जिस तरह की बजबजाती नाली में अमेरिकी नागरिक सिद्धार्थ वरदराजन का नक्सली पोर्टल ‘द वायर’ तब्दील हो चुका है, वैसे में बड़े-बूढ़ों की तो सलाह होती कि इस गंदगी से बच के निकल जाना ही भले आदमी के लिए सही है- क्योंकि जब आप नाली के शूकर से मल्लयुद्ध करते हैं तो आखिरी वार चाहे जो करे, जीत मल-मूत्र, विष्ठा में आपको लिथाड़ने के कारण शूकर की ही मानी जाती है। लेकिन अफ़सोस की बात यह है कि यह आम समय नहीं है। वायर हिन्दुओं के कत्लेआम की ज़मीन तैयार करने का जो कीचड़ सालों से तैयार कर रहा था, वह अब भभक-भभक कर समाज में फ़ैलने लगा है। हिन्दू इससे संक्रमित हो रहे जिहादियों के हाथों मरने लगे हैं। इसलिए कीचड़ में उतरना, जानवर को जानवरों वाली ज़हरीली ज़ुबान में ही जवाब देना बहुत ज़रूरी है- आत्मरक्षा के लिए, एज़ अ राइट टू सेल्फ़-डिफेंस।
ऐसी ही हिन्दुओं से कातिलाना घृणा की गंध मारता ज़हर उगला है खुद को एम्स में हड्डियों का डॉक्टर और इसी विषय का प्रोफ़ेसर बताने वाले डॉ. शाह आलम खान ने। इसमें नाम के लिए संबोधित भले भाजपा नेता कपिल मिश्रा हैं, लेकिन लेख पढ़कर साफ़ समझ में आ जाएगा कि असल में यह लेख सभी हिन्दुओं को संबोधित है। खीझ उतारी है कि हज़ार साल से रीढ़विहीन हो रेंग रहे, पिछले 5 साल में ‘हिंदूवादी’ सरकार से भी केवल ‘आखिर कुछ करते क्यों नहीं’ चीख ही पा रहे, इन काफिरों में इतनी जान कहाँ से आ गई कि बाबर और तैमूर की औलाद होने का दम भरने वाली, देश में दार-उल-इस्लाम कायम करने के लिए जिहाद कर रहीं नस्लों के आगे अकड़ कर खड़े हो जाएँ!
चूँकि असली निशाना सभी काफ़िर हैं, इसलिए व्यक्तिगत तौर पर कपिल मिश्र को नापसंद करने के बावजूद इसका जवाब देना एक unapologetic काफ़िर के तौर पर मेरे लिए ज़रूरी है।
‘मिश्र’ उपनाम ‘खान’ से भी खराब है?
पहला हमला डॉ. खान करते हैं कपिल मिश्रा की जाति पर। बताते हैं, “मिश्रा जातिसूचक है, इसलिए मैं इसे स्वीकार नहीं करूँगा। मैं तुझे कपिल ही कहूँगा।” अब जाति-व्यवस्था क्या थी और क्या नहीं, यह मुख्य मुद्दा (जिहादी डॉ. की काफ़िरों से घृणा) से ध्यान हटा देगा, इसलिए इसे जाने देता हूँ। (पढ़ने के इच्छुक इस विषय पर मेरे अन्य लेख ऑपइंडिया पर और मुझसे कहीं ज़्यादा जानकार लोगों की टिप्पणियाँ, देख सकते हैं)
