भाषा का लेकर चंदन, आओ कर लें अभिनंदन
कि गर्व से हिन्दी बोलें, चलो हिन्दी के हो लें
संपूर्ण विश्व में एकमात्र भारत ही ऐसा देश है जो न केवल भौगोलिक क्षेत्रफल और जनसंख्या की दृष्टि से विशाल है अपितु हमें तो इस बात का भी गर्व है कि हमारे देश में लगभग 1652 विकसित एवं समृद्ध बोलियाँ प्रचलित हैं। इन बोलियों का प्रयोग करने वाले विभिन्न समुदाय अपनी-अपनी बोली को महत्वपूर्ण मानने के साथ-साथ उसे बोली के स्थान पर भाषा कह कर पुकारते हैं और उनमें से कुछ बोलियाँ ऐसी हैं भी जिनमें वे सभी गुण विद्यमान हैं जो किसी भी समर्थ भाषा में होने चाहिए।
ऐसे विराट और समृद्धशाली राष्ट्र में स्वाधीनता आंदोलन के काल में सम्पूर्ण देश के लिए संपर्क भाषा का चयन करना अत्यंत ही चुनौतीपूर्ण कार्य था। यह देश अपनी दासता की जंजीरों को तोड़ फेंकने के लिए तो संगठित था परन्तु एक संपर्क भाषा की अनिवार्यता अनुभव करते हुए भी इस प्रश्न पर सहमति नहीं हो पा रही थी कि विभिन्न प्रादेशिक भाषाओं में से किसे सम्पूर्ण देश के लिए संपर्क भाषा के रूप में प्रयुक्त किया जाए।
गहन विचार-विमर्श करने के उपरान्त स्वतन्त्रता संग्राम में जुटे हुए लगभग सभी प्रमुख नेता, राजनीतिज्ञ, क्रांतिकारी, साधु-संत और विद्वतजन इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि हिन्दी ही वह भाषा है जो सभी को एक सूत्र में पिरोने का सामर्थ्य रखती है, यही भाषा सेतु बनकर भावनात्मक स्तर पर सम्पूर्ण देश को एक करेगी। सबसे महत्त्वपूर्ण बात जो उन्हें लगी वह यह थी कि हिन्दी की अपनी स्वतंत्र लिपि है – देवनागरी लिपि – जो श्रेष्ठ वैज्ञानिक लिपि है और अपनी विशेषताओं के कारण सर्वगुण नागरी है।
विश्व पटल पर हिन्दी
यह सर्वविदित है की विश्व की समस्त भाषाओं की जननी संस्कृत ही है परन्तु इस देवभाषा का यदि कोई उत्तराधिकारी है तो वह हिन्दी ही है। अपनों के ही द्वारा दीन-हीन कहलाते हुए, अपमान का दंश झेलते हुए भी हिन्दी पूर्ण विश्वास से आगे बढ़ती चली गई और आज स्थिति यह है की यह भाषा वैश्विक स्तर पर प्रसिद्धि प्राप्त कर चुकी है। विश्वभर में हिन्दी का वर्चस्व तेज़ी से बढ़ता जा रहा है। आज वह विश्व के सभी महाद्वीपों तथा महत्वपूर्ण राष्ट्रों- जिनकी संख्या लगभग एक सौ चालीस है- में किसी न किसी रूप में प्रयुक्त होती है।
वर्तमान में वह बोलने वालों की संख्या के आधार पर चीनी के बाद विश्व की दूसरी सबसे बड़ी भाषा बन गई है। इस बात को सर्वप्रथम सन 1999 में ‘मशीन ट्रांसलेशन समिट’ अर्थात् यांत्रिक अनुवाद नामक संगोष्ठी में टोकियो विश्वविद्यालय के प्रोफेसर होजुमि तनाका ने भाषाई आँकड़े पेश करके सिद्ध किया है। उनके द्वारा प्रस्तुत आँकड़ों के अनुसार, विश्वभर में चीनी भाषा बोलने वालों का स्थान प्रथम और हिन्दी का द्वितीय है। अंग्रेजी तो तीसरे क्रमांक पर पहुँच गई है।
इसी क्रम में कुछ ऐसे विद्वान अनुसंधित्सु भी सक्रिय हैं जो हिन्दी को चीनी के ऊपर अर्थात् प्रथम क्रमांक पर दिखाने के लिए प्रयत्नशील हैं। डॉ जयन्ती प्रसाद नौटियाल ने भाषा शोध अध्ययन 2005 के हवाले से लिखा है कि, विश्व में हिंदी जानने वालों की संख्या एक अरब दो करोड़ पच्चीस लाख दस हजार तीन सौ बावन (1,02,25,10,352) है जबकि चीनी बोलने वालों की संख्या केवल नब्बे करोड़ चार लाख छह हजार छह सौ चौदह (90,04,06,614) है।
