आधार पर बनी है ये पता नहीं होता। कभी-कभी कहा जाता है कि ये सर्वेक्षणों के आधार पर बनी हैं। ये वैसे सर्वेक्षण होते हैं जो अक्सर बताते हैं कि पाँचवीं-छठी कक्षा के बच्चों को दो का पहाड़ा नहीं आता।

क्यों नहीं आता? क्योंकि बिहार ही में बोली जाने वाली अनेक भाषाओँ में “पहाड़ा” अलग-अलग नामों से जाना जाता है। मैथिलि में इसे “खांत” कहते हैं तो मगही में “खोंढ़ा”। ऐसे क्षेत्रों में जब बच्चों से पूछा गया होगा कि पहाड़ा आता है? तो संभवतः उसे सवाल ही समझ में नहीं आया होगा। उसने ना में सर हिलाया होगा और वही लिख लिया गया। कोई खांत या खोंढ़ा पूछता तो शायद जवाब भी आता। हम आजादी के सत्तर सालों में बच्चों के लिए उनकी मातृभाषा में शिक्षा का इंतजाम भी नहीं कर पाए हैं। ऐसा तब है जब सभी वैज्ञानिक शोध बताते हैं कि मातृभाषा में मिलने वाली शिक्षा से बच्चे सबसे आसानी से सीखते हैं।

अब जब सरकार बन चुकी है तो ये नजर आता है कि शिक्षा नीतियों पर पहले दिन से ही बात शुरू हो चुकी है। एमएचआरडी ने एक ड्राफ्ट पालिसी तैयार कर रखी है और इस पर जनता से राय भी मांगी गई है। अपनी आने वाली पीढ़ियों के बेहतर भविष्य के लिए जरूरी है कि हम मीडिया के उठाये टीआरपी बटोरू मुद्दों के बदले अपनी जरूरतों पर ध्यान केन्द्रित करना सीखें। विवाद खड़ा करने में उनकी रुचि पिछले पांच वर्षों में सभी लोग देख चुके हैं। बाकी जरूरी मुद्दों के बारे में पढ़कर-जानकर उनपर अपनी राय सरकार तक पहुंचानी है, या सोशल मीडिया के हर रोज बदलते मुद्दों में मनोरंजन ढूंढना है, ये तो खुद ही तय करना होगा। सोचिये, क्योंकि सोचने पर फ़िलहाल जीएसटी नहीं लगता! आप मानव संसाधन विकास मंत्रालय तक अपनी राय ईमेल ([email protected]) के ज़रिये पहुँचा सकते हैं।

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Anand Kumar
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