लेकिन, अगर जाति के ख़िलाफ़ एक-एक नुक्ताचीनी को सही मान भी लिया जाए, तो भी क्या ‘मिश्रा’ उपनाम का इतिहास, ब्राह्मणों के कथित जातिवाद का इतिहास ‘खान’ उपनाम वालों के इतिहास से भी काला है? क्या मिश्रा नाम के किसी व्यक्ति ने चंगेज़ खान, हलाकू खान, कुबलाई खान, या फिर याह्या खान, मोहम्मद अयूब खान, खिज्र खान, आसिफ़ खान आदि से भी ज्यादा हत्याकाण्ड, बलात्कार, बलात्कार के बाद हत्या किए हैं या उन्हें शह दी है? अगर हाँ, तो सबूत दिखाइए। अगर नहीं, तो शर्म करिए इतना घिनौना और हिंसक इतिहास लिए उपनाम लगा कर कपिल मिश्रा के बहाने हिन्दुओं पर नाम के इतिहास को लेकर हमला करने के लिए।
दिक्कत कपिल मिश्रा से नहीं, उन्हें वोट देने वाले काफ़िरों से
जैसा कि मैंने पहले भी कहा था कि डॉ. खान की असली दिक्कत कपिल मिश्रा नहीं, उन्हें वोट देने की हिमाकत करने वाले ‘गलीज़’ काफ़िर हैं। इसलिए ज़्यादा समय भूमिका बाँधने में बर्बाद किए बिना खान काफ़िरों पर हमला शुरू कर देते हैं। कपिल मिश्रा के बहाने काफ़िरों को शर्म करने की हिदायत देते हैं। बताया जाता है कि काफ़िर कपिल की हार 11 हज़ार मतों से कहीं बड़ी होनी चाहिए थी, न जाने कौन से नामुराद 40% काफ़िर पैदा हो गए जो कपिल मिश्रा को वोट दे आए।
धिम्मी बनकर, ‘मीठे’ बनकर, अपने हाथों अपना बंध्याकरण कर लेने वाले काफ़िरों को ‘शांतिप्रिय समाज’ बताकर उनके मुकाबले में अपने लिए खड़े होने वाले, कलमा पढ़ने से इनकार कर पाकिस्तान-बांग्लादेश-अफ़गानिस्तान से भाग आए सह-काफ़िरों को पनाह देने (और उनके साथ बलात्कार और हत्या करने वाले समुदाय को वही सुविधा न देने के लिए इनकार करने) वालों को असंतुलित, आग उगलता दानव बनाया जाता है। डॉ. शाह आलम खान काफ़िरों से कितनी नफ़रत करते हैं, इस बात को उनके लेख का एक उदाहरण साफ़-साफ़ दिखाता है। वे वहाँ बलात्कृत हो रहे, मारे जा रहे, पुरखों की सम्पत्ति लुटवा रहे, अपने मन्दिर तुड़वा रहे काफ़िरों पर लांछन लगाते हुए कहते हैं कि उनके माँ-बाप ने तो पाकिस्तान में ही रहना स्वीकार कर लिया था, जबकि डॉ. खान के पुरखे पाकिस्तान नहीं गए।
मैं इस कुतर्क की परतों को नोंच-नोंच कर उसकी खाल उधेड़ने के पहले चाहूँगा कि आप ज़रा रुकें, एक गहरी साँस लें और इस व्यक्ति की जिहादी कुंठा, नफ़रत और क्रूरता के इतने नंगे प्रदर्शन पर एक मिनट गौर करें। जिस समय कोई इंसान मज़हबी प्रताड़ना का शिकार होकर, बलात्कृत होकर या उससे बचने के लिए, घर के एक-आध लोगों के क़त्ल हो जाने के बाद या उससे बचने के लिए, घर-बार, व्यवसाय, शिक्षा, पहचान छोड़ कर भागता हुआ कहीं शरण लेना चाहे और वहाँ शरण देने वालों में से कोई ऐसा, जो उसी मज़हबी विचार का पालन करता है जिससे वह शरणार्थी जान बचाकर भागा है, उससे उसके पुरखों के बारे में जाँच पड़ताल शुरू कर दे, तो यह व्यवहार क्या इंसानियत के किसी घटिया रूप की भी श्रेणी के लायक है?