यदि यह मान भी लिया जाए कि आँकड़े झूठ बोलते हैं और उन पर आँख मूँदकर विश्वास नहीं किया जा सकता तो भी इतनी सच्चाई निर्विवाद है कि हिंदी बोलने वालों की संख्या के आधार पर विश्व की दो सबसे बड़ी भाषाओं में से है।
इक्कीसवीं सदी की भाषा
इस उत्तर आधुनिक काल में एक ओर जापान जैसे महान राष्ट्र की 60% प्रतिशत से अधिक आबादी लगभग 60 वर्ष को छूते हुए बुढ़ापे की ओर बढ़ गई है वहीं आज से लगभग 15 सालों के अंतर्गत अमेरिका और यूरोप का भी कुछ यही हाल होने वाला है। ऐसे में, विशाल जनसंख्या वाला भारत एक युवा राष्ट्र है, जिसे हम अपने आप में एक बड़ी उपलब्धि मान सकते हैं। हमारे अलावा चीन भी अभी युवा और भारी जनसंख्या वाला देश है और यह बात आने वाले समय में दोनों ही देशों को लाभान्वित करेगी, जिसका कुछ हद तक परिणाम भी अब देखने को मिल रहा है। यह दौर विश्व भर में भारत के साथ-साथ हिन्दी के भी भाग्योदय का दौर है।
हमारे देश में 1980 के बाद 64 करोड़ से ज्यादा बच्चे पैदा हुए हैं, जो विद्यालयों, महाविद्यालयों, विश्वविद्यालयों तथा अंतरराष्ट्रीय शैक्षणिक संस्थानों में शिक्षित हो रहे हैं। वे सन् 2025 तक पूर्ण विकसित और विभिन्न क्षेत्रों में प्रशिक्षित होकर अपनी सेवाएँ देने के लिए विश्व के समक्ष उपलब्ध होंगे। वे विश्व के सबसे तरुण मानव संसाधन होंगे जिस कारण दुनियाभर में उनकी पूछ होगी। यही तरुण भारत जब विश्व के विभिन्न देशों की व्यवस्था और विकास परिचालन का सशक्त हस्ताक्षर बनेगा तब उसके साथ हिन्दी भी जाएगी।
जब भारत विश्व की आर्थिक महाशक्ति बनेगा, व्यापार और उत्पादन दोनों ही भारत पर अधिक निर्भर होगा तब वैश्विक मंच पर स्वतः ही हिन्दी महत्वपूर्ण भूमिका का वहन करेगी। इतिहास में इसने भारत को जोड़ा था भविष्य में यह वैश्विक एकता का प्रतीक बनेगी और विश्वभाषा कहलाएगी।
वैज्ञानिक और पूर्णतः समर्थ भाषा
वह दिन बीत गए जब हिन्दी को असमर्थ बोलकर उसकी अवमानना की जाती थी, अब वह समर्थ भाषा के रूप में ख्याति प्राप्त है। विश्व की श्रेष्ठ भाषाओं में स्थान पाने वाली अन्य भाषाओं में भी हिन्दी जैसा गुण और तत्व नहीं है। यह एक ऐसी भाषा है जिसका सफर अ अनपढ़ से लेकर ज्ञ ज्ञानी तक परिलक्षित होता है। हमारी देवनागरी लिपि की वैज्ञानिकता तो सर्वमान्य है। देवनागरी में लिखी जाने वाली भाषाएँ उच्चारण पर आधारित हैं।
हिन्दी की शाब्दी और आर्थी संरचना प्रयुक्तियों के आधार पर सरल व जटिल दोनों है। हिंदी भाषा का अन्यतम वैशिष्ट्य यह है कि उसमें संस्कृत के उपसर्ग तथा प्रत्ययों के आधार पर शब्द बनाने की अभूतपूर्व क्षमता है। वर्तमान में हिन्दी के पास पच्चीस लाख से ज्यादा शब्दों की सेना है। संसार की अन्यान्य भाषाओं के बहुप्रयुक्त शब्दों को उदारतापूर्वक ग्रहण करने का सामर्थ्य केवल हिन्दी में है।
इस भाषा की वैज्ञानिकता और सुव्यवस्था की छोटी सी झलक प्रस्तुत पंक्तियों से स्पष्ट होती है,
“सुनो क, ख, ग, घ, कंठ से उच्चरा, वहीं त, थ, द, ध दंत के हैं स्वरा,
ट, ठ, ड, ढ़ मूर्धन्य हुआ, य, र, ल, व अंतव्य हुआ, प, फ, ब, भ हैं ओष्ठे…”
