बीते कुछ सालों से लगातार लड़कियाँ हर बोर्ड परीक्षा में लड़कों को पछाड़ते हुए मीडिया को “लड़कियों ने फिर मारी बाजी” जैसी हेडलाइन लिखने पर मजबूर कर देती हैं। इसे लड़कियों के भीतर की इच्छाशक्ति और लगन समझिए या फिर ‘बेटी पढ़ाओ बेटी बचाओ’ जैसे अभियानों की सफलता। आप बीते कुछ सालों के रिकॉर्ड देख लीजिए – लड़कियों की छाप हर बोर्ड परीक्षा में लड़कों के मुकाबले ज्यादा प्रभावशाली रही है। आज CBSE के नतीजे इसके हालिया उदाहरण हैं। कुछ लोगों को लग सकता है कि ये बातें लिखते हुए मैं अपने भीतर हावी हुए नारीवाद के कारण लड़कों की मेहनत को कम आँकने की कोशिश कर रही हूँ। लेकिन यकीन करिए ऐसा कुछ भी नहीं है। हम जिस समाज में रहते हैं वहाँ लड़कियों का इस तरह उभरना वाकई किसी के लिए भी गर्व की बात है। जिनकी शिक्षा उचित दिशा में हुई है वो मेरी इस बात को जरूर समझ पाएँगे।
लड़कों के मुकाबले लड़कियों का अव्वल आना किसी भी प्रगतिशील समाज के लिए इसलिए इतना प्रफुल्लित करने वाला है क्योंकि लड़कियों की स्थिति ही समाज की मानसिकता का आईना होती है। अभी के समय से थोड़ा पीछे जाकर याद कीजिए। इतिहास में लड़कियों को उनके अधिकार दिलाने के लिए कितने आंदोलन हुए हैं? देश की पहली महिला डॉक्टर (आनंदी) जैसी अनेकों महिलाओं को अपनी डिग्री हासिल करने के लिए न जाने कितनी आलोचनाओं का सामना करना पड़ा। ऐसे में यदि इन संघर्षों के नतीजे परीक्षाओं के परिणामों में दिखने लगे हैं तो मेरे जैसे वो लोग क्यों न खुश हों, जिन्होंने देखा है कि पढ़े-लिखे माहौल में भी लड़की को होमवर्क बनाम गृह कार्य में किस तरह उलझ कर रह जाना पड़ता है। जिन्हें मालूम है कि समाज में लड़के का शिक्षित होना आम बात है लेकिन एक लड़की का शिक्षित होना पूरे समाज के लिए सफलता की बात है। आसपास देखिए और खुद सोचिए लड़की होने के जो मानदंड समाज द्वारा तय किए गए हैं, उन पर शत-प्रतिशत देते हुए लड़की की छोटी सी सफलता भी कितनी बड़ी बात है।
आज जब मैं ‘लड़कियों ने फिर मारी बाजी’ पर बात कर रही हूँ तो मैं सिर्फ़ उन लड़कियों तक सीमित नहीं हूँ जिन्होंने 500 में से 499 अंक लाकर किसी लड़के को पछाड़ा है। मैं उन सभी लड़कियों की बात कर रही हूँ जिन्होंने सामाजिक और परिवारिक जद्दोजहद के बावजूद अकादमिक क्षेत्र में आगे बढ़ने का सपना देखा और उस सपने को पूरा करने के लिए उसने अपना एक-एक पल झोंक दिया। इस बात में कोई संदेह नहीं है कि लड़कों की सफलता भी उनकी लगन और मेहनत का परिणाम होती है, लेकिन इस बात में भी कोई दो-राय नहीं है कि समाज द्वारा निर्धारित नियमों और मानदंडों के बाद लड़कियों की कामयाबी किसी भी क्षेत्र में ज्यादा ‘खास’ होती है।
आमतौर पर हम देखते हैं कि नारी सशक्तिकरण की बहसों के बीच समाज का एक बड़ा तबका लड़कियों को इमोशनली वीक कहता है, और हर दूसरी बात पर उन्हें ‘तुमसे न हो पाएगा’ कह कर दरकिनार कर देता है, लेकिन कभी किसी ने सोचा है कि लड़कियों को इमोशनली वीक बताने वाला समाज कैसे और कब तैयार हुआ है? इन गुणों की सूची तैयार करने वाले ये वही लोग हैं, जिनका एक समय तक मानना था कि लड़कियों को शिक्षित करना ‘परिवार के लिए और समाज के लिए खतरनाक है।’ आज जब लड़कियों को खुद को समाज में आगे बढ़ाने का मौका मिल रहा है तो यकीनन वो सभी पुरानी भ्रांतियों को तोड़ने के लिए प्रयासरत हैं, जिनका निर्माण समाज ने उनके लिए किया है।
लड़कियों की इन बोर्ड परीक्षाओं में जीत बताती हैं कि अब वो अपने भीतर निहित मूल्यों को पहचानने और समझने लगी हैं। वो समझ चुकी हैं कि शिक्षा यदि उनका एक मात्र लक्ष्य है तो फिर उन्हें कोई नहीं रोक सकता है। आज उनका अव्वल आना बताता है कि वो न केवल खुद के औचित्य और अपने सपनों को बचाए रखने के लिए बल्कि औरों के लिए प्रेरणा बनने को भी जुझारू रूप से जुटी हुई हैं। क्लासरूम की शिक्षा और गृहणी बनने की ट्रेंनिंग की लड़ाई में वह तालमेल बिठाना सीख चुकी हैं। वह जान चुकी हैं कि जिन गुणों को गलत परिभाषित करके समाज ने उन्हें आगे बढ़ने से रोका है, उन्हें उन गुणों का इस्तेमाल अपनी बेहतरी के लिए कैसे करना है।
एक समय में लड़कियों की सृजनात्मकता को कढ़ाई, बुनाई और सिलाई के जरिए आँका जाता था, लेकिन आज लड़कियों के ये गुण उनकी उत्तर पुस्तिका में स्पष्ट देखा जाता है। एक समय में लड़कियों की लगन शक्ति और स्मरण शक्ति को अच्छी गृहणी होने का पर्याय माना जाता था, लेकिन अब उनके इन्हीं गुणों के सही प्रयोग से वह परीक्षा परिणामों में अव्वल आ रही हैं। समाज उन्हें जितना दबाने का प्रयास कर रहा है, लड़कियाँ अब उतना ही उभरने को तैयार हैं।
सीबीएसई के मुताबिक लड़कों की तुलना में 9 फीसदी अधिक लड़कियाँ इस बार पास हुईं हैं। सीबीएसई 12वीं बोर्ड में 88.70 फीसदी लड़कियाँ पास होने में सफल रहीं, जबकि लड़कों का पासिंग पर्सेंटेज 79.4 फीसदी रहा।
इस बार कुल 83.4 फीसदी बच्चे पास होने में सफल हुए। लेकिन पिछली बार की तरह इस बार भी लड़कियों ने बाजी मारी है। उम्मीद करती हूँ ऐसे परिणाम साल दर साल आएँगे और एक समय ऐसा आएगा जब लड़कियों का न सिर्फ शिक्षित होना बल्कि हर क्षेत्र में अव्वल होना सबके लिए ‘आम’ बात होगी। लोग समझ पाएँगे कि जिस तरह के समाज का निर्माण लड़कियों के लिए इतिहास में किया गया था, वो एक ब्लर तस्वीर जैसी थी जिसमें लड़की के अस्तित्व का पता तो उनकी शारीरिक बनावट से लग जाता था लेकिन उनके गुणों को धुंधला दिया जाता था।