अब इस कुतर्क पर आएँ तो पहली बात अधिकांश शरणार्थी (और पाकिस्तान के हिन्दुओं का बहुसंख्य) अनुसूचित जाति से आते हैं। पत्रकारिता के समुदाय विशेष के हिसाब से तो अनुसूचित जाति में पैदा हो भर जाने से व्यक्ति वंचित, पीड़ित, प्रताड़ित बन जाता है। तो वंचित, पीड़ित, प्रताड़ित व्यक्ति अगर पीछे छूट गए तो अपनी गरीबी, अपने शोषित होने के चलते छूटे होंगे। टिकट खरीदने और सुरक्षित निकल पाने का पैसा न होने के कारण छूटे होंगे। या अपनी मर्जी से, ताकि पहला पीरियड आते ही उनके परिवार की लड़की का बलात्कार कर उसे निकाह के मुलम्मे में आजीवन सेक्स-गुलाम बनाया जा सके, इसलिए जानबूझकर पीछे रह गए होंगे? पुरखों के अपराधों के लिए आज की पीढ़ी को सज़ा देने की बात अगर डॉ. शाह आलम खान चाहते ही हैं तो अपने इलाके में (चाहे वे देश के जिस भी इलाके से आते हों, क्योंकि इस देश का इस्लामी इतिहास काफ़िरों के खून से इतना सना है कि कोई ऐसा टुकड़ा नहीं होगा ज़मीन का जिसे किसी मोमीन ने काफ़िर से रक्त से न सींचा हो) पिछले 1200 साल में हुए काफ़िरों के कत्लेआम से शुरू करना चाहिए।
अपना रास्ता माँगना हर किसी का संवैधानिक अधिकार है
डॉ. शाह आलम खान काफ़िर कपिल से पूछते हैं कि उसे एक राजनीतिक हस्ती के तौर पर दार-उल-इस्लाम की, ‘तेरा मेरा रिश्ता क्या’ की जंग लड़ रहे अल्लाह के बन्दों को हटाने के लिए दिल्ली पुलिस को हिदायत देने का क्या हक़ है। लेकिन वह यह या तो काफ़िरों से नफ़रत में भूल जाते हैं या नज़रअन्दाज़ कर देते हैं कि काफ़िर कपिल हिंदुस्तान का एक नागरिक भी है। उसे जाफराबाद मेट्रो स्टेशन इस्तेमाल करने का भी हक है, जो उसके टैक्स और किराए के पैसे से बना और चलता है। वे यह भी भूल जाते हैं कि अगर काफ़िर कपिल को ऐसा लगा कि उसके टैक्स के पैसे से तनख्वाह पा रही दिल्ली पुलिस अपना काम ठीक से नहीं कर रही थी, जाफराबाद और चाँदबाग में शाहीन बाग़ की तरह एक और दार-उल-इस्लाम बनने दे रही थी (जहाँ किसी काफ़िर के साथ वह भी होता जो काफ़िरों गुंजा कपूर और दीपक चौरसिया के साथ हुआ, और वह भी जो आईबी के अंकित शर्मा के साथ हुआ) तो काफ़िर कपिल का पूरा हक था पुलिस को यह कहने का कि इसे खाली कराए। यह हक़ (डॉ. शाह आलम खान के) दुर्भाग्य से संविधान फ़िलहाल काफ़िरों को भी देता है।
लोकतंत्र की मौज काफ़िरों के दम पर ही है। काफ़िरों से नफ़रत का ऐसा रूह कँपा देने वाला प्रदर्शन करने के बाद डॉ. खान काफ़िर कपिल को ज्ञानवाचन करते हुए बताते हैं कि दुनिया में केवल हिंदुस्तान के ही मुस्लि ऐसे हैं जो “72 साल से लोकतंत्र का सम्मान करते आ रहे हैं।” यह न केवल काफ़िरों की लोकतांत्रिक प्रकृति का बेजा अधिग्रहण करने की कोशिश है, बल्कि CAA के विरोध के भी विरोध में है।