संसार की बदलती चिंतनात्मकता तथा नवीन जीवन स्थितियों को व्यंजित करने की भरपूर क्षमता हिंदी भाषा में है, हमें इस दिशा में अब केवल अधिक बौद्धिक तैयारी तथा सुनियोजित विशेषज्ञता के साथ अपने कदम को बढ़ाने की आवश्यकता है।
साहित्य के क्षेत्र में
भारत माँ की गोद में जिसका, भोला बचपन बीता है
तुलसी ने मानस को रचकर, जनमानस को जीता है
सूर, कबीर, मीरा जिसके, थे सब रस के दीवाने
और बिहारी, घनानंद की ये ही मात पुनीता है
साहित्य जगत में हिन्दी की सृजन धारा लगभग बारह सौ सालों (आठवीं शताब्दी से लेकर वर्तमान में इक्कीसवीं शताब्दी) से प्रवाहित हो रही है। उसका काव्य साहित्य तो संस्कृत के बाद विश्व के श्रेष्ठतम साहित्य की क्षमता रखता है। उसमें लिखित उपन्यास एवं समालोचना भी विश्वस्तरीय है। आज हिंदी में विश्व का महत्त्वपूर्ण साहित्य अनुसृजनात्मक लेखन के रूप में उपलब्ध है और उसके साहित्य का उत्तमांश भी विश्व की दूसरी भाषाओं में अनुवाद के माध्यम से जा रहा है।
‘पद्मावत’, ‘रामचरित मानस’ तथा ‘कामायनी’ जैसे महाकाव्य विश्व की किसी भी भाषा में नहीं हैं। कबीर, तुलसी, सुर, जायसी, बिहारी, देव, घनानंद, गुरु गोबिंद सिंह, भारतेन्दु हरिश्चंद्र, जयशंकर प्रासद, पन्त, निराला, दिनकर, महादेवी वर्मा, धर्मवीर भारती, अज्ञेय आदि कवियों की रचनाओं ने यह सिद्ध कर दिया है हिंदी में अपने भावों और विचारों को अभिव्यक्त करने की अद्भुत और अलौकिक शक्ति है। हमारे साहित्य का आंगन तो मुंशी प्रेमचंद जी की अद्वितीय कृतियों से भरा-पुरा है।
वर्तमान समय में हिन्दी का कथा साहित्य भी फ्रेंच, रूसी तथा अंग्रेजी के लगभग समकक्ष है। आज हिंदी साहित्य की विविध विधाओं में जितने रचनाकार सृजन कर रहे हैं उतने तो बहुत सारी भाषाओं के बोलने वाले भी नहीं हैं। केवल संयुक्त राज्य अमेरिका में ही दो सौ से अधिक हिंदी साहित्यकार सक्रिय हैं जिनकी पुस्तकें छप चुकी हैं। समृद्धशाली हिन्दी साहित्य पूरे संसार में सम्मानित हो रहा है। हिन्दी केवल विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र की ही राष्ट्र भाषा नहीं है बल्कि पाकिस्तान, नेपाल, भूटान, बांग्लादेश, फिजी, मॉरीशस, गुयाना, त्रिनिदाद तथा सुरीनाम जैसे देशों की सम्पर्क भाषा भी है।
वह भारतीय उपमहाद्वीप के लोगों के बीच खाड़ी देशों, मध्य एशियाई देशों, रूस, समूचे यूरोप, कनाडा, अमेरिका तथा मैक्सिको जैसे प्रभावशाली देशों में रागात्मक जुड़ाव तथा विचार-विनिमय का सबल माध्यम है। हिन्दी के विकास रथ में हमें विधि, विज्ञान, वाणिज्य तथा नवीनतम प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में पाठ-सामग्री का तेज़ी से निर्माण करना होगा। आज आवश्यकता है भारतीय जनमानस को अपनी हिन्दी के प्रति जागरूक होने की, उसे गर्व से व्यवहृत करने की।
हम अंग्रेजों की दासता से तो मुक्त हो गए अब अंग्रेजी की बारी है। हमारा अँग्रेजी तथा विश्व कि किसी अन्य भाषा से कोई द्वेष नहीं है, हमें उन्हें अवश्य सीखना चाहिए, उनके समृद्ध साहित्य का आस्वादन करना चाहिए, उनमें उपलब्ध तकनीकी ज्ञान के भण्डार को आत्मसात करना चाहिए परन्तु इन सबके बीच अपनी हिन्दी का यथोचित सम्मान भी करना चाहिए।
(लेखिका शुभांगी उपाध्याय, कलकत्ता विश्वविद्यालय में Ph.D शोधार्थी हैं।)