8 मार्च को अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस आता है और इसे लेकर तमाम विमर्श गढ़े जाते हैं, तमाम प्रोग्राम्स आयोजित किए जाते हैं और इसके साथ ही ऐसी पीड़ा का विमर्श तैयार होता है, जहाँ पर किसी और के लिए कोई स्थान नहीं है। इसमें हर पुरुष को दोषी ठहरा दिया जाता है। उनकी आत्माओं पर वेदनाओं का बोझ बताकर तमाम पुरुषों को उसका उत्तरदायी ठहरा दिया जाता है।
मगर 8 मार्च के कुछ ही महीने बाद आने वाला अंतरराष्ट्रीय पुरुष दिवस आता है और चुपचाप विदा ले जाता है। ऐसे विदा लेता है, जैसे वह मायने ही नहीं रखता है। उसका मायने न रखना ही हमारे लिए सबसे अधिक दुखदायी है। पूरे समाज के लिए यह चुप्पी बहुत खलने वाली है क्योंकि समानता का जो द्वन्द्व आज प्रस्तुत किया जा रहा है, उसमें पुरुष को अनावश्यक ही खलनायक बनाया जा रहा है।
जिन भारतीय पुरुषों ने अपनी मातृभूमि और माँ के लिए अपने जीवन का बलिदान कर दिया, न जाने कितने पुरुषों के सिरों की मीनारें इसी बात पर बना दी गई थीं क्योंकि उन्होंने धर्म परिवर्तन से इनकार कर दिया था और अपनी स्त्रियों का मान बचाने के लिए युद्ध का मार्ग चुना था, उन्हीं पुरुषों को विमर्श में वैसा खलनायक बनाकर पेश कर दिया जाता है, जिसने सदियों से स्त्रियों पर अत्याचार किए थे।
जबकि वह तो हर युग में सहायक बन कर खड़ा रहा। वह खड़ा रहा ऐसी छाँव बनकर, जिसके तले सभ्यता और संस्कृति अपना आकार लेती रहीं। वह मिटता रहा मगर माँ समान संस्कृति की रक्षा करता रहा।
जिन सफल महिलाओं की चर्चा होती है, उनके सहायक रहे पुरुषों की चर्चा क्यों नहीं होती है? यह प्रश्न तो पूछना ही होगा? क्यों 19 नवम्बर को जब अंतरराष्ट्रीय पुरुष दिवस मनाया जाता है तो उन पुरुषों पर बात नहीं होती जो अपने जीवन की ही नहीं बल्कि समाज की स्त्रियों के पीछे खड़े हो गए?
जब रानी लक्ष्मीबाई की बात होती है तो क्यों उन्हें सैन्य शिक्षा दिलाने वाले पुरुषों की बात नहीं होती? जब रानी दुर्गावती या रानी अवंतिबाई की बात होती है तो उन तमाम सैनिकों की बात क्यों नहीं होती जिन्होंने उनकी एक ललकार पर अपना जीवन शत्रुओं का नाश करने के लिए बलिदान कर दिया?
जो महिला खिलाड़ी हैं, उनके कोच आदि के योगदान पर बात क्यों नहीं होती? क्या हम एक दिन के लिए भी अपने जीवन के पुरुषों का आभार व्यक्त नहीं कर सकते? क्या हम एक दिन नहीं निकाल सकते उन लाखों पुरुषों के लिए, जो चुपचाप बलिदान ही नहीं हुए बल्कि विमर्श में अपयश लेकर चल रहे हैं?
पुरुष दिवस पर समाज की इस चुप्पी को लेकर मैं बरखा त्रेहन, जो अपने पुरुष भाइयों के लिए पुरुष आयोग के माध्यम से निरंतर संघर्ष कर रही हूँ, बहुत आहत होती हूँ, बहुत दुखी होती हूँ!
बार-बार इस विमर्श में फैले अन्याय से दुखी होती हूँ, मगर फिर काम में लग जाती हूँ क्योंकि यह चुप्पी जो ठहरी है, वह टूटेगी ही एक न एक दिन! मुझे इसे लेकर पूरा विश्वास है। साल-दर-साल, मैं अपने पुरुष भाइयों के साथ खड़ी रहूँ और समाज की इस चुप्पी पर तब तक प्रश्न करती रहूँगी, जब तक वह हमारे गुमनाम नायकों पर बात नहीं करते, मैं इस लड़ाई को लड़ती रहूँगी!