पहली बात तो यह कि अगर दुनिया में लगभग 50 इस्लामी प्रभुत्व के देश हैं और किसी में लोकतंत्र मजबूत नहीं रहा तो यह इस्लामी प्रभुत्व की प्रकृति के बारे में क्या कहता है? साथ ही डॉ. खान को खुद से यह भी सवाल पूछना चाहिए कि उन 50 देशों के मुस्लिम और भारत के मुस्लिम कोई अलग-अलग कुरान और सुन्ना मानते हैं क्या? भारत में वही हनाफ़ी-सलाफ़ी-बरेलवी-देवबंदी-शिया-सुन्नी-खोजा-हज़रा-अहमदिया हैं जो दुनिया में हैं, या हमने कोई अलग प्रजाति विकसित की है, जिसकी कुरान, जिसका हज़रत, जिसका ईमान बाकी मुस्लिमों से अलग है? क्योंकि अगर दुनिया का इस्लाम और भारत का इस्लाम समान है तो ज़ाहिर बात है कि भारत का लोकतंत्र इस्लाम नहीं रखे हुए है (वरना वही इस्लाम पूरी दुनिया में डॉ. खान के ही शब्दों के हिसाब से, लोकतंत्र के साथ बेमेल न होता)।
भारत को लोकतान्त्रिक इसका हिन्दू होना रखे है, इसका हिंदुत्व रखे है। इस्लाम की बहुसंख्या में लोकतंत्र का क्या हाल होता, यह देखने के लिए केवल 5 अगस्त, 2019 के पहले के कश्मीर तक देखने की ज़रूरत है। काफ़िरों को अपने जूते के नीचे बनाए रखने, बराबर में न आने देने की माँग और इच्छा ही 370 का, 35-A का, विशेष दर्जे का, पाकिस्तान के साथ मिल जाने की खुली धमकी का स्रोत थे। अगर डॉ. खान को लगता है कि भारत के आज के मुस्लिम सच में दुनिया के मुस्लिमों से अलग, काफ़िरों से और लोकतंत्र से प्रेम करने वाली कोई अनूठी प्रजाति हैं तो उन्हें यह बताना चाहिए कि ऐसे में CAA का विरोध कर इस लोकतान्त्रिक, काफ़िर-प्रेमी दुर्लभ मजहबी प्रजाति का वह लोकतंत्र-विरोधी, काफ़िरों से नफ़रत करने वाले कठमुल्ले समुदाय विशेष से घालमेल क्यों करना चाहते हैं?
दुश्मन कपिल मिश्रा नहीं, काफ़िर होना है
डॉ. खान और उनके जैसे हर जिहादी की असली दिक्कत न कपिल मिश्रा हैं, न ही CAA। यहाँ तक कि मोदी भी नहीं। असली दिक्कत है काफ़िरों से उनकी नफ़रत। उन्हें हिकारत भरी नज़रों से देखने और अपने जूतों तले रौंदने की 1200 साल पुरानी आदत। आज का काफ़िर इसके आगे और झुकने से इनकार कर रहा है। ‘इकलौते दीन’ का प्रभुत्व मानने या इसके आगे दोयम दर्जे का हो जाने से इनकार कर रहा है। यही नहीं अपने आस-पास के दार-उल-इस्लामों में प्रताड़ित काफ़िरों की तरफ़ हाथ बढ़ा कर अपने सामाजिक हाथ मजबूत कर रहा है। ऐसे में डॉ. खान जैसे लोगों को वह सामाजिक दबदबा फ़िसलता नजर आ रहा है जिसे सदियों से केवल अपना मानने के संस्कार उनके अंदर तक, कांस्टेबल अंकित शर्मा को 400 बार चाकुओं से गोदने वालों के इतने अंदर तक पैवस्त हैं कि जब उसके बिना दुनिया देखनी पड़ रही है तो अंदर की पाशविक वृत्ति खौल कर सड़कों पर निकल रही है और लोगों के सिरों में ड्रिल घोंप रही है।